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संजीव कुमार की रचनाएँ

नव संवत्सर कामना

शान्त सौम्य सुखकर संवत्सर
नित्य नवीन काम्य औ रुचिकर
भद्र विचार शील वाहक बन
शुभ प्रकाश से भर अंतर्मन।

सर्वजगत के मंगल कारण
सबके जीवन का दुख हर
मरण जरण का गहन तमस हर
वरद हस्त तव, मस्तक पर धर।

प्रभु सबको ऐसा दे जीवन
जिसमें सबका एक रहे मन,
अनथक पदध्वनि गुंजित, हो
कंटक व्याधि रहित जीवन पथ।

यही ग्रीष्म है 

धरती पर उत्ताप भरा है
धू धू कर जल रही धरा है,
नष्टनीड़ निष्प्रभ एकाकी
वन वन भटक रहे हैं पाखी,
अग्निकुंड की अग्निशिखा सी
उष्ण तप्त बह रही हवा है।

सूख गई हैं नदियां सारीं,
छाया सहमी सी बेचारी,
कैसा आश्रय कहां सहारा
फिरता वनचर मारा मारा,
व्याकुल आकुल क्लान्त हवा
प्रखर धूप से तप कर हारी।

पिघली सड़क चिपकता पहिया
नजर खोजती शीतल छैंया,
गुरुतर भार लिये कंधो पर
पथिक भागते जलते पथ पर,
अग्निज्वाल दहके भूतल पर
याद दिलाये सुखकर शैया।

जनतांत्रिक स्वप्न 

वह आदमी
सपने में हँसता था
उसके सपने में था जनतंत्र
हँसता हुआ,
सभा में और राजपथ पर
शोर था हँसी का,
हँसी में डूबे हुए सपने में
हँसता था आदमी कि
हँसी के रुदन से भी नहीं टूटता
सपना,
खुशनसीब था वह आदमी
जो हँस सकता था जोर से
कभी न टूटने वाले सपने में।

वह आदमी
हँसता था सपने में
इसलिए कि हँसने के थे प्रस्ताव सपने में
जो उड़ते थे आसमान में,
और जिनको पकड़ने के लिए
भेजे गये थे उनसे भी हल्के विचार,
दोनो के साथ साथ उड़ने का दृश्य
उसे गुदगुदाता था, सहलाता था
उन्हें देखकर
हँसता था वह जोर से कि
मजेदार होगा विचारों और प्रस्तावों के
हल्केपन की तुलना का कथन भी,
और अगर हल्के हुए कहीं इसी तरह
आग्रह, सुझाव और परामर्श भी
तो भर जायेगा आसमान हलकी चीजों से,
छोड़नी पड़ेगी जगह
उड़ते हुए परिन्दों को,
मुफ्त में मिलेंगे पर
खुश होगी बच्ची उन्हें पाकर,
हँसेगी खिलखिलाकर,
सपने में गूंजती थी उसकी खिलखिलाहट
जिसे सुनकर
हँसता था आदमी सपने में।

सपने में हँसते हुए आदमी के सपने में
हँसी का बाहुल्य था,
हँसी में डूबा था उसका देश,
हँसी में दोहरे हुए जाते थे उसके लोग,
भरी हुई थी हँसी अंतरालों में हास्य के,
मसखरे थे चारों ओर हँसते हुये
जोकरों की टोपियों से झरते थे
हँसते हुये विचार,
हँसी के इस माहौल में डूबा हुआ
खुशमिजाज सा वह आदमी,
सपने में हँसता था बेतरह जोर से,
चौंक कर जाग नहीं पड़ता था।

सभ्य काल

सभ्यता के दिन हैं
शानदार हैं
कारे हैं कंप्यूटर हैं वायुयान हैं,
विचार हैं कथन हैं प्लान हैं,
सब है सब में मिला हुआ
सब है सब में घुला हुआ,
मजे के दिन हैं
जानदार हैं।

शान में बह रही है सभ्यता
शोखी और जोश में उतराती हुई,
जो गरीब हैं वो बस कुछ दिन के लिए
गरीब हैं,
जो रईस हैं वे रईस हैं सदा के लिए,
विश्वास हैं शाश्वत
कलेजे में धंसे हुए,
बेदखल करते हुए कलेजे के टुकड़ों को,
उठान पर है सभ्यता
तैयार और उत्साहित
पथ नियत है स्वर्गारोहण के लिए,
सहमत हैं
सभ्यता के पाण्डव
अनुगामी कुत्तों को भी साथ ले जाने के लिए,
हाजिर होंगे कुत्ते
इंद्र के दरबार में सुनने के लिए
संगीत शास्त्रबद्ध तथा ब्रह्मा का उपदेश।

सभ्यता के उत्थान से ही
रचा जायेगा स्वर्ग,
सभ्यता के दरबारियों की
जीवन्तता और ठिठोली में,
सभ्यता के छिटक गये अवशेषों के लिए
खोज ली जायेगी कोई जगह
कहीं न कहीं किसी पृष्ठ पर,
कोई करुण प्रहसन भी होगा,
रचित साहित्य के विवरणों में,
कुछ फीकापन भी होगा
प्रसंग परिवर्तन के लिए,
दुख और अभाव के कथोपकथन भी
किये जायेंगे सम्मिलित,
इस तरह बचा रखेगी वह
अपने व्यक्तित्व की पूर्णता को
जो उसके शानदार दिनों की तरह ही
रहने वाला है गंभीर और उदार,
आज के दिनों में सभ्यता बस
इस मत का सम्मान चाहती है।

तोंद के लिए प्रार्थना

तोंद का आग्रह भी
तोंद की तरह ही दुर्निवार है,
अगर शुरू हुआ बढ़ना एक बार
तो नहीं रुकने के अपने आग्रह को
बनाये रखेगी तोंद,
विघ्नहर्ता लंबोदर की हठधर्मिता सी
बढ़ती रहेगी पूजे जाने के आग्रह को लिये हुये।

बढ़ती हुई तोंद
सुख शान्ति और वैभव का
जीवन्त प्रतीक है, अनुपम रूप भी,
तोंद ही है सर्जना विकास की,
उसके गोलाकार रूप का
अग्रवर्ती उभार
मां धारित्री के सर्वमंगलकारी रूप की
छटा है अभिराम,
ब्रह्माण्ड में निहित अण्ड का
अधोभाग भी है तोंद,
पूर्ण से पूर्ण को घटा लेने के बाद भी
बच रहनेवाली पूर्णता है तोंद,
मंत्रसिद्ध और कामनाबिद्ध।

सबके लिए हो तोंद
तोंद की प्रतिस्पर्धा से बढ़े
अतुलनीय राष्ट्र हमारा
तोंदमय हो सर्वजन कल्याण धारा,
देश के जन जुडें जिससे
वह गोंद हो तोंद,
मनों में पिघल रही वसा
संचित हो जिसमें
वह कोष हो तोंद,
अनंतर सब प्रार्थनाओं के
बच रही जो वह कामना हो तोंद,
दिव्य, भव्य, दोलनकारी तोंदो से हो सज्जित,
अरुण यह मधुमय, तुंदिल देश हमारा।

यात्री 

मेज पर रखा कप
चमक रहा है, उसमें
कामना तृप्ति की हो रही है
प्रतिबिम्बित,
अभी अभी का तो है वह
चुम्बित।

मृदु ओंष्ठयुग्म ने
छुआ था उसे कोमलता से,
तृप्ति की हल्की सांस ने
सहलाया था उसे सहजता से,
आग्रह की उष्णता से तप्त
उसकी देह चमक रही थी
आतिथ्य के गर्व से,
जो अभी भी संचित है उसमें
वैसा का वैसा ही
मेज पर रखा है कप।

मेजों पर ही रखे जाते हैं कप
भरी जाती है उनमें
गर्मजोशी आतिथ्य की
भाप सत्कार की,
सोहते हैं मेजो पर ही कप,
मेजों से ही उठाकर ले जाये जाते हैं
कान पकड़कर,
धोने पोंछने और सुखाये जाने के लिए
चमकदार कप,
सभी चमकदार चीजों की तरह
उत्थान पतन के पथ का
अनवरत यात्री है कप।

कामना

आगे बढ़कर सबसे मिलकर
दीप जलायें जन के पथ पर,
छायामय हो मार्ग हमारा
हम हों विश्वबोध के रथ पर।

नवयुग का आनंद उठायें
दीन हीन को भूल न जायें
हटे अंधेरा जग से मन से
सब मिलकर ही दीप जलायें।

विश्वग्राम में सुख की धारा
नित्य नई चीजों में संचित,
मानव का धन केवल मानव
सच से कभी न हों हम वंचित।

दीप उठाये लघुतम कर हो
भावी का पथ आलोकित हो
लिए आत्मा करुणा का धन
सबके हित पर ही मोहित हो।

मैदान में जीवन

लंबे चौड़े मैदानों में
पकड़ने के लिए
मछलियाँ नहीं हैं,
गहराईयाँ भी नहीं हैं
खो जाने के लिए,
घुमावदार सड़कें भी नहीं
मन मोहने के लिए।

लंबे चौड़े मैदानों में
दुख हैं लंबे चौड़े
थोड़े से ही हैं सुख छिछोरे,
झपट लिये गये मजे हैं
कपट भरी दौड़ धूप है
हरे भरे बाजार हैं
सूखी सड़कों के किनारे किनारे।

लंबे चौड़े मैदानों में
उगती भोर है खुली खुली,
बिखरती दोपहर धुली धुली
डूबती शाम है गमगीन सी
लुढ़कती रात है नमकीन सी।

प्रश्न

पता नहीं
सच जानने के लिए
कितना परिश्रम उचित है,
यह भी पता नहीं
झूठ बोलने के लिए
कितना अपेक्षित है चातुर्य?

पता नहीं
मूर्ख शासक
धूर्त अहलकार से क्यों करता है परामर्श,
सभासद सुझाव से क्यों हो जाते हैं
अप्रसन्न,
एक जैसे लोग क्यों मिल जाते हैं
एक जैसे लोगों से,
यह भी पता नहीं
अलग अलग लोग भी क्यों दिखते हैं
एक जैसे, अलग अलग समयों पर।

पता नहीं
बुद्धिमान जिन शब्दों से
करते हैं चाटुकारिता
उनसे और क्या क्या
बनाया जा सकता था,
नट, बाजीगरों को
क्यों मान लिया जाता है नायक?
यह भी पता नहीं
जो करते हैं निर्माण देश का
उन्हें क्यों नहीं करता है याद देश
कोई क्यों नहीं अपनाता उनका भेष?

पता नहीं
उन्हीं अक्षरों से
जिनसे सच बनता है
कैसे बन जाता है झूठ,
क्यों चल जाता है खोटा सिक्का,
कहां रह जाते हैं खरे लोग,
ओछे विचारों से कैसे बन जाता है जनतंत्र
यह भी पता नहीं
दुष्ट कैसे विजयी होते हैं,
कैसे हराते हैं दुष्टों को दुष्ट,
भले लोगों में कैसे पनप जाता है
जीत जाने का भय,
हारी हुई जनता क्यों थिरकने लगती है
विजय गीत की तान पर?

अस्तव्यस्त परिदृश्य

कुछ महान व्यक्ति
कुछ अन्य महान व्यक्तियों से
अधिक महान होते हैं,
कुछ संगठन दिखते हैं उदार
कुछ सफल और चमकदार होते हैं।

जो धर्मान्ध हैं
वे अवश्य समझदार हैं लड़ते रहने के लिये
कुछ धार्मिक हैं और कुछ आस्तिक
अपने अपने ईश्वर की शक्ति लिये हुये
संघर्षरत ईश्वर से सदा
वे भी वाकई
नास्तिकों की तरह दमदार होते हैं।

शिक्षित सभ्य भद्रजन
रखे हुये हैं मौन,
सिर हिलाकर जताते हैं असहमति
मतभेद, असहमति और विरोध
की अपनी गौरवशाली परंपरा से आत्मतप्त
अपने अंतस में रखी ज्ञानशिला के कारण
स्थिर, अकंप और वजनदार होते हैं।

महानों की महानता
उदारों की उदारता की तरह सार्थक है
अग्रजन वरेण्य
एक दूसरे के लिए अपशब्द नहीं कहते
पर समर्थक और अनुयायियों को
रखते हैं खबरदार,
कुछ तो दिखते हैं ज्ञानवान भी
कुछ को मिलता है अवसर शासन करने का
उनके भाल चमकदार दिखते हैं।

सभी महापुरुषों की तरह
प्रशंसित होंगे सभी महापुरुष
सभी महापुरुषों की तरह ही
पूजे जायेंगे सभी महापुरुष,
कहानी की तरह रोचक उनका जीवन
पढ़ा जायेगा जब गढ़ा जायेगा,
उनका भी जो बढ़े निंदा के ब्याज से
और उनका भी जिन्हें
आश्रय मिला शासन का,
वे जिन्हें उछाला घृणा की मौज ने
वे भी जिन्हें हिकमतों ने सम्हाला,
रखे जायेंगे अनश्वर स्मृति में।

जिन्होंने संघर्ष किया जन के लिए
जो लड़े समय के साथ
उन्हें अवश्य छोड़ दिया जायेगा
जनता के अरण्य में
उगने और बढ़ने के लिए,
जिन्होंने थामी ध्वजा ज्ञान की
और जो चले तर्क की धार पर,
उनका भी लिया जायेगा नाम
गीत कुछ उनके लिए भी लिखे जायेंगे
भूमिका और उपसंहार को पूरा करने के लिए।

महानता की खाद पानी से पुष्ट
फसलें होंगी दानों से भरपूर,
चरागाहों में रौंदी जायेगी घास
रास्तों पर उठेगी धूल
विश्वास के जलते हुये दीपकों के नीचे
अंधेरे में रेंगते कीट बढ़ते रहेंगे,
रात का स्वागत करते हुये उठेंगे आग्रह
थपकियों से डरे हुये स्वप्न
डूब जायेंगे
साधारणता की दूर प्रसारी ध्वनि में।

बालिका बोध

रुकता बढ़ता जीवन चलता,
मैं भी चलती अपनी धुन में,
चमक रहे जुगनू पल छिन के
देख रही उनको उलझन में।

कल कोई आगे बढ़कर क्या
बता सकेगा राह सुहानी,
कोई सहचर बांह पकड़कर
सुना सकेगा कथा पुरानी।

संसृति के विस्तृत पथ पर
किसकी आहट सुनती हूँ मैं,
कितने अनुभव साथ चल रहे
कितनी यादें बुनती हूँ मैं।

माँ के लिए

वह जो
बहता है खून बनकर
सिर उठाता है विचार की तरह
धरता है पग विश्वास की दृढ़ता से
दुर्जन के मन के भय की तरह
टोकता है अनजाने पथ पर निरंतर
वही है
जिसे आश्वस्ति की बूंदो के साथ
तुम्हारी छाती से लगकर
मिलाया था तुम्हारे ही खून में।

मां
जीवन की अलक्ष्य दृष्टि
प्रकृति के उद्दाम वेग की धारा में
बहती जाती है बहती जाती है
मन लेकिन तुम्हारी गोद में बैठा हुआ
आज भी टटोलता रहता है
उष्ण वक्ष और थपकते हाथ को
कि नींद आये लेकिन
गर्म जिस्म की संवेदना खोये नहीं
तुम्हारी संतति
आज भी उसी क्षमाशील परिचय
की मोहताज है मां।

जिन हाथों में
रखा तुमने बने वे भी सम्बल
और वे भी जिन्हें जना तुमने
ऋण उतारने की मेहनत करते हुये
तुम्हारे गीत दोहराये जाते हैं
तुम्हारे दूध ने फिर एक रूप पाया है
मैं उसे सौंप रहा हूं
आश्वस्ति, कल्पना और सुख का
तुम्हारा बांटा गया प्रसाद
एक और मा के
धारोष्ण, ताजे टटके दूध के साथ।

प्रार्थना 

खोल हृदय के द्वार
बुला लें नये समय को,
मन की देहरी से अलसाकर
करें विदा अब गये समय को।

विगत क्षणों की स्मृति के संग
प्रियजन की छवि अंकित कर लें,
आनेवाली भोर सुहानी
प्रिय वाणी का दीपक रख दें।

उजियारी हो राह, भली हो चाह
जगत में सबका शुभ हो,
नये समय में मन भी बदलें
चाहें यही कि सबको सुख हो।

व्यथा 

नव पल्लव
कुछ नया कहो अब,
सोच रहा हूँ
विकसित होऊँ।

तरुण पर्ण
कितना सोचोगे!
कुछ तो बोलो,
देख रहा हूँ
जग में कितनी उथल पुथल है!

जीर्ण पत्र
जाने वाले हो
जीवन संचय की मंजूषा
खोल लुटाओ अनुभव धन को
जान चुके की यही व्यथा है
बौने हाथों में मैं
कैसे रख दूँ?
भंगुर क्षण है।
भग्न हृदय है।

प्रेम और विचारणा

धूल भरे मैदान में फैली धूप
किसी अंतहीन प्रतीक्षा का उजला रूप है,
दोपहर की खामोशी की तरंगें
पेड़ों की शाखाओं तक उठकर
रास्तों पर गिर पड़ती हैं
ठिठके हुए पदचिन्हों की
स्तब्धता का बयान
अक्षरों की आकृति ग्रहण करता है,
थके हुए मन प्रेम करना चाहते हैं
भला क्यों करना चाहते हैं प्रेम
जबकि व्याख्याएं ग्रहण कर चुकी हैं पूर्णता!

पूर्णता की तप्त धूप
सोख चुकी है मानस तरंगों की शीतलता
अक्षरों के सांचे सहेजने में असमर्थ हैं
इंगितों की अनपेक्षित आकृतियों को,
अर्थवान होता प्रेम यदि किया जाता
ऐसे समय में जब करने को नहीं था कुछ भी,
खाली थे मैदान, सूनी थी दोपहर और
जनपद व्यस्त था रोजमर्रा के कामकाज में।

धीरे धीरे ढला दिन
धीरे धीरे थमा शोर पदचापों का
धीरे धीरे आ घिरी संध्या
धीरे धीरे लौटी गर्द आसमान से
उठ गई थी जो उत्तेजक बयानों की भाप से,
उदास होता प्रेम यदि किया जाता
ऐसे समय में जब गतिशीलता का महज भ्रम
लौटा रहा है कदमों को, दिमागों में
हिसाब और आकुलता का बोझ है और
अंतहीन विस्तार भरा है उलझन और थकान से।

धूल भरे मैदानों में
जब भी किया जाता है प्रेम
जल्द चुक जाता है,
असफलता की हर कहानी को यद्यपि
ढंक लिया है
विस्मृति, सहमति और अवसाद की गर्द ने,
सहमे हुए मन कैद हैं तदपि
छिटके हुए अक्षरों के सांचों में,
पहले ही चेता चुके थे सख्त लहजों के बयान,
कठिन होता प्रेम यदि किया जाता
ऐसे समय में, जब हो रहा है
तर्क और विचारों का आदान प्रदान,
बहस जारी है?
व्यस्त है मानवता
प्रगति, विकास और ऊहापोह में।

अब जबकि तारे आसमान पर हैं और
थकी हुई लालसाएं जमीन पर
ठण्डक का कर रही हैं आगाज,
रात का साया सहला रहा है
तप्त कामनाओं को,
आपाधापी भरी अस्तव्यस्त गणनाएँ भी शांत हैं,
गहन होता प्रेम यदि किया जाता
ऐसे समय में जब ज्वार बढ़ चुका है
हद तोड़ने के लिए,
हट रही हैं बाधाएँ स्वतः,
सोने जा रही हैं शंकाएं और अविश्वास
टपकने लगी है चांदनी आकाश से।

हर कोई करना चाह रहा है प्रेम,
हर किसी के मन में भरी है प्रतीक्षा,
कल्पनाएं विचारों को परे हटाकर,
टोह ले रही हैं शोर भरे मैदानों में
पदचापों के संगीत की,
उन्हें डर है कि कहीं उनकी प्रतीक्षा ही
आगे बढ़कर टोक न दे आगंतुक पगध्वनि को,
सफल होता प्रेम यदि किया जाता
ऐसे समय में, जब मन की सतह पर
मुद्रित नहीं थे विचार, प्रेरणा और
ताजातरीन समय के अखबार।

यही हैं आप 

गर्वित देशभक्त
अनुशासित नागरिक
विश्वसनीय चर
प्रेमपूर्ण परिजन
सहृदय मित्र
सुख बांटता हुआ अस्तित्व
भार उठाती हुई आत्मा।

अपराध से असम्बद्ध
राजनीति से असंलग्न
तटस्थ बहसबाजी से
टीका टिप्पणी से परे
उदासीन घृणा और द्वेष से,
पार करते हुए
सुख दुख की छोटी बाधाओं को,
किंचित झिझक भरे हाथों से
सहलाते हुए
लोभ मोह हर्ष विषाद के
स्पंदनशील रूपाकारों को।

थोड़ा बहुत आनंद लेते हुए
हत्याओं, आगजनी, लूट,
निर्जीव वक्तव्यों और
ढीठ चेहरों का,
गर्म चाय के साथ घूंट भरते हुए
स्वाद लेते हुए सभी का,
बासी खबरों पर
रखते हुए ताजा विचार,
बड़ी समस्याओं के छोटे हल
बांटते हुए मित्रों से
कमाते और संचय करते हुए
जोड़ते और घटाते हुए
बलपूर्वक अनदेखा करते हुए
आंख में चुभने वाली
आपदाओं को, दुर्घटनाओं को।

दोहराते हुए चिर परिचित कथन
थामते हुए अपरिचित हाथ जब तब,
गुजरते समय के
गुजरने का अफसोस करते हुए
वहन करते हुए,
बच्चों के बढ़ने का सुख
स्वयं के बीतने का दुख
पत्रों, प्रपत्रों के बढ़ते संग्रह को
सहेजते हुए,
दोहराते हुए
मीठी यादों, सुखद अनुभवों को,
रखते हुए
जीवितों के प्रति किंचित लापरवाही,
मृतकों के प्रति असीम वेदना
हिलाते डुलाते

स्वयं को विलीन करते हुए
देश काल के अंतराल भरने वाली
सर्वव्यापी सर्वग्रासी अतिचारी अग्रगामी
नागरिक सभ्यता में
यत्किंचित आत्मतोष के साथ,
यही हैं आप।

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