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श्याम कश्यप बेचैन की रचनाएँ

सफ़र है, सफ़र में सबर रख के चल

सफ़र है, सफ़र में सबर रख के चल
कहाँ है तू इसकी ख़बर रख के चल

कहीं तुझको बहका के भटका न दे
तू अपनी नज़र पर नज़र रख के चल

चला ही जो है सच के रस्ते में तो
जवाँ मर्द जैसा जिगर रख के चल

दुआ दिल की है, कोई बोझा नहीं
ज़रूरत नहीं है मगर रख के चल

जो कहना है तुझको वो कह के ही उठ
न दिल में ज़रा भी कसर रख के चल

खिंचा आए काबा जहाँ सर झुके
तू सज्दे में इतना असर रख के चल

अर्से के बाद आज इधर से उधर गया 

अर्से के बाद आज इधर से उधर गया
अच्छा हुआ जो बाढ़ का पानी उतर गया

पीने चला नदी को, हिमाक़त तो देखिए
कच्चा घड़ा पसीज के फूटा, बिखर गया

अंदाज़ फ़ासलों के यक़ीं में सिमट गए
आँखों में जैसे मील का पत्थर उभर गया

क्या बात है यहाँ पे पनपता नहीं है कुछ
शायद किसी दरख़्त का साया पसर गया

अच्छा हुआ सुखों को लगाया गले नहीं
तपकर दुखों की आँच में कुछ तो निखर गया

ग़र्दो-गुबार ज़ेहन में छाए हैं अब तलक
सँकरी गली से भीड़ का रेला गुज़र गया

हाय घुट-घुट के अपने अंदर लोग

हाय घुट-घुट के अपने अंदर लोग
प्यास से मर गए समंदर लोग

चाहते हैं शहर की रौनक़ हों
रंग-रोग़न लगा के खण्डहर लोग

क्या मनाएँगे जश्ने-हरियाली
सब्ज़ कपड़े पहन के बंजर लोग

ख़ुश्क जंगल की मर गईं सड़कें

ख़ुश्क जंगल की मर गईं सड़कें
ज़र्द पत्तों से भर गईं सड़कें

चोटियों तक पहुँच ही जाएँगी
खाइयों में उतर गईं सड़कें

जाने कैसी घड़ी में निकली थीं
लौट कर फिर न घर गईं सड़कें

बह गए पुल उफ़नते पानी में
अचकचा कर ठहर गईं सड़कें

कितना दहशत भरा था सन्नाटा
अपने आहट से डर गईं सड़कें

नाम उनके शहर का सुनते ही
कुछ ज़ेहन में उभर गईं सड़कें

दूर टीले तलक दिखीं जाते
फिर न जाने किधर गईं सड़कें

सारी दुनिया हरी-भरी होगी

सारी दुनिया हरी भरी होगी
ये लड़ाई जो आख़िरी होगी

आप बैसाखियों पे चलते हैं
आप से ख़ाक रहबरी होगी

कोशिशें ग़र दिखावटी होंगी
कामयाबी भी ऊपरी होगी

आज जो फ़ाख़्ते उड़ाते हैं
उनके हाथों में कल छुरी होगी

रेत नीचे की अब तलक नम है
कोई नद्दी यहाँ मरी होगी

बोल देना बहार आएगी
कोई पत्ती अगर हरी होगी

हम जब तेरे ख़याल में गहरे उतर गए 

हम जब तेरे ख़याल में गहरे उतर गए
आँखों के सामने कई चेहरे उभर गए

बतला रही हैं आपके माथे की सलवटें
कितना हिला के आपको तूफ़ाँ गुज़र गए

बौनी हैं इन बुलंद दीवारों की चौखटें
इस घर में जो भी आए झुका कर वो सर गए

कह कर कि उँगलियों पे नहीं नाचने के हम
धागे से टूट-टूट के दाने बिखर गए

कैसे किसी लकीर को देखोगे ज्योतिषी
देखो ये मेरे हाथ तो छालों से भर गए

उन आइनों पे धूल की पर्तें चढ़ी मिलीं
जिन आइनों के काँच से पारे उतर गए

न पूछो ये क्या माजरा देखता हूँ

न पूछो ये क्या माजरा देखता हूँ
मैं अपने को अक्सर मरा देखता हूँ

कभी देखता था जहाँ पर हवेली
वहीं आजकल मक़बरा देखता हूँ

ये माटी के पुतले कहीं गल न जाएँ
हर इक सिम्त पानी भरा देखता हूँ

कोई हादसा हो गया क्या शहर में
जिसे देखता हूँ, डरा देखता हूँ

यही सोचकर, कोई बाहर तो होगा
हरेक शख़्स का कटघरा देखता हूँ

मेरे दिल को मिलती है थोड़ी-सी ठंडक
किसी पेड़ को जब हरा देखता हूँ

इस डगर कुछ लोग तो कुछ उस डगर जाते हैं, दोस्त

इस डगर कुछ लोग तो कुछ उस डगर जाते हैं दोस्त
काफ़िले चलने से पहले ही बिखर जाते हैं दोस्त

इस बिना बुनियाद की छत के तले तू बैठ मत
रेत के घर की तरह ये घर भहर जाते हैं दोस्त

यह कोई माया की नगरी है यहाँ से भाग चल
शाम होते ही यहाँ सब लोग मर जाते हैं दोस्त

ऐसे मुर्दों के शहर में लाश बन कर ही रहें
देखकर ज़िन्दा यहाँ इन्सान डर जाते हैं दोस्त

घेर लेती है अचानक भीड़ ख़्यालों की हमें
एक पल को जब कभी तनहा ठहर जाते हैं दोस्त

फ़िक्रे दुनिया को भुलाती है ग़ज़लगोई की घुन
गुनगुनाते ज़िन्दगी के दिन गुज़र जाते हैं दोस्त

आंधियों की शक्ल में, झंडे फहर जाते हैं दोस्त
ऊब कर जब लोग सड़कों पर उतर जाते हैं दोस्त

फूटते ज्वालामुखी, लावे बिखर जाते हैं दोस्त
लोग जब बर्दाश्त की हद से गुज़र जाते हैं दोस्त

अब तो सड़कों को यहाँ समतल बनाना चाहिये
सीढ़ियों के इस शहर में, पाँव भर जाते हैं दोस्त

वो चमक उठते हैं सूरज की तरह आकाश में
लोग जो अंधी सुरंगों में उतर जाते हैं दोस्त

कुछ नई चालाकियाँ वो ले के आते हैं ज़रूर
गाँव के मुखिया हमारे, जब शहर जाते हैं दोस्त

आज नहीं तो कल के करते पक्के वादे फिरते हैं

आज नहीं तो कल के करते पक्के वादे फिरते हैं
सर पर अपने कर्ज़े की गठरी हम लादे फिरते हैं

भूल गये सब, पडे़ गिरस्ती के चक्कर में जब से हम
कोल्हू के बैलों सा अब तो ख़ुद को फाँदे फिरते हैं

उनमें से हम भी इक हैं जिनके घर भूँजी भांग नहीं
लेकिन छैला बन कर अपने साहबज़ादे फिरते हैं

हम ग़रीब घर के लड़के से गाँठ जोड़ देते लेकिन
बिटिया के सपनों की गलियों में शहज़ादे फिरते हैं

किससे खुल कर दुख बतियाएँ किसको यहाँ कहें अपना
सब के सब तो नकलीपन के ओढ़ लबादे फिरते हैं

जब तक कुर्सी पर थे, तब तक हम शाहों के शाह रहे
अब तो भीड़ भरी सड़कों पर बने पियादे फिरते हैं

होता नहीं जिस्म से अब तो कोई काम ज़ईफ़ी में
फिर भी दिल में कुछ करने के लिए इरादे फिरते हैं दोस्त

कैसी मिली है हमको विरासत में ज़िन्दगी

कैसी मिली है हमको विरासत में ज़िन्दगी
कटती है साँस-साँस हिरासत में ज़िन्दगी

देखें क्या गुल खिलाएगा अब ताज़िराते वक़्त
है कटघरे के बीच, अदालत में ज़िन्दगी

ख़तरे की आहटों से धड़कता रहा ये दिल
हरदम पड़ी रही मेरी साँसत में ज़िन्दगी

फिर भी वही फ़रिश्ते हैं, जिनकी गुज़र गई
शैतान की तरफ से वकालत में ज़िन्दगी

खिड़की से झाँक कर ये लगा, क्यों गुज़ार दी
ख़ुशफ़हमियों की बंद इमारत में ज़िन्दगी

राह घनघोर है जहाँ मैं हूँ / श्याम कश्यप बेचैन

राह घनघोर है जहाँ मैं हूँ
धुँध हर ओर है जहाँ मैं हूँ

कान देता नहीं कहीं कोई
शोर ही शोर है जहाँ मैं हूँ

मन मरुस्थल की तरह सूखा है
तन सराबोर है जहाँ मैं हूँ

ऐसी गुत्थी है ज़िन्दगी, जिसका
ओर ना छोर है जहाँ मैं हूँ

फूल रोते हैं शबनमी आँसू
मातमी भोर है जहाँ मैं हूँ

सिर्फ मैं ही नहीं अँधेरे में
हर कोई चोर है जहाँ मैं हूँ

ख़ूब भरता है कान पर्दो के
घर चुग़लख़ोर है जहाँ मैं हूँ

पैर मज़बूत हैं कुचलते हैं
हाथ कमज़ोर है जहाँ मैं हूँ

क्या हुआ, पीछे अगर शिकवा-गिला करते हैं लोग

क्या हुआ, पीछे अगर शिकवा-गिला करते हैं लोग
सामने तो गर्मजोशी से मिला करते हैं लोग

पास आते ही सभी पत्थर के हो जाते हैं क्यों
दूर से मानिन्द पर्दों के हिला करते हैं लोग

आदमी से प्यार करने के लिए कहता हूँ जब
पास के थाने में जाकर इत्तिला करते हैं लोग

वे हमेशा से फहरते ही रहे हैं आज तक
रुख़ हवाओं के समझ कर जो हिला करते हैं लोग

गाड़ देते हैं वहीं इंसानियत की लाश को
जिस जगह से कूच अपना क़ाफ़िला करते हैं लोग

है कहाँ अपनी ज़मीं, जुड़ कर कहें जिससे ग़ज़ल
आजकल तो सिर्फ गमलों में खिला करते हैं लोग

उमस है, प्यास है, गहरी घुटन है 

उमस है प्यास है गहरी घुटन है
शहर है या कोई सँकरा सहन है

बिजूखे की तरह जो दिख रहा है
किसी मग़रूर का शायद जे़हन है

जे़हन पे हम बहुत इतरा रहे थे
चलो अच्छा हुआ वह भी रेहन है

नीयत सबकी डुला देती है काफ़िर
हवा उसकी गली की बदचलन है

वो मेरी रूह तो शायद नहीं है
ये देखो लाश किसकी बेकफ़न है

सिखा चालाकियाँ, इसको ना छीनो
मेरा सब कुछ मेरा दीवानापन है

मुझे बाहर ही बाहर ढूँढता है
मेरा एहसास कस्तूरी हिरन है

बाहर से दिखाने के लिए भीड़-भाड़ है

बाहर से दिखाने के लिये भीड़-भाड़ है
अंदर से वह मकान तो बिल्कुल उजाड़ है

साए के लिये सिर पे नहीं एक झाड़ है
लोगों की ज़िन्दगी यहाँ चटियल पहाड़ है

इन हादसों के दौर में मत ढूँढिए सुकून
सब के दिलो-दिमाग़ में बस मार-धाड़ है

सूखे से बच गए हैं तो डूबेंगे बाढ़ में
इस साल दुर्बलों के लिए दो आषाढ़ है

एकटक वो घूरते हैं फ़क़त आसमान को
उनकी नज़र में कोई न तिल है न ताड़ है

महज़ एक दोस्ताना अर्ज़ है, समझे कि ना समझे

महज़ एक दोस्ताना अर्ज़ है, समझे कि ना समझे
उसे समझाना मेरा फ़र्ज़ है, समझे कि ना समझे

ये वैसे तो बहुत ही साफ़ और बेबाक़ बातें हैं
मगर उसको वहम का मर्ज़ है, समझे कि ना समझे

घुमा कर बात कहने पर समझने का वो आदी है
मेरा कहने का सीधा तर्ज़ है, समझे कि ना समझे

जिसे मैं सामने उसके कभी भी कह नहीं पाया
मेरी ख़ामोशियों में दर्ज़ है समझे कि ना समझे

जो सीखा मैंने दुनिया से, बताकर ही वो जाऊँगा
मेरे सर इल्म का यह कर्ज, है समझे कि ना समझे

ना रोना सबके आगे अपनी लाचारी का रोया कर
यहाँ हर आदमी ख़ुदगर्ज़ है समझे कि ना समझे

वो दिल में सोचते क्या हैं, हुआ यह इल्म जब हमको
कहा हमने कि आदाबअर्ज़ है, समझे कि ना समझे

कुछ इस तरह शिकंजे में वह सियह वक़्त को कसता है

कुछ इस तरह शिकंजे में वह सियह वक़्त के कसता है
जैसे पिघले डामर के डबरे में बछड़ा धँसता है

हमलावर तेवर हैं सबके, सब अपनी ही जद में हैं
अपना-अपना अस्ला सबका, अपना-अपना दस्ता है

अपनी रोटी जूझ के, खट के, अपने से ही पाना है
छीना-झपटी के आलम में किसको कौन परसता है

अंदर से ख़ुश हो, कुरेदते हैं वो हमदर्दी जतला
क्या अपने हम मुँह से बोलें हाल हमारा ख़स्ता है

जब भी पाँव धरा उस चौखट के भीतर, तो लगा मुझे
जैसे धागे का कोई रेशा सुई के छेद में फँसता है

काश उठा सकता मैं नीली छतरी-सी भारी छतरी
उपर से झीलों के चेहरे पर तेज़ाब बरसता है

कपडे़ जैसा उधड़ उधड़ कर, जगह-जगह से फटता है

कपडे़ जैसा उधड़ उधड़ कर, जगह जगह से फटता है
मेरा मैं, हालात के हाथों कुछ इस तरह घिसटता है

धज्जी-धज्जी कर डाला मुझको तेरे अहसानों ने
तेरा नमक, मेरी रग-रग में घुल कर बम-सा फटता है

घाटों और किनारों पर क्यों बंदूकें हैं तनी हुई
पंछी के पीने से क्या दरिया का पानी घटता है

उसको क्या मालूम कि इक दिन उसमें ख़ुद बँध जाएगा
मुझे बाँधने की ख़ातिर जो अक्सर रस्सी बँटता है

आज नहीं तो कल ही सही वो क्या है हक़ीक़त समझेगा
आँखों के आगे से पर्दा हटते-हटते हटता है

लोगों को बताता हूँ मैं आवाज़ की ताकत

लोगों को बताता हूँ मैं आवाज़ की ताकत
शायर हूँ मेरे पास है अल्फ़ाज़ की ताक़त

कब तक बना रहेगा कोई आज की ताक़त
इक दिन तो रंग लाएगी नाराज़ की ताक़त

क्या ख़ाक काम आएगी जाँबाज़ की ताक़त
बुज़दिल भी है लिए नए अंदाज़ की ताक़त

उड़ता हूँ ख़यालों को लिए आसमान में
पर हैं नहीं, पर है अभी परवाज़ की ताकत

बेकार लड़ रहा है, अरे हार जाएगा
है पास में उसके, तेरे हमराज़ की ताक़त

अपने ही भाईयों पे झपटने लगेगा वो
चूजे़ को मिल ना जाए कहीं बाज की ताक़त

चाहत ख़्वाबी.

चाहत ख़्वाबी
समझ क़िताबी

काली बदली
रात नक़ाबी

चुभती ख़ुशबू
दर्द गुलाबी

ख़ालिस बातें
काम खि़ज़ाबी

इश्क़ करे क्या
जे़हन हिसाबी

तन सूफ़ी का
मन क़स्साबी

इतने गहरे हैं जब जुबानी में

इतने गहरे हैं जब जुबानी में
क्यों उतरते नहीं हैं पानी में

ताकि कुछ तो लगे हक़ीकत-सी
और कुछ जोड़िए कहानी में

हमको हरगिज़ समझ नहीं सकते
आप रहते हैं बदगुमानी में

सच नहीं बोलते तो क्या होता
फँस गए हम ग़लतबयानी में

तंगदस्ती ने इस क़दर मारा
हो ना पाए जवाँ जवानी में

आए पानी को बाँधने लेकिन
आप भी बह गए रवानी में

दरिंदगी से न मिलती निजात है, यारो !

दरिंदगी से न मिलती निजात है, यारो !
हरेक दिन यहाँ जंगल की रात है, यारो !

खुलेगा उस पे कटोरों का कारख़ाना इक
दबा मशीन के नीचे जो हाथ है, यारो !

किसी को बूँद मयस्सर नहीं है पानी की
किसी के हौज में आबे-हयात है, यारो !

किसी के वास्ते दुनिया की हर ख़ुशी ग़म है
किसी के वास्ते ग़म ही निशात है, यारो !

सबूत ढूँढिए मत कीजिए दफ़ा क़ायम
हमारी ज़ात ही मुजरिम की ज़ात है, यारो !

यहाँ पे बात न करना वतनपरस्ती की
यहाँ पे मुल्क से बढ़ कर जमात है, यारो !

जंग की ख़्वाहिश न दिल में, जे़हन में गारद न हो

जंग की ख़्वाहिश न दिल में, जे़हन में गारद न हो
ग़र हमारे और तुम्हारे बीच में सरहद न हो

वहम की दीवार को पहले ढहा कर देखिए
बंदापरवर दिल से दिल का फ़ासला शायद न हो

बुत समझकर तोड़िए मत मज़हबी जज़्बात में
देखिये शायद कहीं यह संग-ए-अस्बद न हो

फै़सला मैदाने-महशर का ही ये बतलाएगा
शाह आलमगीर शायद मुजरिमे-सरमद न हो

बंद होकर, तंग दुनिया में है जीने की ललक
हो भले अहसास बेहद का मगर बे हद न हो

आप यूँ ही आए हैं, होता नहीं दिल को यक़ीं
मेरे घर पे आप आए और कोई मक़सद न हो

बोल कर एक लफ़्ज़ मुझको आपने उलझा दिया
सोचता हूँ बीज के अंदर कोई बरगद न हो

चाह सबकी है, मसला हो हल, दोस्तो ! 

चाह सबकी है, मसला हो हल, दोस्तो !
कोई करता नहीं है पहल, दोस्तो !

अब दरिंदों के हक़ में ज़मीं हो गई
आदमी हो गया बेदख़ल, दोस्तो !

कश्मकश में रहूँ और कुछ न कहूँ
ऐसा पूछो न मुझसे मसल, दोस्तो !

और कीचड़ को बढ़ने दो चारों तरफ़
कीचड़ों में खिलेंगे कमल, दोस्तो !

झुग्गियों को ज़मीं से उठाएँगे अब
वो बनाकर हवा में महल, दोस्तो !

सर के ऊपर फूस की छानी तो है

सर के ऊपर फूस की छानी तो है
आपकी इतनी मेहरबानी तो है

बच गए सूखे से हम तो क्या हुआ
डूबने को बाढ़ का पानी तो है

एक मुट्ठी ही सही, खाने के बाद
पेट भरने के लिए पानी तो है

सिर्फ गठरी भर गिरस्ती ठीक है
सिर पे ढो लेने में आसानी तो है

झोल खटिए की तरह बेदम सही
ज़िदगी का कुछ न कुछ मानी तो है

गर ख़ुशी हासिल नहीं तो क्या हुआ
ग़म ग़लत करने की मनमानी तो है

ओस है, लू भरी लहर भी है

ओस है, लू भरी लहर भी है
यह सुबह भी है, दोपहर भी है

सब्ज़ रहते हैं खेत ज़ख्मों के
दिल में शायद कोई नहर भी है

हार के वास्ते लड़ा हूँ मैं
जंग में जीतने का डर भी है

उसकी शीरीं जुबां पे मत जाना
हाँ वो मीठा है, पर जहर भी है

लोग कहते हैं जिसको मेरा घर
उस तबेले में, मेरा घर भी है

छू ले सबके दिलों को, जोडे़ भी
इससे बढ़ कर कोई हुनर भी है

मरुस्थल में हरेपन की झलक है

मरुस्थल में हरेपन की झलक है
मेरे भीतर में जंगल अब तलक है

पटक कर पाँव कब का जा चुका वह
अभी तक दिल की धरती में दलक है

चलेगी किस तरह लफ़्ज़ों की कश्ती
किसी सूखी नदी जैसा हलक़ है

चिता को देख कर रोता ना समझो
धुएँ से हो गई गीली पलक है

जो है हलचल मचाने पर उतारू
किसी अधजल सुराही की छलक है

उर्दू कहेंगे लोग, ना हिन्दी कहेंगे लोग 

उर्दू कहेंगे लोग, ना हिन्दी कहेंगे लोग
मेरी ग़ज़ल को सिर्फ़ ग़ज़ल ही कहेंगे लोग

मिट जाएँगे जे़हन से जुबाँ के तमाम भेद
दिल की सुनेंगे लोग और दिल की कहेगें लोग

सचमुच तुम्हें लगेगा कि मैंने ही कहा था
बातें बना बना के कुछ ऐसी कहेंगे लोग

पागल समझ के जिसका उड़ाते हैं सब मज़ाक
मरने के बाद कल उसे सूफ़ी कहेंगे लोग

ख़ुद क्यों कहूँ कि मैं हूँ एक शायर अज़ीमतर
पढ़-पढ़ के मेरे शेर को खुद ही कहेंगे लोग

शीशे की दीवार में बंद

शीशे की दीवार में बंद
मछली तड़पे जार में बंद

सब कुछ है अंधियार में बंद
सूरज काले ग़ार में बंद

घूम रही कश्ती-सी दुनिया
गिर्दाबी रफ़्तार में बंद

किसने इकतारा छेड़ा है
सब कुछ है झनकार में बंद

फूँको-फूँको ज़ोर से फूँको
लपटें हैं अंगार में बंद

बरखा इन आँखों में बसना
होना जब तुम क्वार में बंद

पहले दिल से निकाल देते हैं

पहले दिल से निकाल देते हैं
फिर हम उनकी मिसाल देते हैं

ताकि टिक जाएँ और अंगारे
राख ऊपर से डाल देते हैं

उनके चेहरे बुझे-बुझे से हैं
जो सुलगते सवाल देते हैं

जब भी रोटी की बात चलती है
आप नारे उछाल देते हैं

क्या यहाँ आदमी नहीं बसते
नाक पर क्यों रुमाल देते हैं

पूछिये मत सिफ़त पसीनों की
ये लहू को खंगाल देते हैं

ये भी मुद्दा है कोई कह-कह के
लोग मसले को टाल देते हैं

सच वो बेवा है अपने लोग जिसे
घर से बाहर निकाल देते हैं

दिल कहीं, और कहीं नज़र रख के

दिल कहीं, और कहीं नज़र रख के
मिलिए ख़ुद को न बेख़बर रख के

कैसे कह दें कि घर से बाहर हैं
घर से निकले हैं सर पे घर रख के

सो रहे हैं मेरी सदी के लोग
नाग की कुण्डली में सर रख के

ख़ुद को ऐसा पड़ा हुआ पाया
चल दिया हो कोई दिगर रख के

कहिए तो सब्ज़बाग़ दिखलाएँ
शबनमों से जुबान तर रख के

बेवज़न बोल के मत हों हल्के
गुफ़्तगू कीजिए बहर रख के

मत कर मगर से बैर अरे यार शिवचरन 

मत कर मगर से बैर, अरे यार शिवचरन !
चुपचाप सिर्फ़ तैर, अरे यार शिवचरन !

मत कर हवा में सैर, अरे यार शिवचरन !
खूँटे में बाँध पैर, अरे यार शिवचरन !

पानी में गिर पड़ा है फिसल के तो क्या हुआ
डुबकी लगा के तैर, अरे यार शिवचरन !

मत चल क़दम मिला के ज़माने के साथ-साथ
ख़ुद को लिए बगै़र, अरे यार शिवचरन !

करना है घर की बात तो बाहर निकल के कर
घर में भरे हैं ग़ैर, अरे यार शिवचरन !

असमंजस में रह-रह के

असमंजस में रह-रह के
हार गये हम सह-सह के

सब है शहर में पर घर की
याद आती है रह-रह के

मेरा कोई उस्ताद नहीं
सीख रहा हूँ कह-कह के

क्यों ना परचम-सा फहरूँ
तेज़ हवा में बह-बह के

मुँह से यह क्या निकल गया
सोच रहा हूँ कह-कह के

बिखरे हुए गहने, फटी साड़ी की चिन्दियाँ

बिखरे हुए गहने, फटी साड़ी की चिन्दियाँ
टूटे हुए से गिद्ध के पर देख रहे हैं

संगीन के साए में है दहशत की ख़ामोशी
माहौल में कर्फ़्यू का असर देख रहे हैं

कैसी ये सियासत है कि मज़हब के नाम पर
लुटता हुआ ग़रीब का घर देख रहे हैं

बेजान ये मरते हुए रिश्ते गवाह हैं
हम आपके तोहफ़ों में ज़हर देख रहे हैं

क्या है न बताओ हमें ये दौरे तरक़्क़ी
खाई से पहाड़ों के शिखर देख रहे हैं

तूफ़ान कोई आपके अन्दर ज़रूर है
हम आपके माथे पे लहर देख रहे हैं

शायद वतन को कोई फ़रिश्ता उबार दे
अख़बार में हर रोज़ ख़बर देख रहे हैं

नफ़रत, वहशत, दहशत का सैलाब दिखाई देता है 

नफ़रत, वहशत, दहशत का सैलाब दिखाई देता है
सारा हिन्दुस्तान दुख भरा ख़्वाब दिखाई देता है

कुछ करने के लिए, नहीं करता है यहाँ पहल कोई
कुछ कहने को, हर कोई बेताब दिखाई देता है

बूँद-बूँद से जिसे बनाया गया समन्दर, आज वही
सड़ी मछलियों का गंदा तालाब दिखाई देता है

कैसे किसी शरीफ़ की चमड़ी बच पाएगी सच कहकर
जब झूठों के हाथों में तेज़ाब दिखाई देता है

नैतिकता, जनहित, अनुशासन, देशप्रेम सेवा का व्रत
जाने कैसा-कैसा मुझको ख़्वाब दिखाई देता है

ढोर सरीखे, शाम लौटते वक़्त अंधेरी गलियों में
अपना ही साया हमको क़स्साब दिखाई देता है

बेक़रारी के क़रारों को न छेड़े कोई 

बेक़रारी के क़रारों को न छेड़े कोई
मेरे जीने के सहारों को न छेड़े कोई

गली से भीड़ का रेला गुज़र गया कब का
बेसबब गर्द-ग़ुबारों को न छेड़े कोई

टूट जाएँगे उजालों में ये रिश्तों के भरम
इन धुँधलकों की दीवारों को न छेड़े कोई

मैं बजूँगा तो थिरक उट्ठेंगे दुनिया के क़दम
मेरे एहसास के तारों को न छेड़े कोई

आज की रात यहाँ चाँदनी नहाएगी
आज दरिया के किनारों को न छेड़े कोई

इनके साये में मुसाफ़िर पनाह लेते हैं
इन दरख़्तों की कतारों को न छेड़े कोई

ज़िंदगी, तेरे क़ैदख़ाने में

ज़िंदगी, तेरे कै़दख़ाने में
फ़र्क़ आएगा क्या दीवाने में

वो लगे हैं हँसी उड़ाने में
गिर पड़े हम जिन्हें उठाने में

मेरी नाकामियाँ लगी ही रहीं,
हर घड़ी हौसला बढ़ाने में

मिट गया भीगकर पसीने से
नाम लिक्खा था दाने-दाने में

पत्थरों का जवाब है पत्थर
सर तुड़ाओ न सर बचाने में

आज फिर उठ गए बहुत जल्दी
छोड़ कर ख़ुद को हम सिरहाने में

बेकार सर ना खाओ, मेरे सर में दर्द है

बेकार सर ना खाओ, मेरे सर में दर्द है
चुपचाप सर दबाओ मेरे सर में दर्द है

पूछो ना वज़ह दर्द की, मैं क्या बताऊँगा
मुझमें न सर खपाओ मेरे सर में दर्द है

पटको वहाँ सर जा के, जहाँ मिल सके दवा
सर मत फ़क़त खुजाओ मेरे सर में दर्द है

जो सर पे चढ़ के बोले, दवा दो, पर हर दवा
सर पर न आज़माओ मेरे सर में दर्द है

घर सर पे क्यों उठाए हुए हैं बिलावज़ह
इन को न सर चढ़ाओ मेरे सर में दर्द है

आए मिज़ाज पूछने सर-दर्द बन गए
ऐसों से सर छुड़ाओ मेरे सर में दर्द है

जो सर झटक के चल दिए, जाएँ वो भाँड़ में
तुम तो न सर उठाओ मेरे सर में दर्द है

धज्जी-धज्जी हुए कफ़न फट कर कीलों की बस्ती में

धज्जी-धज्जी हुए कफ़न फट कर कीलों की बस्ती में
कैसे अपनी लाश बचाएँ हम चीलों की बस्ती में

अपनी ही गलियों में चलने पर ऐसा क्यों लगता है
जैसे हिरन भटक कर आया हो भीलों की बस्ती में

भेजा गया जिन्हें था समतल करने उबड़-खाबड़ को
आकर बन बैठे हैं पर्वत वो टीलों की बस्ती में

गहरे तल में बैठी प्यासी रेतों से पूछे कोई
कितने रेगिस्तान छुपे हैं इन झीलों की बस्ती में

पत्थर ढोने वाले हाथों की रेखाएँ कहती हैं
कोई राम नहीं आयेगा नल-नीलों की बस्ती में

नई रोशनी लेकर आए हैं वो नए ज़माने की
नए अँधेरे छाएँगे फिर कंदीलों की बस्ती में

कीजिए मत कमाल की उम्मीद

कीजिए मत कमाल की उम्मीद
हमसे ऐसे ख़याल की उम्मीद

बन के चूहे, कुतर रहे हैं वही
जिनसे थी देखभाल की उम्मीद

राजधानी में ख़ूब बरसा है
अब नहीं है अकाल की उम्मीद

मेरी बस्ती में सिर्फ गूंगे हैं
कीजिए मत सवाल की उम्मीद

इन धमाकों के शहर में बस कर
क्या रखें जान-माल की उम्मीद

सब्र करना पड़ा कटोरे से
लेके आए थे थाल की उम्मीद

थोड़ी बिगड़ी है, कोई बात नहीं
है अभी बोलचाल की उम्मीद

उसको देखा था, उसका डर देखा

उसको देखा था, उसका डर देखा
आज हथियार उसके घर देखा

इतना दहशतज़दा था मैं उस रात
ख़्वाब भी चौंक-चौंक कर देखा

उस जली बेकसों की बस्ती में
ख़ाक के ढेर में शरर देखा

उसमें तूफ़ान जज़्ब थे लाखों
उसके भीतर जो इक भँवर देखा

आदमी की हवेलियाँ देखीं
आदमीयत का खण्डहर देखा

काश ये गुत्थियाँ सुलझ जातीं
हमने ऐसा भी चाह कर देखा

अना की गाँठ में जकड़े हुए हैं

.अना की गाँठ में जकड़े हुए हैं
वो मुर्दों की तरह अकड़े हुए हैं

उसी में फँस के मर जाएँगे इक दिन
हम अपने जाल के मकड़े हुए हैं

फहरते थे मीनारों पर दिलों के
महज़ रंगों के अब कपड़े हुए हैं

उखाडें ना कहीं जड़ से ये हम को
जो मुद्दे आज जड़ पकड़े हुए हैं

करेंगे कल वो कर्फ़्यू की वकालत
शहर में आज जो झगड़े हुए हैं

जो गोशे थे गुलों की वादियों के
दरिंदों के खुले जबड़े हुए हैं

कौन करता है कहाँ भूल उन्हें क्या मालूम

कौन करता है कहाँ भूल उन्हें क्या मालूम
वो तो अपने में हैं मशगूल उन्हें क्या मालूम

ये तो तूफ़ान के आने की पेशबंदी है
तान रक्खे हैं जो मस्तूल उन्हें क्या मालूम

उनकी दुनिया तो है महदूद महज गमलों तक
कैसे खिल जाते हैं बनफूल उन्हें क्या मालूम

चुप हूँ कुछ सोच के वर्ना तो सवालों के जवाब
हैं मेरे पास भी माकूल उन्हें क्या मालूम

वो समझते हैं फ़क़त हमको फटीचर शायर
हम भी अब हो गए मक़बूल उन्हें क्या मालूम

ख़ुद को चलने से वो लाचार समझ बैठे हैं

ख़ुद को चलने से वो लाचार समझ बैठे हैं
बिन चले राह को पुरख़ार समझ बैठे हैं

हम तो दुश्वार को समझे नहीं दुश्वार कभी
लोग आसान को दुश्वार समझ बैठे हैं

कोई समझाए तो समझाए भी कैसे उनको
ख़ुद जो अपने को समझदार समझ बैठे हैं

हम तो आए थे तलब आपकी पूरी करने
आप हमको ही तलबगार समझ बैठे हैं

उसकी बुनियाद भरी है वहम के रोड़ों से
हम जिसे बीच की दीवार समझ बैठे हैं

उसके भीतर भी कभी झाँक के देखा होता
लोग अपना जिसे किरदार समझ बैठे हैं

क़द्रदानी पे हँसी आती है उनकी मुझको
जो रवायत को ही अशआर समझ बैठे हैं

ताज़ा कहते हैं सुनाने को हमेशा मुझको
मेरी ग़ज़लों को क्या अख़बार समझ बैठे हैं

दूसरों से जनाब ज़्यादा हैं

दूसरों से जनाब ज़्यादा हैं
आदमी कम, क़िताब ज़्यादा हैं

सुन न पाए, कि बोल देते हैं
आप हाज़िरजवाब ज़्यादा हैं

उनको आता है दंद-फंद बहुत
हमसे वो क़ामयाब ज़्यादा हैं

वो हक़ीक़त से आँख मूँदे हैं
उनकी आँखों में ख़्वाब ज़्यादा हैं

आप नौका-विहार मत करिए
ठूँठवाले तालाब ज़्यादा हैं

जब हम अच्छों को गिन नहीं पाए
कैसे कह दें, ख़राब ज़्यादा हैं

क्यों वो लगते हैं मुझे चाहने वालों की तरह

क्यों वो लगते हैं मुझे चाहने वालों की तरह
खोदते हैं जो मेरी जड़ को कुदालों की तरह

जो बचाते रहे हर वार से ढालों की तरह
अब वो लगते हैं क्यों बीमार ख़यालों की तरह

भोर होते ही उन्हें भूल गई क्यों दुनिया
रात भर ख़ुद को जलाये जो मशालों की तरह

मेरी आँखों का ये धोखा है, या है सच्चाई
ये उजाले नहीं लगते है उजालों की तरह

ग़ज़नवी आज भी इस मुल्क के अन्दर हैं बहुत
तोड़ देते हैं जो इन्सां को शिवालों की तरह

छोड़ कर उड़ गए अल्फाज़ बाज की मानिन्द
थरथराते हैं मेरे होंठ, डगालों की तरह

ऐशो-इशरत की ही फ़रमाइश नहीं

ऐशो-इशरत की ही फ़रमाइश नहीं
ज़िन्दगी ऐय्याश की ख़्वाहिश नहीं

दूसरों के नापते हैं क़द, मगर
अपनी ख़ातिर कोई पैमाइश नहीं

उस फ़सल के ज़िक्र से क्या फ़ायदा
इस ज़मीं पे जिसकी पैदाइश नहीं

शेर होता है ख़यालो-सोच से
शायरी लफ़्ज़ों की आराइश नहीं

क्या यहाँ बोलें, रवायत के सिवा
कुछ नया कहने की गुंजाइश नहीं

है ये लोहू-लुहान, ठीक नहीं 

है ये लोहू-लुहान ठीक नहीं
आज का आसमान ठीक नहीं

गिर पड़ोगे लुढ़क के मुँह के बल
बेपरों की उड़ान ठीक नहीं

अब तो उबरो मुग़ालते से तुम
झूठ की आनबान ठीक नहीं

आदमी बस, मकीन होता है
ख़ुद को समझो मकान ठीक नहीं

ख़ून में ही रही ना जब गर्मी
प्यालियों में उफ़ान ठीक नहीं

थोड़ी अपनी भी तैश की लत है
थोड़ी उसकी जु़बान ठीक नहीं

आप तलवार की ख़ूबी देखें
क्या हुआ, गर मयान ठीक नहीं

ठीक क्या है, ये जब नहीं जाना
कैसे कह दूँ, जहान ठीक नहीं

अपने लिए खेंची है जो उस हद के आसपास

अपने लिए खेंची है जो उस हद के आसपास
रहता है हर कोई किसी मक़सद के आसपास

है मुल्क का निज़ाम अपाहिज के हाथ में
बैसाखियों की बाड़ है संसद के आसपास

ऊँची उड़ान वालों के चर्चें हैं इन दिनों
बुनियाद ढूँढते हैं जो गुम्बद के आसपास

मैं था कि अपने आप में सिकुड़ा हुआ-सा था
वो चाहते थे मुझको मेरे क़द के आसपास

कथरी बिछा के लेट गया नीम के तले
सब ढूँढते रहे मुझे मसनद के आसपास

मुझको क़तरा जो बनाता है मेरा डर ही तो है

मुझको क़तरा जो बनाता है मेरा डर ही तो है
वर्ना क़तरा भी हक़ीक़त में समन्दर ही तो है

मैं रहूँ या कि चला जाऊँ कोई फ़र्क़ नहीं
मेरा रहना भी न रहने के बराबर ही तो है

मैं परिन्दे की तरह क्यों डरूँ बिजूखे से
वजूद उसका महज़ इक लिबास भर ही तो है

गर ना चुभता तो मेरे पाँव भटक ही जाते
ये मेरी राह का काँटा मेरा रहबर ही तो है

तुमने चाहा कि भला हो मेरा, लेकिन न हुआ
क्या करे कोई मेरा ऐसा मुक़द्दर ही तो है

कभी सितारे हमारे भी थे बुलंदी पर
अब हुए ख़ाक जो ये वक़्त का चक्कर ही तो है

वो अपने हाल पे राज़ी नहीं है

वो अपने हाल पे राज़ी नहीं है
नहीं तो कोई मोहताजी नहीं है

इसे यूँ ही समझ हल्के न लेना
मेरी चुप्पी में लफ़्फ़ाज़ी नहीं है

गुलों की फ़स्ल तो अच्छी है लेकिन
हवा इस बाग़ की ताज़ी नहीं है

वहाँ जाने लगा लाचार होकर
जहाँ जाने का मेरा जी नही है

उकेर आया हूँ मैं पत्थर में ख़ुद को
मेरी यह खोज अंदाज़ी नहीं है

चाह रेशम की साड़ियों-सी है

चाह रेशम की साड़ियों-सी है
राह काँटों की झाड़ियों-सी है

रोज़ खुलती है, बंद होती है
रात काली किवाड़ियों-सी है

झूठ की सरज़मीं पे सच्चाई
ख़ुश्क नंगी पहाड़ियों-सी है

कट ना जाऊँ दरख़्त की मानिंद
उसकी कोशिश कुल्हाड़ियों-सी है

उसकी महफ़िल में हैसियत अपनी
शहर में बैलगाड़ियों-सी है

शर्त हर बात पे लगाता है
उसकी फ़ितरत जुआरियों-सी ह

ग़म के बाजार में हमारी भी
साख अब मारवाड़ियों-सी है

हर तरफ से जमा रहा है वह

हर तरफ से जमा रहा है वह
लहरें गिन कर कमा रहा है वह

धुन में पाने के, उसको क्या मालूम
अपना क्या-क्या गुमा रहा है वह

चलती फिरती मशीन है अब तो
हाँ, कभी आत्मा रहा है वह

ऊब जाता है क्यों घड़ी भर में
मन जहाँ भी रमा रहा है वह

दोस्ती अब नहीं रही शायद
दोस्त को आज़मा रहा है वह

कहाँ फूलों के दरमियान रहे

कहाँ फूलों के दरमियान रहे
जो उसूलों के दरमियान रहे

हम तो केलों के पात जैसे थे
पर बबूलों के दरमियान रहे

काफ़िले तक पहुँच नहीं पाए
उड़ती धूलों के दरमियान रहे

फिर भी अपनी जड़ें नहीं खोईं
हम बगूलों के दरमियान रहे

साथ रहने की भूल की थी कभी
अपनी भूलों के दरमियान रहे

रहा मैं सदा सब्ज़ मंज़र का आदी 

रहा मैं सदा सब्ज़ मंज़र का आदी
मुझे खींचते हैं पहाड़ और वादी

हमें ऐ सुबह बूँद भर ओस देकर
न करवाओ दरियादिली की मुनादी

उसे अपनी ग़लती का अहसास तो है
नहीं बोल कर मैंने उसको सज़ा दी

जो आया यहाँ उसको जाना पडे़गा
हरेक चीज़ है इस जहाँ की मियादी

घर बस्ती जंगल पानी में 

घर बस्ती जंगल पानी में
सब के सब जलथल पानी में

डूबा हुआ महल पानी में
झलके साफ अतल पानी में

शायद है दलदल पानी में
खिलने लगे कमल पानी में

खड़ी रहेगी सिर तक डूबी
कब तक खड़ी फसल पानी में

हवा लहर को छेड़ रही है
लहराए आँचल पानी में

हाथी, घोड़ा, गुफ़ा, पहाड़ी
बना रहे बादल पानी में

अपने दुख की फेंक कंकरी
मचा न तू हलचल पानी में

कम न होंगे ज़िन्दगी भर काम, री बिटिया !

कम न होंगे ज़िन्दगी भर काम, री बिटिया
है नहीं तकदीर में आराम, री बिटिया

मायके से आ गई जब से बहू रानी
और ज़्यादा बढ़ गया है काम, री बिटिया

कोख मेरी अजनबी लगने लगी उसको
भा गई कितनी पराई चाम, री बिटिया

छाँह शायद अब कहीं बाहर मिले हमको
घर के अंदर लग रही है घाम, री बिटिया

जी रहे हैं इस तरह, परदेस में जैसे
कट रही हो ज़िन्दगी की शाम, री बिटिया

नागफनियाँ खा गईं तुलसी के बिरवे को
दब गए कूड़े में शालिग्राम, री बिटिया

करने का बंदोबस्त रहा, कुछ किया नहीं

करने का बंदोबस्त रहा, कुछ किया नहीं
खुशफ़हमियों में मस्त रहा, कुछ किया नहीं

टापू से अपने मैं कभी बाहर न आ सका
सरहद पे करता गश्त रहा, कुछ किया नहीं

सूरज हूँ एक ऐसा जो अब तक उगा नहीं
मैं बादलों में अस्त रहा, कुछ किया नहीं

दौलत मिली हुई थी विरासत में बेशुमार
फिर भी मैं तंगदस्त रहा, कुछ किया नहीं

जाऊँगा जब यहाँ से, कहेंगे गली के लोग
जब तक रहा वो मस्त रहा, कुछ किया नहीं

उम्र का रास्ता ढलान पे है 

उम्र का रास्ता ढलान पे है
हौसला फिर भी आसमान पे है

मेरी रग-रग में अब भी पहले-सी
इक पहाड़ी नदी उफ़ान पे है

लड़खड़ाने लगी शराबी-सी
नाम किसका मेरी जुबान पे है

एक दिन हो तो कोई बात नहीं
रोज़ आफ़त हमारी जान पे है

कितना दिल का अमीर है वो भी
मुफ़लिसी में भी अपनी आन पे है

तेरी बातों के मैं खि़लाफ़ नहीं
उज्र तो तर्ज़-ए-बयान पे है

थक के सोने चला गया सूरज
इक परिंदा मगर उड़ान पे है

तन को ढकने की कोई चीज़ तो है 

तन को ढकने की कोई चीज़ तो है
यार, घुटने तलक कमीज़ तो है

वो न पिघला, ये सच है पर उसको
अपनी पत्थरदिली पे खीज तो है

छोड़ें कैसे, वहाँ मिले ना मिले
कोई अपना यहाँ अज़ीज़ तो है

क्या हुआ, गर बदल गया गुंबद
सर रगड़ने को देहलीज़ तो है

बेअदब दोस्त से बेहतर है वो
दुश्मनी की उसे तमीज़ तो है

सारा खलिहान जल गया तो क्या
मेरी मुट्ठी में बंद बीज तो है

हादसों से उबर नहीं पाया 

हादसों से उबर नहीं पाया
रोज़ मर के भी मर नहीं पाया

छोड़ कर मैं चला गया था जिसे
लौट कर फिर वो घर नहीं पाया

मैं वो जम्हूरियत का परचम हूँ
जो कभी भी फहर नहीं पाया

उफ़ मैं उड़ता रहा हवाओं में, बस
शौक़ के पर कतर नहीं पाया

वो समन्दर था उसमें सब कुछ था
मैं ही गहरे उतर नहीं पाया

मैं था जैसे ख़ला में सय्यारा
एक पल भी ठहर नहीं पाया

वक़्त सबसे बड़ा हक़ीम है पर
मेरे ज़ख़्मों को भर नहीं पाया

उसकी यादों ने मेहरबानी की

उसकी यादों ने मेहरबानी की
मेरे ज़ख़्मों से छेड़खानी की

शेर मैंने नहीं कहे साहब
अपनी आहों की तर्जुमानी की

दरअसल थी वो एक चिंगारी
जिसको समझे थे बूँद पानी की

बन के ईमानदार सबके लिए
मैंने अपने से बेईमानी की

है जवानी पे आग का दरिया
उम्र घटने लगी है पानी की

हुक़्मरानों का हुक़्मरान है वह
जिसने अपने पे हुक़्मरानी की

अपने पसंदीदा सवालों से क़द की नाप

अपने पसंदीदा सवालो से क़द की नाप
करते हैं लोग तंगख़यालो से क़द की नाप

अपनी मिसाल आप हैं वे लोग क्या करें
होती है इस जगह तो मिसालों से क़द की नाप

हमको उतार पाए न शीशे में वे कभी
करते रहे यूँ बाल के खालों से क़द की नाप

पैमाना हैं आप पैमाना ही रहें
करिए न अपने दिल के मलालों से क़द की नाप

कल अपनी छाँह थोप देंगे हमारे सर
बढ़वा रहें हैं अब जो दलालों से क़द की नाप

कितना है किसमें जर्फ़ बता दे साक़िया
करना तू जानता है पयालों से क़द की नाप

अच्छा है नंगे पाँव चलें ग़र पहुँच गए
मंज़िल करेगी पाँव की छालों से क़द की नाप

बात क्या हो सुलह-सफ़ाई की

बात क्या हो सुलह-सफ़ाई की
उसने सपने में भी लड़ाई की

गर्क़ कर देगा अश्क का सैलाब
तह में मत जा मेरी रुलाई की

हर तरफ़ है खनकती ज़ंजीरें
राह सूझे नहीं रिहाई की

साफ़ रिश्तों की झील में अब तो
पर्त कुछ जम गई है काई की

हम पलक पावड़े बिछाए थे
उसने बस आ के रस्म अदाई की

जानते थे बहक रहा है दिल
हमने भी जान कर ढिलाई की

लोग दुश्मन समझ रहें हैं मुझे
आपने क्यों मेरी बड़ाई की

यूँ तो फ़ितरत में आपके ये नही
आपने भूल कर भलाई की

उड़ते हुए जुगनू को सितारा समझ लिया 

उड़ते हुए जुगनू को सितारा समझ लिया
ख़ुश है कि आसमाँ का इशारा समझ लिया

वो बिन बताए हाल हमारा समझ लिया
बस, इक नज़र में मामला सारा समझ लिया

सारे शहर को पाट दिया इश्तहार से
यारों ने इंक़लाब को नारा समझ लिया

होगा ही उसका हाल भी चौहान की तरह
दुश्मन को अपने जिसने बिचारा समझ लिया

क्या खूब लगाई मेरे जज़्बात की क़ीमत
तोहफ़े को मेरे आपने चारा समझ लिया

मत बोल, कर जुबान से शर्मिन्दा कर मुझ
मैने तेरी आँखों का इशारा समझ लिया

जिसकी आँखों में कोई ख़्वाब नहीं

जिसकी आँखों में कोई ख़्वाब नहीं
ज़िंदगी उनकी कामयाब नहीं

लोग ख़ुशबू से जान लेते हैं
मैं खिला हूँ कहे गुलाब नहीं

देनी पड़ती है सर की कुरबानी
सिर्फ नारों से इंक़लाब नहीं

उसका घर, घर नहीं तबेला है
जिसके घर में कोई क़िताब नहीं

जितना समझा है आपने मुझको
उतना मैं आदमी ख़राब नहीं

जब जवाँ थे तो कम तजुर्बे थे
अब तजुर्बा है तो शबाब नहीं

नहीं बेसब्र चाहत होती है 

नहीं बेसब्र चाहत होती है
दिल को दिल से राहत होती है

जिसकी जैसी नीयत होती है
उसकी वैसी बरकत होती है

मैंने भी तो चाहा था तुझको
अपनी अपनी क़िस्मत होती है

तुम तो मिल कर खुश होते हो पर
कुछ लोगों को दिक़्क़त होती है

अगर कहीं है धुआँ आग होगी
यूँ ही नहीं शिकायत होती है

गूंगा मत समझो चुप रहने की
कुछ लोगों की आदत होती है

मैं शायर हूँ वहाँ न ले जाओ
जहाँ दिमाग़ी कसरत होती है

हलक़े में चल रहा है दौरा अमीन का 

हलक़े में चल रहा है दौरा अमीन का
हो जाए ना सिफ़र कहीं रकबा ज़मीन का

दिल भी नहीं रहा है अब अपने यक़ीन का
बन जाए ना ये साँप कहीं आस्तीन का

रहती है बिल बना मेरे अंदर जो नागिनें
उनको निकाल दे कोई अंदाज़ बीन का

चाहे जहाँ लगा दो चलाओ निकाल दो
इन्सान बन गया है पुर्जा मशीन का

इतरा के कह रहा है कि हम बम से कम नहीं
टुकड़ा हवा में उड़ता हुआ पॉलिथीन का

यह मेरे घर के दिल की है चलती हुई धड़कन
समझा है जिसको आपने टुकड़ा जमीन का

निकली अभी जो चीख़ किसी दिल की है कराह
टूटा है तार या कि किसी वायलिन का

आए हैं चालने को वे चलनी लिए हुए
जब फ़र्क़ ख़त्म हो गया मोटे महीन का

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