मैं अक्सर उनका इंतज़ार करता हूँ,
अकेला बैठा कमरे में, ख़ामोशी में,
कई लफ्ज़ मुझे छू कर गुजरते हैं मगर,
मैं उनकी गहराई नहीं नाप पाता,
तभी कहीं एक रोशनी का घर खुलता है,
कुछ साये आँखों में उतर आते हैं,
कहीं भीतर से कोई कहता है –
‘सुनो ये तब की बात है,
जब तुम मुर्दा थे, मगर सांस ले रहे थे,
महसूस कर रहे थे, क्योंकि मैं जिन्दा था….”
और फिर-
लफ़्ज़ों की कड़ियाँ जुड़ने लगती है,
एक के बाद एक, खुद ब खुद,
कुछ गहरे समाये रहस्य जैसे,
हो जाते हैं बे पर्दा,
कलम की टेढ़ी मेढ़ी लकीरों में मगर,
उन रहस्यों के मायने कहीं छूट जाते हैं,
लफ्ज़ रह जाते हैं, अर्थ जैसे खो जाते हैं….

संवेदनाओं का बाँध

टूटने को है संवेदनाओं का बाँध,
इसे मत रोको, ढह जाने दो,

संचित सभी व्यथाओं को,
चिंताओं और कुंठाओं को,
टूटी सभी आशाओं को,
पीड़ा के प्रवाहों को,
उन्मुक्त हो अब बह जाने दो,

निरंतर उठते विचारों को,
सपनों और विकारों को,
अभिलाषाओं के मनुहारों को,
इच्छाओं के प्रहारों को,
प्रत्यक्ष हो सब, कह जाने दो ,

मन की हर अभिव्यक्ति को
शब्दों मे ढल जाने दो,
कोरे हैं ये रूप इन्हें,
कोरे ही रह जाने दो।

एक छत के नीचे

उनके शहर में फ़िर सुबह हुई,
शहर के मुर्गे की बांक –
अलार्म घड़ी का,
साहब को आखिर उठा कर ही माना,
थके मांदे थे कल रात के,
फ़िर भी उठे, जैसे किसी
जुर्म का भार हो सर पर,
नल की टूटी खोली और,
वाश बेसन में ही धो डाला –
रात का चेहरा
मेम साहब भी उठी,
और खिड़की के परदे हटा कर,
बाहर झाँकने लगी,
सामने वाली बिल्डिंग के पीछे से कहीं,
उजाला फूट रहा था,
सड़क पर चहल-पहल लग गयी थी,
गाड़ियों के शोर में भी सुनाई आ रहा था,
हल्का हल्का कलरव चिडियों का,
नौकर चाय ले आया था,
और साथ में अखबार भी,
साहब ने अखबार उठाकर,
पलटना शुरू किया,
बिसनेस न्यूज़ पर आकर रुके,
शेयर्स के भाव….
औद्योगिक क्रांति से बहुत खुश थे साहब,
तभी उनको ख्याल आया मीटिंग का,
घड़ी देखी तो बौखला गए,
सिगरेट जला ली और
फटाफट तैयार होने लगे.
वहीं मेम साब बड़ी तसल्ली से
अपने दिन की योजनाओं पर
नज़र डाल रही थी –
शोप्पिंग…..डेंटिस्ट से मुलाकात…
सोशल वर्क के लिए
जमुना स्लम बस्ती में जाना…
और फ़िर शाम को
रेखा के घर फैंसी ड्रेस पार्टी…और डिनर…
लक्की रेखा…इकलौता बेटा अमेरिका जो जा रहा है…

दादा जी ने रोहन को,
ख़ुद तैयार किया था, स्कूल के लिए,
सारे रस्ते रोहन बोलता रहा,
दादाजी हँसते रहे,
स्कूल के गेट पर,
दादाजी ने रोहन को,
उसका बैग थमा दिया,
दादाजी को एक प्यारी सी “किस्सी” देकर,
रोहन अपने क्लास की तरफ़ दौड़ गया,
दादाजी उसे देखते रहे,
अपनी आँखों से ओझिल होने तक,
और फ़िर…..

लौट आए अपने खाली मकान में,

बेटा-बहु कह गए थे फ़िर –
“आज रात देर से लौटेंगे”

शब्द

शब्द,
ठीक थे जब तक खूंटों से बंधे थे,
शब्द,
कल शाम खुल गए खूंटों से,
आज़ाद हो गए,
हवाओं में उड़ने लगे गुब्बारों की तरह,
शब्द,
कोरे थे, मासूम थे सब,
तिरस्कृत हुए, अपमानित हुए,
कुछ इतने शर्मसार हुए,
कि दुबक गए
दुनिया के किसी कोने में जाकर,
कुछ डूब मरे दरिया में,
शब्द कुछ जो भाषाओं की
सीमाएं लांग गए थे,
उनका धरम जांचा गया,
आश्चर्य, सब ने एक स्वर में उन्हें करार किया-
दोषी… दोषी
हुक्म दिया, सजा-ऐ-मौत का,
सरे बाज़ार किया गया उनका सर,
धड़ से जुदा,
ताकि दुबारा कभी कोई शब्द,
न करे ये जुर्रत,

शब्द कुछ,
कल शाम निकले थे
बाज़ार में घूमने,
रात शहर में हुए
बम धमाकों में मारे गए,
दोस्ती,
प्यार,
विश्वास,
इंसानियत….
लम्बी है बहुत, मृतकों की सूची,

शब्द,
जो एक अमर कविता बन जाना चाहते थे,
कुछ दिन और जिन्दा रह जाते –
अगर जो खूंटों से बंधे रहते…

अवकाश

सुब्हा की गलियों में
अँधेरा है बहुत,
अभी आँखों को मूंदे रहो,
घडी का अलार्म जगाये अगर,
रख उसके होंठों पे हाथ
चुप करा दो,
काला सूरज,
आसमान पर लटक तो गया होगा,
बाहर शोर सुनता हूँ मैं,
इंसानों का, मशीनों का,
आज खिड़की के परदे मत हटाओ ,
आज पड़े रहने दो, दरवाज़े पर ही,
बासी ख़बरों से सने अखबार को,
किसे चाहिए ये सुब्हा, ये सूरज,
फिर वही धूप, वही साये,
वही भीड़, वही चेहरे,
वही सफर, वही मंजिल,
वही इश्तेहारों से भरा ये शहर,
वही अंधी दौड़ लगाती,
फिर भी थमी- ठहरी सी,
रोजमर्र्रा की ये जिन्दगी ।

नही, आज नही,
आज इसी कमरे में
पड़े रहने दो मुझे,
अपनी ही बाँहों में,
“हम” अतीत की गलियों में घूमेंगे,
गुजरे बीते मौसमों का सुराग ढूँढेंगे,
कुछ रूठे रूठे,
उजड़े बिछड़े ,
सपनों को भी बुलवा लेंगें,
मुझे यकीन है,
कुछ तो जिंदा होंगे जरूर ।

खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से,
जिंदा कर लूंगा फिर, जिन्दगी को मैं ॥

सुलगता दर्द – कश्मी

उन खामोश वादियों में,
किसी शांत सी झील पर,
जब लुढ़क कर गिरता है,
कोई पत्थर, किसी पहाडी से,
तो उसे लगता है-
कहीं बम फटा…
वह दोनों कानों पर हाथ रखकर,
चीखता है,
और सहम कर सिमट जाता है,
अपने अंधेरों में,
अंधेरे – जो पाले हैं उसने,
अपनी आखों में,
अंधेरे – जो बहते हैं उसकी रगों में,
उसकी बंद ऑंखें,
कभी खुलती नही रोशनी में,
एक बार देखी थी, उजाले में मैंने,
वो ऑंखें,
“ऐ के ४७” की गोलियों के सुराख थे उसमें,
धुवाँ सा जल रहा था,
उस पथरीली जमीं पर,
कोई लहू का कतरा न था,
मगर कल रात जब वो,
कुरेद रहा था मिटटी,
मसल रहा था फूल पत्तियों को,
बेदिली से तब,
हाँ तब… उसकी उन आँखों से बहा था,
खौलते लावे सा –
गर्म “सुलगता दर्द…”

ह्रदय

छुई मुई है ह्रदय,
छू लो तो मुरझा जाता है,
किरणों के पंख तो लग नही सकते,
फिर क्यों ये छूना चाहता है,
– सूरज की जलती आग को।

रेशमी धागों में देखो,
बंधता ही जाता है पल पल,
रिश्तों के दलदल में देखो,
धंसता ही जाता है पल पल,
एक ख़्वाब जो टूटा तो क्या,
फिर नया ख़्याल पल पल,
मुझ से ही कुछ रूठा रूठा,
मेरा ही दर्पण वो पल पल।

और बारिशों के मौसमों मे कभी,
शाखों से होकर गुजरना,
शबनमी अहसास लेकर,
पथरीली सड़कों पे चलना,
भागती दुनिया से हटकर,
अपनी ही राहें पकड़ना,
शौक़ इसके हैं निराले,
कब तलक कोई संभाले,
क्या करूं, मुश्किल है लेकिन,
खुद से ही बचकर गुजरना।

वोट बैंक – आम आदमी

लफ्ज़ रूखे, स्वर अधूरे उसके,
सहमी-सी है आवाज़ भी,

सिक्कों की झनकारें सुनता है
सूना है दिल का साज़ भी,

तन्हाईयों की भीड़ में गुम
दुनिया के मेलों में,
ज़िन्दगी का बोझ लादे
कभी बसों में, कभी रेलों में,

पिसता है वो हालात की चक्कियों में,
रहता है वो शहरों की बस्तियों में,
घुटे तंग कमरों में आँखें खोलता,
महँगाई के बाज़ारों में खुद को तोलता,
थोड़ा सा जीता, थोड़ा सा मरता
थोड़ा सा रोता, थोड़ा सा हँसता,
रोज़ यूँ ही चलता- आम आदमी।

मौन-दर्शी हर बात का,
धूप का, बरसात का,
आ जाता बहकाओं में,
खो जाता अफ़वाहों में,
मिलावटी हवाओं में,
सड़कों में, फुटपाथों में,

मिल जाता है अक्सर कतारों में,
राशन की दुकानों में,
दिख जाता है अक्सर बाज़ारों में
रास्तों में, चौराहों में,
अपनी बारी का इंतज़ार करता
दफ़्तरों-अस्पतालों के बरामदों में,

क्यों है आख़िर
अपनी ही सत्ता से कटा छटा,
क्यों है यूं
अपने ही वतन में अजनबी-
आम आदमी।

रात

चाँद को सीने से लगाए,
सितारों की सेज पर,
टिमटिमा रही है रात.

सूरज की थकी हुई,
आँखों से बहती,
सपनों की शराब,
हसीन तस्सवुरों के महल,
चुभती हुई उलझनों से परे,
नींद के झरोखों से झांक कर,
मुस्कुरा रही है रात.

नींद जहाँ नही सोयी है,
उन आँखों में भी है,
बोलती तन्हाईयों की महक,
दर्द की खामोश कराह,
जुगनुओं की कौंधती चमक,
थमी थमी हलचल को,
फ़िर सुला रही है रात.

और भी हैं कुछ,
आवारा से ख़्याल,
हवाओं मे घुले घुले से,
जिनके पैरों मे चक्कर है,
उनको होंठों से चूमकर,
नगमा सा बन कर कुछ,
गुनगुना रही है रात.

आज़ादी

उस आधी रात को,
एक जगी हुई कॉम ने,
उतार फेंकी गुलामी की घंटियाँ,
अपने गले से,
और काट डाली,
जंजीरें अपने पैरों से,
मिला सालों की तपस्या का
वरदान – आजादी ।
उम्मीद थी कि जल्दी ही उतर जायेगी,
रात की चादर,
और जागेगी एक नयी सुबह-
सपनो की, उम्मीदों की, उजालों की।
मगर रात…..
रात कटी नही अबतक,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,

नज़र आते हैं इन अंधेरों में भी मगर,
किसानो के बच्चे जो भूखे सो गए,
गरीब बेघर कितने
वहाँ पडे फुटपाथों पे, चीथड़ों में,
सुनायी पड़ती है इन सन्नाटों में भी,
आहें उन नौजवानों की,
जिनके कन्धों पर भार हैं,
मगर “बेकार”हैं,
चीखें उन औरतों की,
जो घरों में हैं, घरों के बाहर हैं,
वासना भरी नज़रों का
झेलती रोज बलात्कार हैं,
चकलों में, चौराहों में शोर है,
ज़ोर है- ज़ोर का राज है,
हैवान सडकों पर उतर आये,
सिम्हासनों पर विराज गए,
अवाम सो गयी,
नपुंसक हो गयी कॉम,
हिंदुओं ने कहीँ तोड़ डाली मस्जिदें,
तो मुसलमानो ने जला डाले मंदिर कहीँ,

किसी बेबस माँ ने
बेच दी अपनी कोख कहीँ तो,
किसी दरिन्दे बाप ने नोच डाला,
अपने ही लक्ते-जिगर को,
उफ़ ये अँधेरा कितना कारी है
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,

इन अंधेरों की धुंध में भी कहीँ मगर,
चमक जाते हैं कुछ जुगनू राहत बन कर,
और कुछ मुट्टी भर सितारे,
चमक रहे हैं यूं तो,
मेरे भी मुल्क के आसमान पर,
मगर फिर भी,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,

जुगनू नही, तारे नही,
आफताब चाहिए,
जिसकी रौशनी में चमक उठे,
जर्रा जर्रा, चप्पा चप्पा,
जिसकी पुकार से नींद टूटे,
सोयी रूहों की,
पंछियों को गीत मिले,
बच्चों को खुला आसमान दिखे,
उस सुबह के आने तक,
उस सूरज के उगने तक,
आओ जलाए रखे,
उम्मीदों के दीये,
जुगनू बने, सितारे बने,
हम सब
एक रौशनी बन कर,
मुकाबला करें,
इस अँधेरी रात का,
नींद से जागो, अभी जंग जारी है,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है…

मुखौटा

पहचान लेता है चेहरे में छुपा चेहरा – मुखौटा,
मुश्तैद है, तपाक से बदल देता है चेहरा – मुखौटा।

कहकहों में छुपा लेता है, अश्कों का समुन्दर,
होशियार है, ढांप देता है सच का चेहरा – मुखौटा।

बड़े-छोटे लोगों से, मिलने के आदाब जुदा होते हैं,
समझता है खूब, वक्त-ओ-हालात का चेहरा – मुखौटा।

देखता है क्यों हैरान होकर, आइना मुझे रोज,
ढूँढ़ता है, मुखौटों के शहर में एक चेहरा – मुखौटा।

रूठे रूठे से हबीब

रूठे रूठे से हबीब, मिले हैं कुछ,
हमने पूछा तो कहा – गिले हैं कुछ

ख्वाब बोये जो हमने, क्या बुरा किया,
चंद मुरझा गए तो क्या, खिले हैं कुछ

जो कच्चे हैं, कड़वे हैं तो हैरत क्या,
पके फलों में भी तो पिल-पिले हैं कुछ

कहाँ रहा अब ये प्रेम का ताजमहल,
ईट ईट में अहम् के, किले हैं कुछ

बस इतना समझ लीजिये तो बहुत है,
अपनी हदों से सब ही, हिले हैं कुछ

चुप रहिये, न बोलिए, कि छिल जायेंगे.
मुश्किलों से जख्म जो, सिले हैं कुछ

आग जंगल की (तस्लीमा नसरीन और एम् एफ हुसैन के नाम) 

पहरे हैं ज़ुबानों पर, लफ्ज़ नज़रबंद हैं,
आज़ाद बयानों पर लगे, फतवों के पैबंद हैं,

फाड़ देते हैं सफ्हे, जो नागावर गुजरे,
तहरीर के नुमाइंदे ऐसे, मौजूद यहाँ चंद हैं

तस्वीरे-कमाल कितने रानाईये-ख्याल,
मेहर है इनकी जो आज, मंज़ुषों में बंद हैं,

हथकडियाँ दो चाहे फांसी पर चढ्वा दो,
जुल्म के हर वार पर, जोरे-कलम बुलंद हैं,

पीकर के जहर भी, सूली पर मरकर भी,
जिंदा है सच यानी, झूठ के भाले कुंद हैं,

बेशक जोरो-जबर से, दबा दो मेरी चीख तुम,
आग है जंगल की, ये लौ जो अभी मंद हैं.

लम्स तुम्हारा

उस एक लम्हें में,
जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा,
दुनिया संवर जाती है
मेरे आस पास,
धूप छूकर गुजरती है किनारों से,
और जिस्म भर जाता है,
एक सुरीला उजास,
बादल सर पर छाँव बन कर आता है,
और नदी धो जाती है,
पैरों का गर्द सारा,
हवा उडा ले जाती है,
पैरहन और कर जाती है मुझे बेपर्दा,

खरे सोने सा, जैसा गया था रचा,
उस एक लम्हें में,
जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा,
कितना कुछ बदल जाता है,
मेरे आस पास….

भूल चूक

दूर से जो नज़र आता है आब शायद,
डर है निकले न कहीं ये भी सराब शायद…

आँख खुल जाए तो औंधे मुंह पड़े मिलते हैं,
आदतन नींद में चलते हैं मेरे ख्वाब शायद.

कल मैंने दर बदर देखा था उसके बच्चों को,
पी गयी क्या एक घर और ये शराब शायद.

कोई अल्लाह तो कोई राम रट कर कटा है,
चौक पर रुसवा हुई फिर कोई किताब शायद.

लौट कर आया है वो शख्स जो दर से क़ज़ा के,
काम उसके आ गया होगा कोई सवाब शायद

बुतों में फूंक कर वो जाँ, लिखता होगा उन पर,
भूल चूक लेनी देनी मुआफ है हिसाब शायद…

आवारगी का रक्स

उन नन्हीं आँखों में,
देखो तो, देखो न,
शायद खुदा का अक्स है,
या आवारगी का रक्स है…
उन हसीं चेहरों को,
देखो तो, देखो न,
सारे जहाँ का हुस्न है,
या जिंदगी का जश्न है…

बेपरवाह, बेगरज,
उडती तितलियों जैसी,
हर परवाज़ आसमां को,
छूती सी उनकी,
पथरीले रास्तों पे,
लेकर कांच के सपने,
आँधियों से, पल पल,
लड़ती लौ, जिंदगी उनकी,

हँसी ठहाकों में, छुपी गीतों में,
दबी आहें भी है,
कौन देखे उन्हें,
जगी रातों में, घुटी बातों में,
रुंधी सांसें भी है,
कौन समझे उन्हें…

उन सूनी आँखों में,
झांको तो, झांको न,
कुछ अनकही सी बातें हैं,
सहमी सहमी सी रातें हैं,
उन नंगे पैरों तले,
देखो तो, देखो न,
सारे शहर का गर्द है,
मैले मैले से दर्द हैं….

  • स्वरबद्ध गीत, आवाज़ महोत्सव-३, संगीत – ऋषि एस
  • सुब्हा की ताज़गी

  • सुबह की ताज़गी हो,
    शबनम की बूँद कोई,
    फूलों की पंखुड़ी पर,
    किरणों का प्यार लेकर,
    जैसे बिखर रही हो,
    तुम ही बिखर रही हो….

    सुबह की ताज़गी हो….

    सरगम की बांसुरी हो,
    मौसम की बात कोई,
    महकी हुई फ़िज़ा में,
    गीतों की मस्त धुन पर,
    जैसे मचल रही हो,
    तुम ही मचल रही हो…..

    सरगम की बांसुरी हो…

    चंदा की चांदनी हो,
    चांदी की नाव कोई,
    बेखुद-सी इस हवा में,
    जैसे लहर-लहर पे,
    इतरा के चल रही हो.
    तुम ही तो चल रही हो….

    चंदा की चाँदनी हो….

    • स्वरबद्ध गीत, अल्बम – पहला सुर, संगीत – ऋषि एस
    • मुझे दर्द दे

    • रूह की बेज़ारियों को,
      रंग तू ज़र्द दे,
      मैं समझूँ पीर परायी,
      मेरे मौला, मेरे मौला,
      मुझे दर्द दे, मुझे दर्द दे…

      मुझे गम की धूप में दे जला,
      काँटों पे सुला, शोलों पे चला,
      बेशक तू ले मेरा इन्तहा, मेरे खुदा,
      पर दे मुझे तू हौंसला, मेरे खुदा,
      मुझे और निखार दे ज़रा,
      मुझे और संवार दे जरा,
      मेरी तड़प, मेरे जनून को,
      हिम्मतों का अर्श दे,
      मैं मांगू खैरे-खुदाई
      मेरे मौला, मेरे मौला,
      मुझे दर्द दे, मुझे दर्द दे……

      मुझे मिले तेरी सोहबतें,
      मुझ पर रहें तेरी रहमतें,
      दरवेश मैं तेरे इश्क का,
      शैदाई मैं तेरे हुस्न का,
      तेरा करम, तेरी मेहर,
      माँगूं यही शामो-सहर,
      मेरी ख्वाहिशें, बेदार कर
      मुझे गर्दिशें, बे-गर्द दे,
      मैं देखूँ नूर-ऐ-इलाही,
      मेरे मौला, मेरे मौला
      मुझे दर्द दे, मुझे दर्द दे….

      • स्वरबद्ध गीत, अल्बम – पहला सुर, संगीत – पेरुब

        सम्मोहन

      • सपनों के पंखों से जुड़ने लगता है मन,
        रंग भरे अम्बर में उड़ने लगता है मन,
        ऐसा है तेरे इन नैनों का सम्मोहन,
        ऐसा है तेरे इन नैनों का सम्मोहन.

        दो झिलमिलाते नगीने हैं,
        या रोशनी का झुरमुट है ,
        है धूप के दो झरोखे ये ,
        या जुगनुओं का जमघट है .

        चूम ले एक नज़र तो
        जगमगाता है मन,
        रातों को बन के सितारा
        टिमटिमाता है मन,

        ऐसा है तेरे इन नैनों का सम्मोहन,
        ऐसा है तेरे इन नैनों का सम्मोहन

        झीलें हैं दो मधुशालों की,
        डूबी सी जिनमे दिल की बस्ती है,
        नीले भंवर हैं दो गहरे से,
        लहरों में भीनी-भीनी मस्ती है ,

        होंठों से जो चख ले तो,
        बहने लगता है मन,
        दो घूंट में ही नशे में,
        लड़खडाता है मन,

        ऐसा है तेरे इन नैनों का सम्मोहन,
        ऐसा है तेरे इन नैनों का सम्मोहन…

        • स्वरबद्ध गीत, अल्बम – पहला सुर, संगीत- जे एम् सोरेन
        • मैं हर कहीं

        • सरहद की चोटी से लेकर
          सागर की गोद तक,
          बिखरा हूँ जर्रा जर्रा,
          मैं हर कहीं.

          कहीं खुशबू में हूँ सावन की,
          कहीं बसंत की महकार हूँ,
          कहीं होली के रंगों में डूबा,
          कहीं ईद का त्यौहार हूँ,
          कहीं तबले के ताल की मस्ती,
          कहीं पायल की झंकार हूँ,
          कहीं गाँवों में खेतों को जोतता,
          कहीं शहरों की भरमार हूँ,
          सब धर्मों की मुझमें झलकी,
          हर मजहब का मैं प्यार हूँ,

          मैं भारत का एक बाशिंदा,
          मैं भारत की सरकार हूँ…

        • अनजान दिशाएँ

        • वक्त के पंखों की परवाज़.
          कुछ अनजान दिशाओं की खोज,
          एक सोच, एक सीख,
          एक मशवरा, एक बोध,
          किताबों की लिखावट, जेहन में उंडेलकर,
          किसी तजुर्बे के पत्थर से,
          जो टकराओ तो थाम लेना,
          किसी मजबूत इरादे की बेल,
          कोई खतरा नहीं,
          ‘जीवन’ है ये खेल.
          किसी कश्ती पर बैठकर,
          दूर किनारों को ताकना.
          सब की तरह, या कूद जाना,
          पानी में, तैरना सहारों के बिना,
          छोडो ये घबराना,
          लहरों के क्रोध से,
          हवाओं के वेग से,
          डूबना तो एक दिन किनारों को भी है,
          फिर क्यों, नाखुदा को खुदा कहें,
          क्यों सहारों को ढूंढते रहें,
          आओ वक्त के पंखों को परवाज़ दें,
          एक नयी उड़ान दें,
          अनजान दिशाओं की और….
        • सपना और सच

        • आँखों से ओझिल,
          हो गया वो,
          किसी सपने की तरह,
          जो पलक खुलते ही,
          किसी फूल की पंखुड़ी में छुपे,
          भंवरे की मानिंद,
          उड़ जाता है कहीं दूर,
          फिर कब लौटेगा, पता नहीं,
          शायद कभी नहीं….

          चाँद को अभी सुलाया ही था,
          आँचल की चादर ओढाई थी,
          पलकों का सिराना लगाया था,
          जाने कब रात ढल गयी,
          पलकें भी खुल गयी,
          फूलों पर शबनम देखी है,
          पलकें भी भीगी सी लगती है….

          तभी कहीं दूर से, एक किरण आई,
          पलकों पर बिखर गयी,
          लगा किसी ने कहा हो –
          उजाला हो गया,
          अब तो सच को पहचानो