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श्याम सुन्दर नंदा नूर की रचनाएँ

बड़े अदब से जो उसने सलाम भेजा है

बड़े अदब से जो उसने सलाम भेजा है।
ये लग रहा है महब्बत का जाम भेजा है।

चले भी आओ किसी दिन निकाल कर फुर्सत
बहुत दिनों में ये उसने प्याम भेजा है।

खुदा का शुक्रिया वाजिब है हर घड़ी हम पर
हमें बना के तुम्हारा गुलाम भेजा है।

सलाम भेजा नही उसने भूल कर हमको
सलाम उसको तो हम ने मुदाम भेजा है।

जवाब आने का इम्कान कम सही लेकिन
खत उसको हमने बसद एहतिराम भेजा है।

अजब बात है देखो क्या चाहते हैं 

तेरे मिलने से हम को खुशी मिल गई
यूँ लगा इक नई ज़िंदगी मिल गई

आप के दम से है ज़िंदगी ज़िंदगी
आप क्या मिल ज़िंदगी मिल गई

हम तो तन्हा चले थे मगर राह में
मिल गए हम-सफ़र दोस्ती मिल गई

लोग तारीकियों में भटकते रहे
दिल जला कर हमें रौशनी मिल गई

ज़र मिला है किसी को किसी को ज़मीं
तेरे दर की हमें बंदगी मिल गई

आप का प्यार जब से मिला है हमें
मिट गए सारे ग़म हर खुशी मिल गई

और क्या चाहिए तेरे दर से हमें
दिल को छूती हुई शाइरी मिल गई

ग़म की भट्टी में ब-सद-शौक़ उतर जाऊँगा

ग़म की भट्टी में ब-सद-शौक़ उतर जाऊँगा
तप के कुंदन सा मैं इक रोज़ निखर जाऊँगा।

ज़िंदगी ढंग से मैं कर के बसर जाऊँगा
काम नेकी के ज़माने में मैं कर जाऊँगा।

मर के जाना है कहाँ मुझ को नहीं ये मालूम
रह के दुनिया में कोई काम तो कर जाऊँगा।

ग़म उठा लूँगा जो बख़्शेगा ज़माना मुझ को
तेरे दामन को तो ख़ुशियों से मैं भर जाऊँगा।

देखता जाऊँगा मुड़ मुड़ के तुम्हारी जानिब
छोड़ कर जब मैं तुम्हारा ये नगर जाऊँगा।

ख़ाक पर गिरने से मिट जाएगी हस्ती मेरी
बन के आँसू तिरे दामन पे ठहर जाऊँगा।

लाख बे-रंग हो तस्वीर जहाँ की लेकिन
रंग तस्वीर के ख़ाके में मैं भर जाऊँगा।

तू ने इक बार हक़ारत से जो देखा ऐ दोस्त
मैं ज़माने की निगाहों से उतर जाऊँगा।

मैं तो बढ़ता ही रहूँगा रह-ए-हक़ में ऐ ‘नूर’
क्यूँ समझती है ये दुनिया कि मैं डर जाऊँगा।

मसअले का हल न निकला देर तक

मसअले का हल न निकला देर तक
रात-भर जाग भी सोचा देर तक।

मुस्कुरा कर उस ने देखा देर तक
दिल हमारा आज धड़का देर तक।

आप आए हैं तो ये आया ख़याल
बाम पर क्यूँ पंछी चहका देर तक।

टूटते ही उन से उम्मीद-ए-वफ़ा
दिल हमारा फिर न धड़का देर तक।

फूल अपने रस से वंचित हो गया
फूल पर भँवरा जो बैठा देर तक।

खुल गया उस की वफ़ाओं का भरम
दे न पाया मुझ को धोका देर तक।

नाज़ से वो ज़ुल्फ़ सुलझाते रहे
छत पे मेरी चाँद चमका देर तक।

जिस जगह इंसान की इज़्ज़त न हो
उस जगह फिर क्या ठहरना देर तक।

ख़ूब रोया मैं किसी की याद में
अब की बादल ख़ूब बरसा देर तक।

चल दिया वो सब को तन्हा छोड़ कर
काश वो दुनिया में रहता देर तक।

वो छुड़ा कर अपना दामन चल दिए
रह गया मैं हाथ मलता देर तक।

ज़हर से लबरेज़ साग़र का मज़ा
प्यार में हम ने भी चक्खा देर तक।

ये ज़माना बेवफ़ा है ‘नूर’-जी
कब किसी का साथ देगा देर तक।

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