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सिराजुद्दीन ज़फर की रचनाएँ

उठो ज़माने के आशोब का इज़ाला करें

उठो ज़माने के आशोब का इज़ाला करें
ब-नाम-ए-गुल-बदनाँ रूख़ हुए प्याला करें

ब-याद-ए-दीदा-ए-मख़्मूर पर प्याला करें
उठो कि ज़हर का फिर ज़हर से इज़ाला करें

वो रिंद है न उठाएँ बहार का एहसाँ
वरूद हम तिरी ख़ल्वत में बे-हवाला करें

कहाँ के दैर ओ हरम आओ एक सज्दा-ए-शौक
बपा-ए-होश-ए-रूबायान-ए-बसत-साला करें

बरस पड़े जो गुलिस्ताँ में उस नज़र से शराब
बहक बहक के हम आगे सुबू-ए-लाला करें

स़ुबू उठा कि गदायान-ए-कू-ए-मय-ख़ाना
तिरे हवाले मह ओ महर का क़बाला करें

हदीस-ए-ज़ोहद हो या वारदात-ए-ज़हरा-मिसाल
किसी के नाम को हम ज़ेब-ए-हर-मक़ाला करें

दिखा सहीफ़ा-ए-रूख़ इस तरह कि अहल-ए-बहार
वरक़ वरक़ ब-ख़जालत बयाज़-ए-लाला करें

उठो जला के मय-ए-सुर्ख़ से चराग़-ए-अबद
नशात-ए-सोहबत-ए-शब को हज़ार-साला करें

अदा वो नीची निगाहों की है कि जैसे ‘जफ़र’
तलाश-ए-कुंज-ए-ग़ज़ालान-ए-ख़ुर्द-साला करें

बग़ैर साग़र ओ यार-ए-जवाँ नहीं गुज़रे

बग़ैर साग़र ओ यार-ए-जवाँ नहीं गुज़रे
हमारी उम्र के दिन राएगाँ नहीं गुज़रे

हुजूम-ए-गुल में रहे हम हज़ार दस्त दराज़
सबा-नफ़स थे किसी पर गिराँ नहीं गुज़रे

नुमूद उन की भी दौर-ए-सुबू में थी कल रात
अभी जो दौर-ए-तह-ए-आसमाँ नहीं गुज़रे

नुकूश-ए-पा से हमारे उगे हैं लाला ओ गुल
रह-ए-बहार से हम बे-निशाँ नहीं गुज़रे

ग़लत है हम-नफ़सो उन का ज़िंदगी में शुमार
जो दिन ब-ख़िदमत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं गुज़रे

‘ज़फ़र’ का मशरब-ए-रिंदी है इक जहाँ से अलग
मिरी निगाह से ऐसे जवाँ नहीं गुज़रे

शौक़ रातों को है दर पे कि तपाँ हो जाऊँ

शौक़ रातों को है दर पे कि तपाँ हो जाऊँ
रक़्स-ए-वहशत में उठूँ और धुआँ हो जाऊँ

साथ अगर बाद-ए-सहर दे तो पस-ए-महमिल-ए-यार
इक भटकती हुई आवाज़-ए-फ़ुग़ाँ हो जाऊँ

अब ये एहसास का आलम है कि शायद किसी रात
नफ़स-ए-सर्द से भी शोला-ब-जाँ हो जाऊँ

ला सुराही कि करूँ वहम ओ गुमाँ ग़र्क-ए-शराब
इस पहले कि मैं ख़ुद वहम ओ गुमाँ हो जाऊँ

वो तमाशा हो हज़ारों मिरे आईने में
एक आईने से मुश्किल है अयाँ हो जाऊँ

शौक़ में ज़ब्त है मलहूज़ मगर क्या मालूम
किसी घड़ी बे-ख़बर-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ हो जाऊँ

ऐसा अंदाज़-ए-ग़ज़ल हो कि ज़माने में ‘ज़फ़र’
दूर आइंदा की क़द्रों का निशाँ हो जाऊँ

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