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सय्यद काशिफ़ रज़ा की रचनाएँ

इस क़दर ग़ौर से देखा है सरापा उस का

इस क़दर ग़ौर से देखा है सरापा उस का
याद आता ही नहीं अब मुझे चेहरा उस का

उस पे बस ऐसे ही घबराई हुई फिरती थी
आँख से हुस्न सिमटता ही नहीं था उस का

सतह-ए-एहसास पे ठहरा नहीं सकते जिस को
एक इक ख़त में तवाज़ुन है कुछ ऐसा उस का

अपने हाथों से कमी मुझे पे रक्खी उस ने
मेरी तो लौह-ए-मुक़द्दर भी है लिक्खा उस का

मैं ने साहिल पे बिछा दी है सफ़-ए-मातम-ए-हिज्र
लहर कोई तो मिटा देगी फ़साना उस का

वस्ल और हिज्र के मा-बैन खड़ा हूँ ‘काशिफ़’
तय न हो पाया तअल्लुक़ कभी मेरा उस का

उस पर निगाह फिरती रही और दूर दूर

उस पर निगाह फिरती रही और दूर दूर
ख़्वाबों का एक बाग़ निगाहों में खिल गया

हैराँ बहुत हुआ मिरी आँखों में झाँक कर
और फिर वो इन में फैलते मंज़र में मिल गया

कोई तो शय थी जो मिरे अंदर बदल गई
या ज़ख़्म खुल गया कोई या कोई सिल गया

ख़्वाबों से इक ख़ुमार में मल्बूस वो बदन
इक रंग-ए-नशा था जो मिरे ख़ूँ में घुल गया

गुज़री थी उस के पास से इक मौज-ए-बे-नियाज़
अंदर तलक दरख़्त मिरे दिल का हिल गया

तिरी जुदाई में ये दिल बहुत दुखी तो नहीं 

तिरी जुदाई में ये दिल बहुत दुखी तो नहीं
कि उस के वास्ते ये रूत कोई नहीं तो नहीं

तुम अपने अपने लगे थे वगरना आँखों में
इक और ख़्वाब सजाने की ताब थी तो नहीं

तुम्हारे लब पे खिला है तो वादा है तस्लीम
वगरना अपने भरोसे की तुम रही तो नहीं

तिरे बग़ैर न जीने का अहद पूरा किया
तिरे बग़ैर जो काटी वो ज़िंदगी तो नहीं

कभी कभी मुझे लगता है वो नहीं है वो
मगर कभी कभी लगता है वो वही तो नहीं

तू मुझ को चाहता है इस मुग़ालते में रहूँ

तू मुझ को चाहता है इस मुग़ालते में रहूँ
कभी करम भी किया कर कि आसरे में रहूँ

जो मेरी सोच को गहराइयों की शिद्दत दे
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म किसी ऐसे सोनेहे में रहूँ

जो मेरी रूह की बरफ़ाब रूत को हिद्दत दे
तमाम उम्र तिरे कुर्ब दाएरे में रहूँ

जो तेरे क़ुर्ब के लम्हों से मिलता जुलता हो
मैं वक़्त तोड़ के एक ऐसे सिलसिले में रहूँ

वो जो मक़ाम है तेरा मिरी कहानी में
उसी मक़ाम पे मैं तेरे तजि़्करे में रहूँ

अब इस क़दर तो न हो इंतिज़ार-ए-दीद तिरा
कि मुंतज़िर तिरे ख़्वाबों का रतजगे में रहूँ

शरीफ कोई न हो जिस में तेरा मेरे सिवा
मैं तुझ से मुंसलिक इक ऐसे वाक़िए में रहूँ

बदन को वज्द तिरे बे-हिसाब-ओ-हद आए

बदन को वज्द तिरे बे-हिसाब-ओ-हद आए
मिरी रसाई में गर तेरा जज़्र-ओ-मद आए

मैं इक दफ़ा तुझे चुमूँ तो तेरे ख़्वाबों में
किसी भी मर्द का चेहरा न ता-अबद आए

मैं तेग़-ए-इश्क़ से गर तौल दूँ बदन तेरा
तिरी नज़र में न मीज़ान-ए-नेक-ओ-बद आए

जो तेरे ख़्वाब में आ जाए बर्शगाल मिरा
मिरे लिए न तिरे लब पे रद्द-ओ-क़द आए

हर एक साल मनाऊँ मैं जश्न-ए-लम्स उस का
जो दस्तरस में मिरी वो दराज़-क़द आए

बहुत सजेगी ये पोशाक-ए-हर्फ़ ऐ ‘काशिफ़’
जो शाइरी में मिरी उस के ख़ाल-ओ-ख़द आए

बहुत से दर्द थे पर ख़ुद को जोड़ कर रक्खा

बहुत से दर्द थे पर ख़ुद को जोड़ कर रक्खा
वो मैं कि आतिश ओ आहन में जिस ने सर रक्खा

मैं वो हूँ जिस ने तआकुब में अपने मौत रक्खी
और अपने सर को सदा उस की मार पर रक्खा

नशात ओ फ़त्ह मिरी दस्तरस में थे लेकिन
किताब-ए-उम्र में दुख दर्द बेश-तर रक्खा

मिले हुए थे मुझे चाहतों के दर कितने
मगर मैं वो कि हवाओं पे मुस्तक़र रक्खा

बहुत से लोग मिरे वास्ते थे दस्त-कुशा
मगर नज़र में तिरा ही दयार ओ दर रक्खा

कभी हुई ही नहीं मुझ को बे-घरी महसूस
ख़ुद अपने पाँव पे जब से है अपना घर रक्खा

गवाह हैं मिरे मिसरों के बस्त-ओ-दर ‘काशिफ़’
चुना जो हर्फ़ उसे कर के बारवर रक्खा

वो याद कर भी रहा हो तो फ़ाएदा क्या है

वो याद कर भी रहा हो तो फ़ाएदा क्या है
ये दिल उजाड़ पड़ा है इसे मिला क्या है

बहुत दिनों से ये दिल यूँ ही रो रहा है और
बता रहा ही नहीं है इसे हुआ क्या है

ज़रा सी देर उतरने दे अपनी आँखों में
ज़रा ये देखने तो दे ये रास्ता क्या है

इक और भूक थी जिस ने मुझे फ़क़ीर किया
वगरना पास तिरे हुस्न के सिवा क्या है

मैं अपने आप से कम भी हूँ और ज़्यादा भी
वो जानता भी है मुझ को तू जानता क्या है

ये दर्द-ए-ख़्वाब है इस को भी चख के देख ही लूँ
पता कहीं तो चले ख़्वाब में मज़ा क्या है

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