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राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनूदित वज्रगीतियाँ

जिमि पवन-घाते अचल जल

जिमि पवन-घाते अचल जल,
चलै तरंगित होइ ।
जिमि मूढ़ विलोम नेत्र को, एकै द्वीप दो भासै,
घरे बहुत दीपक जलै, तऊ जिमि नयनहीन को अंधार रहै,
नदी नाना तौ समुद्र है… सूर्य एक प्रकाशै,
जिमि जलधर समुद्र से पानी ले भूमि भरै।

पंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनूदित

पशु जिसमें दुःख न करै, पंडित उसमें दुःख भरै

पशु जिसमें दुःख न करै, पंडित उसमें दुःख भरै,
…स्थिरचित्त से परमार्थ करै, (तो)
विषयविषयी अमृत हो जाए,
…वर्णभेद से बंधन न जीर्ण कहै,
मूढ़ रतन परीक्षा न जानै।

पंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनूदित

विकसित आनन्द का विषय पाइ 

विकसित आनन्द का विषय पाइ,
दर्शन का चित्त विकसै,
विषय में (आ) सक्ति भी भेद नहीं,
आनन्द सुख का अंकुर (है),
(परन्तु) भवपंक में आसक्ति शूकर जिमि।

पंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनूदित

जो परखै, सर्प डंसै, सोई मरै

जो परखै, सर्प डंसै, सोई मरै,
बुद्धि से भिन्न यह सब धर्म स्वतः शून्य,
अदृश्य स्वभाव, महामुद्रा का वास,
सहज एकरस से अन्य नहीं (तत्त्व)
अहो डाकिनी गुह्य वचन,
सन्तों के मुखामृत से संभूत,
रवि-शशि दोनों के मध्य प्रकाश करै।

पंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनूदित

तर्जनी से लखाए अन्तरिक्ष दीखै नही गुरु से लखाया 

तर्जनी से लखाये अन्तरिक्ष दीखै नहीं गुरु से लखाया
राजप्रसाद प‍इठ राजकन्या से क्रीड़े
खटाई के हटने से पूर्व जिमि
खटाई देखै, सर्वविषय तथता में जानै
गणचक्र के ललाट में ही कुन्दरू (भग : नभ)
आकाश- अवकाश में महासुख देखि
अहो डाकिनी गुह्य वचन ।

पंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनूदित

सरहपा के पद

दुलि दुहि पिटा धरण न जाउ

दुलि दुहि पिटा धरण न जाउ
रूखेर तेन्तलि कुम्भीरे खाउ
आँगन घरपण सुन भी बिआती
कानेट चोरी निल अधराती
अपना मासें हरिणा वैरी
खणाहँ न छाँड़इ भुसुक अहेरी

ऊँचा-ऊँचा पाबत, तहिं वसै सबरी वाला

ऊँचा-ऊँचा पाबत, तहिं वसै सबरी वाला।
मोरंगी पिच्छि पहिरहि सबरी गीवत गुजरी माला।
ऊमत सबरो पागल सबरो मा कर गुली-गुहाड़ा।
तोहारि णिअ धरिणी सहज सुन्दरी। ध्रु ।
णाणा तरुवर मौलिल रे, गअणत लागेलि डाली।
एकली सबरी ए वन हिण्ड‍इ, कर्ण कुण्डल वज्रधारी।
तिउ धाउ खाट पडिला सबरो, महासुह सेज्जि छाइली।
सबरो भुजंग ण‍इरामणि दारी, पेक्ख (त) राति पोहाइली।
हिए ताबोला माहासुहे कापुर खाई।
सून निरामणि कण्ठे ल‍इया महासुहे राति पोहाई।
गुरु वाक पुंछ‍आ बिन्धणि‍अ मणे वाणें।
एके शर-सन्धाने गरुआ रोषे,
गिरिवर सिहर सन्धि पैसन्टे सबरो लोडिब कइसे।

अब पढ़िए इसका हिन्दी अनुवाद
पंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनूदित

ऊँचे-ऊँचे पर्वत पर शबर बालिका बैठी है,
जिसके सिर पर मोरपंख और ग्रीवा में गुंजा की माला है।
उसका प्रिय शबर प्रेम में उन्मत्त पाग़ल है
“ओ शबर ! तू हल्ला-गुल्ला मत कर
तेरी अपनी (निज) गृहिणी सहज सुन्दर है”
उस पर्वत पर नाना प्रकार के तरुवर फूले हुए हैं,
जिनकी डालियाँ गगन में लगी हुई हैं
कान में कुंडल वज्र धारे शबरी अकेली इस वन में घूम रही है
दौड़कर खाट पर महासुख सेज पर शबर पड़ गया।
शबर भुजंग (विट) और नैरात्म (शून्यता) वैश्वा (दारी) को देखते रात बीत गई।
हृदय तांबूल का महासुख रूपी कपूर (के साथ) खा,
शून्य नैरात्मा को कंठे लगा महासुख में रात बीत गई।
गुरु वचन पूछकर निज मन रूपी बाण से बेध,
एक ही शर सन्धान से बेध-बेध परम निर्वाण को।

ब्राह्मण न जानते भेद 

ब्राह्मण न जानते भेद। यों ही पढ़े ये चारो वेद।
मट्टी पानी कुश लेइ पढ़ंत। घरही बइठी अग्नि होमंत।
काज बिना ही हुतवह होमें। आँख जलावें कड़घए धूएँ।
एकदंडी त्रिदंडी भगवा भेसे। ज्ञानी होके हंस उपदेशे।
मिथ्येहि जग बहा भूलैं। धर्म अधर्म न जाना तुल्यैं।
शैव साधु लपेटे राखी। ढोते जटा भार ये माथी।
घर में बैठे दीवा बालैं। कोने बैठे घंटा चालैं।
आँख लगाये आसन बाँधे। कानहिं खुसखुसाय जन मूढ़े।
रंडी मुंडी अन्यहु भेसे। दीख पड़त दक्षिना उदेसे।
दीर्घनखी यति मलिने भेसे। नंगे होइ उपाड़े केशे।
क्षपणक ज्ञान विडंबित भेसे। आतम बाहर मोक्ष उदेसे।

ध्यान-रहित क्या कीजै ध्यानै

ध्यान-रहित क्या कीजै ध्यानै। जो अ-वाच्य ताहि क्यों बक्खानै।
भव-समुद्रे सकल जग बहेउ। निज स्वभाव न केहूहि गहेउ।
मंत्र न तंत्र न ध्येय न धारण। सर्ब इ रे मूर्ख विभ्रम-कारण।
अ-समल चित्त न ध्याने खरडहु। सुख रहते ना अपने झगड़हु।
नाद न बिन्दु न रवि न शशिमंडल। चित्तराज स्वभावे मुक्त।
ऋजु रे ऋजु छाडि ना लेहु रे वंक। नियरे बोधि न जाहु रे लंक।
हाथे रे कंकण ना लेहु दर्पण। अपने आप बूझहु निज मन।
पार-वार सोई गाजै। दुर्जन-संगे डूबे जाये।
बायें दाहिने जो खाल-बेखाला। सरह भनै बप्पा ऋजु बाट भइला।

गुरु के वचन अमियरस

गुरु के वचन अमियरस, धाइ न पीयेउ जेहि।
बहु-शास्त्रार्थ-मरुस्थले, तृषितै मरिबो तेहि।
चित्त अचित्तहु परिहरहु, तिमि रहहू जिमि बाल।
गुरुवचने दृढ़ भक्ति करु, होइ है सहज उलास।

खाते पीते सुरत रमंते

खाते पीते सुरत रमंते। आलिकुल बहुलहु चक्र फिरंते।
एवं सिद्धि जाइ परलोकहिं। माथे पाद देइ भवलोकहिं।
जहँ मन पवन न संचरै, रवि शशि नाहिं प्रवेश।
तहँ मूढ़! चित्त विश्राम करु, सरह कहेउ उपदेश।
आदि न अंत न मध्य तहँ, ना भव ना निर्वाण।
एहु सो परम महासुख, ना पर ना अप्पान।

एहिं सों सरस्वती प्रयाग 

एहिं सों सरस्वती प्रयाग, एहिं सो गंगासागर।
वाराणसी, प्रयाग, एहिं सो चंद्र-दिवाकर।
क्षेत्र पीठ उपपीठ एहिं, मैं भ्रमेऊँ समिस्थउ।
देह सदृश तीर्थ, मैं सुनेउँ न देदेउँ।
सर पुरइणि दल कमल, गंध केसर वर नालें।
छाड़हु द्वैत न करहु से, ना लागह मढ़ आले।
कामंत शांत क्षय जाय, अत्र पूजहु कुल हीनहु।
ब्रह्मा-विष्णु त्रिलोचन, जहँ जाय विलीनहु।
यदि नहिं विषयहि लीलियइ, तो बद्धत्व न केहि।
सेतुरहित नव अंकुरहि, तरुसंपत्ति न जेहि।
जहँ तहँ जैसेउ तैसेउ, येन तेन भा बुद्ध।
स्वसंकल्पे नाशिअउ, जगत् स्वभावहि शुद्ध।
सहज कल्प परे द्वैत ठिउ, सहज लेहु रे शुद्ध।
काय पग पाणि पीस लेउ, राजहंस जिमि दुष्ट।

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