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सत्यप्रकाश बेकरार की रचनाएँ

भूख

क्या यह त्रासदी नहीं है-
कि मेरी भाषा के विशाल शब्दकोश में
भूख का कोई पर्यायवाची नहीं है!
और मेरा यह कहना
कि मैं भूखा हूं
इतना भी संप्रेषित नहीं कर पाता
जितना मेरा यह कहना
कि तुम्हारे पांव के नीचे सांप है
या तुम्हारे मकान में आग लग गई है!

निश्चित रूप से
मैं उस भूख की बात नहीं करता
जो तुम्हें नाश्ते और दोपहर के भोजन
के बीच लगती है।
मैं तो उस भूख की बात करता हूं
जो रोज आधी ही मिट पाती है
और दूसरे दिन की भूख से जुड़ जाती है,
चिपेक देती है हमारे चेहरे पर
कोई याचक-मुद्रा
तोड़ देती है हमारा मेरुदंड
उम्र की रफ्तार बढ़ा देती है।
छोड़ देती है बस इतना पौरुष बाकी
कि हम पत्नी को डांट सकें
या पैदा कर सकें कोई एक और अपने जैसा
वरना हर बात में नामर्द बना देती है
सीमाविहीन सभ्य!

यह अर्ध-भूखापन
मौत और जिन्दगी के बीच
कहीं जीने की दारुण पीड़ा
एक सुलगता एहसास
बोलकर कहने से
बन जाता है रुदन मात्र
और रोना नहीं है समस्या का समाधान,
आप कुछ समझे श्रीमान!
किसलिए है बोलने की आजादी का विधान?

भूा और भोजन के बीच आते हैं
भाग्य, भाषा भगवान और भाषण
भ्रांतियां, भांड और भद्रपुरुष
सबके सब एक झुनझुना
हमारे हाथों में थमा देते हैं
ताकि हम झनकाते रहें
और बना देते हैं एक सेफ्टी वाल्व
ताकि भाप संपीड़ित न हो पाए
एक शक्ति न बनने पाए
इंजिन की तरह
वरना हम नई सभ्यता में चले जाएंगे,
और इन लोगों के काम नहीं आएंगे।

फिर भूखे को भिखारी बनाकर
भीख देने वाली
इस गौरवशाली सभ्यता का क्या होगा,
भूखे सैंदर्य को
नंगे नाच और अनिच्छित सहवास के बाद
भोजन देने वाली इस महान संस्कृति का क्या होगा!
उनकी भी समस्याएं हैं
बात को एकतरफा मत सोचो,
भीख कम है तो सूर्य-नमस्कार करो।
नमन की संस्कृति स्वीकार करो!
वो चाहते हैं कहीं कुछ न उठे-
कोई सिर, कोई हाथ, कोई नारा।

मकड़जाल

बहुत चालाक और मक्कार था
वो आदिम विद्वान
जिसने मकड़ी को अपना आदर्श चुना,
और हमारी बुद्धि के इर्द-गिर्द
एक जाल बुना।
हमें दे दिया
एक काल्पनिक महाशक्ति का
गलत पता,
और हम तलाशते, तलाशते, तलाशते रहे
होते रहे लापता।

पहेली 

आधा घंटा शौकिया चरखा चलाकर
प्राप्त हो सकती हैं कारें, मंत्रीपद और कोठियां!
और सारा दिन यही चरखा चलाकर
गांव का बुन्दू जुलाहा
उम्र भर भूखा रहा है,
चरखे-चरखे में बताओ भेद क्या है?

महानगर 

ईंट और सीमेंट के इस जंगल में
हैरानो-परेशान सा मैं घूम रहा हूँ
कोई जुबां खोले, कोई आवाज तो दे
मैं सदियों से यहां इंसां का पता पूछ रहा हूँ

कोई छल हुआ है 

देश की पावन धरा से
धूल मिट्टी में उठाकर
जोर से भींचो!!
जोर से भींचो कि अनुभव कर सको उस खून को
जो इस धरा में मिल गया था
और आजादी का पौधा
किस तरह सिंचित हुआ था।

पेड़ आजादी का देखो किस तरह विकसित हुआ है
ऐसा लगता है कि कोई छल हुआ है
एक ही डाली में सारे फल लगे हैं
क्या यही बोया था हमने जो उगा है!

क्या शहीदों के लहू में
कुछ मिलावट थी?
या कि माटी वट ही गलत है?
मुट्ठियां ऊपर उठा लो,
इन सवालों का जरा उत्तर निकालो।

किसलिए बाजार में बिकता हूँ मैं 

तू मुझे संतोष का
उपदेश देता ही रहा,
औ’ लुटेरा लूट से
अपना घर भरता रहा।
अहिंसा, शांति का उपदेश बस मेरे लिए था?
और समरथ इंसानियत को कत्ल ही करता रहा।
इस अनोखे जाम को तोडूंगा मैं
सत्य कड़वा है, मगर बोलूंगा मैं।
अपनी उगाई फसल से वंचित हूं मैं
अपनी बनाई चीज से वंचित हूं मैं
किसलिए बाजार में बिकता हूं मैं
भेद गहरा है मगर खोलूंगा मैं
सत्य कड़वा है मगर बोलूंगा मैं।
द्रौपदी का चीर खींचा तो महाभारत हुआ
मेरी बहनें बिक रही हैं कृष्ण को अब क्या हुआ,
जो भी यहां अवतार है, बस बड़ों के साथ हैं
अवतार अपना तो सिर्फ अपना हाथ है!
काट दो मेरी जुवां, फिर हाथ से बोलूंगा मैं,
सत्य कड़वा है, मगर बोलूंगा मैं।

रात

रात अंधेरी काली कितनी हो
रात रात है टल जाएगी,
सूरज सूरज है निकलेगा ही
भोर सुहानी छा जाएगी।

पर यह भी एक सुनहरा धोखा है।
मैं अभी-अभी सूरज से मिलकर आया हूं,
जो वहां पहाड़ी के पीछे
कीचड़ में धंसा पड़ा है
निर्बल और बीमार पड़ा है।
हम जैसे कुछ लोग
आगे आएं
रस्से लाएं
नीचे जाएं
सब मिल-जुलकर सूरज को खींचें,
सुबह उगाई जाती है
हर बात बनाई जाती है।

नया सत्य 

जब कभी नया सत्य उगा है
समय के श्रीमान लोगों को
जरा कड़वा लगा है
क्योंकि बकरे के लिए जो ठीक है
वह कसाई को नहीं हितकर लगा है।
इसलिए हर सत्य-वक्ता को
यहां मारा गया है
पत्थरों से कुचलकर
भूख और बंदूक से
या सलीबों पर उसे टांगा गया है

हत्याओं की असफलता ने
बना दिया है उन्हें होशियार
हत्यारे जान गए हैं
कि सत्य-वक्ता को मारना बीमार को मारना है
और यह बीमारी
सत्य-चिंतन की महामारी इस तरह नहीं मरती
उन्होंने कर लिया ईजाद हत्या का
अहिंसक, सभ्य और परिष्कृत तरीका
हमारे दिल और दिमाग के बीच रख दिया है
डुप्लीकेट सत्य का स्वचालित कैप्सूल
जो हमारी भावनाओं का
विचारानुवाद करता है
उन्हीं के अनुकूल।

ये हमीं कहते हैं न
कि हमारे अभाव हमारे भाग्य का फल है
कि हमारी निराशाओं के गीत मधुर होते हैं
दुम हिलाते हुए स्वामिभक्त कुत्ते की तरह जीने को
शराफत हमीं कहते हैं न!
जब कोई बलात्कारी
दबोच लेता है हमारी
किसी सावित्री को
हमारे सामने,
तब हमारे भीतर यह कौन बोलता है
कि हमें इस बात से क्या लेना-देना
कि यह तो सब चलता है!

अपने बचे-खुचे पुरुषत्व की पीड़ा से चीख!
चीख इस साजिश के खिलाफ
तोड़ दे कविता और संगीत की सभी सीमाएं
अपनी पूरी आवाज से चीख,
चीखना कोई आतंक नहीं है,
और कायरता कोई अनुशासन नहीं है मेरे दोस्त।
निकाल, बाहर निकाल-
अपने भीतर से शत्रु के इस प्रवक्ता को
बाहर निकाल!

आज सब ऊँचाइयाँ मगरूर हैं

मैं न कोई गीत गाना चाहता हूं
और न कोई शब्द का जादू जगाना चाहता हूं
किसलिए वर्णन करूं सौन्दर्य का
सुविधाभोगी कामियों के समने
मैं कवि हूं, नारी-विक्रेता नहीं हूं।
सत्यम् पुराना जर्जरित है
सुन्दरम् पर चिपकी हुई है
मूल्य-सूचक पट्टियां
गंदगी के इस घिनौने ढेर में
अब क्या शिवम् है!

जहर पीकर मैं तुम्हें अमृत नहीं दूंगा
तुम मुझे बंदी बनाकर
मंदिरों में कैद कर दोगे।
मैं न बनना चाहता हूं देवता
और न पैगम्बर कहाना चाहता हूं
मैं तो बस इंसान रहना चाहता हूं
और जीना चाहता हूं।

आज सब ऊंचाइयां मगरूर है
एक झूठे से नशे में चूर हैं
रोशनी को रोक लेती हैं वहीं ऊपर कहीं
यहां नीचे तो बड़ा ही घुप्प अंधेरा है
सभी मजबूर हैं!
क्या इन नीचाइयों को ज्ञात है
ऊंचाइयों की नींव का पत्थर हैं ये-आधार है,
और जब कभी आधार में हलचल हुई है
ऊंचाइयां डरने लगी हैं
टूटकर गिरने लगी हैं
मैं आज ऐसा गीत गाना चाहता हूं
जिसको सुनकर के जरा आधार झूमे,
तड़प जाए
और जरा करवट बदल ले।

गुफा के मुहाने पर एक कविता

यह जो सामने है
गहरी-सी अंधेरी-सी
विकराल गुफा
निश्चित ही यह मंजिल तो नहीं थी मेरी
और पीछे भी
धुंधला गए हैं गुजरी राहों के निशां
क्या बताएं कि कहां से रास्ता भूले।

संभव है इसका कोई बहिर्गमन द्वार भी हो
संभव है कदम कम पड़ जाएं,

और यह भी संभव है
एक ही मुंह हो इसका।
लौट जाना भी कहां संभव है,
कहां संभव है रुके रहना!
नियति जीवन ही है
आगे ही आगे चलते रहना,
लो, प्रवेशता हूं इसके भीतर,
फिलहाल विदा।

श्री खरबप्रसाद जी

श्री खरबप्रसाद जी
धर्मावतार महाज्ञानी,
दाम ऊंचा बोलते हैं
यूं जरा कम तोलते हैं,
दो-चार मंदिरां के निर्माता हैं
कई धार्मिक संस्थाओं के जन्मदाता हैं।
कहते हैं
बैर और क्रोध में क्या रक्खा है,
प्रेम और मेल-मिलाप बहुत अच्छा है।
इसीलिए तो भद्र पुरुष कहते हैं
फूट बुरी चीज है, मिलावट का काम सच्चा है।
चाय में लकड़ी का चूरा
चावलों में श्वेत पत्थर
मिर्च में गेरू
गधे की लीद धनिए में
घी में कुछ चर्बी का चक्कर
जहर में अमृत मिलाते हैं
और अमृत में जहर
ताकि हम सब कह सकें यह सप्रमाण,
शुद्ध तो मूरख मना परमात्मा की जात है!

यूं कठोर हैं
पर मैंने देखा है
जब कोई मजबूर निर्धन बेसहारा
युवा-सुंदर मेनका याचनारत हो
तो पिघल जाते हैं
दे के ही दम लेते हैं
उसे दान!
विधिवत विवाह से वंचित हैं
ब्रह्मचारी
धर्म का मर्म उनकी ही जुबानी है
जो यहां धनवान है, गुणवान है
जो भी समरथ है उसे क्या दोष है,
पाप तो कमजोर पर आरोप है!
किसी मंदिर, किसी गुरुद्वारे में जाकर देख लो
धर्मशाला, गुऊशाला, पाठशाला देख लो
किसी मरघट पे, किसी पनघट पे जाके देख लो
जिसने-जिसने धन दिया है
नाम उसका देख लो,
और अधिक वाले का ऊपर
कम वाले का नीचे देख लो-
अर्थ का यह अर्थमैटिक देख लो,
श्रद्धा का यह बैरोमीटर देख लो।

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