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सी.बी. भारती की रचनाएँ

सियासत

परम्परागत-कलुषित
निहित स्वार्थवश
निर्मित मकड़जाल
तुम्हारी शक्ति और
धर्म का अवलम्ब से बढ़ता रहा
अन्धविश्वासों का आश्रय ले
उसकी शक्ति पली-पुसी बढ़ी
शोषण का एक नायाब तरीक़ा चलता रहा
सदियों-सदियों तक

पलती रही सुख-सुविधाओं में
पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ–
क्योकि वंचित कर दिया था तुमने
करोड़ों-करोड़ दलितों को
काले आखर से—
जो है विकास का मूलाधार

तुम्हारे ये अभिजात्य हथकंडे
तुम्हारी वे बाज़ीगरी
निश्चित ही सराहनीय है
अनुकरणीय है—
मीठे ज़हर-सा लुभावना है
क्रूरता-भरा तुम्हारा कुत्सित—
इतिहास
गन्दी मानसिकताओं से उसाँसते
तुम्हारे एहसास स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने चाहिए
तुम्हारे ग्रंथों में

वैसे भी तो
तुम्हीं ने दिये हैं भारत को
जयचन्द
तुमने ही तो खड़े किये हैं
द्रोणाचार्य—
और अर्जुन जैसे धनुर्धर
तुम्हारी ही—
सुनियोजित व्यवस्था के षड्यन्त्र के तहत
कटते रहे हैं हज़ारों-हज़ार अँगूठे
एकनिष्ठ दक्ष एकलव्य के
पन्ना धाय के बेटे क़त्ल होते रहे हैं।

चुनौती

तुमने चुरा लिये
हमारे विकास के रास्ते
शिक्षा पर लगा दिये प्रतिबन्ध
आखर पर आज रख दी है तुमने
हमारी भागीदारी के लिए
योग्यता की शर्त

पर कब तक फेंकोगे तुम
अपना यह मकड़जाल हम पर?
घबराओ नहीं
समय आ रहा है
जब हम भी बढ़ेंगे तुमसे
दौड़ने की शर्त
जीतेंगे बाज़ी
तोड़ेंगे तुम्हारा दर्प
सुनो परिवर्तन की सुगबुगाहट
बदलती हवा का रुख़
पहचानो पहचानो पहचानो!

सिसकता आत्मसम्मान

(1)
स्वतन्त्रता के अधूरे एहसास से
धूमिल आत्मसम्मान के व्यथित क्षणों में
ठहर-ठहर कर
स्मृतियों के दंश
घावों को हरा कर देते हैं
याद आती है
पगडंडियों पर से भी
न गुज़रने देने की रोक-टोक
टीचर व सहपाठियों की कुटिल-दृष्टि
उनके बिहँसते खिजाते अट्टहास-
ठेस पहुँचाते घृणित असमान व्यवहार
पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ वंशजों के बेगार
ढंग से कपड़े न पहन पाने की मजबूरी
अन्धकार में डूबे घरों में
टिमटिमाती ढिबरी की लौ
रोटियों के लिए मशक्कत व
करूण-क्रन्दन की चीत्कार भरी यादें
भूखे-नंगे बचपन की!

(2)
हो सकता है
आज़ादी तुम्हें अपरिचित-सी लगे
क्योंकि-
इन एहसासों की अनुभूति के अवसर
तुम्हें मिले ही नहीं
आज़ादी का मतलब
इज़्ज़त की ज़िन्दगी— पेट भर भोजन
जीवनयापन के साधन— शिक्षा के अवसर
ढके तन— निखरे बदन
परन्तु ग़ुलामी?
ग़ुलामी तो तुम्हें ख़ूब याद होगी
ग़ुलामी तो
तुम्हारे नाम की ही पर्याय है न!
तुमने जी है ग़ुलामी
कीड़े-मकोड़ों से बदतर ज़िन्दगी
छीजती इज़्ज़त
बिखरते सम्मान व
लुटती बहन-बेटियों की आबरू
तुमने भोगी है! भोगी है!!

महामानव ई.बी. रामास्वामी नायकर

सम्मान—
जिसकी ललक लिये सदियों से
देश का शोषित समाज—
जूझता रहा—
जीवन भर घृणा व उपेक्षाओं से
और
उनके आत्मसम्मान
के अहंकार की अग्नि में—
स्वाहा होता रहा उनका आत्मसम्मान

करता रहा वह—
दूसरों की सेवा
मजबूरीवश
झिड़कियों व गालियों के बीच
दूसरों की जूठन पर—
भरता रहा उसका पेट

ऐसे में उसने
एक उद्बोधन दिया
आत्मसम्मान का
जो मात्र शब्द नहीं— आन्दोलन बन गया।
महाबलीपुरम की धरती से निकल
पूरे देश में फ़ैल गया
मिली नयी परिभाषा
हुए नतमस्तक करोड़ों सिर
महामानव नायकर के पथ में।

रूढ़ियाँ

रूढ़ियों के अन्धकार
सतरंगी सपने बन
विश्वास की सीढ़ियों पर
पग धरते
घर करते गये हमारे अन्तस में धीरे-धीरे
आस्थाओं के प्रतिमान मान
अन्धविश्वास की इन भटकनों को
भोर की उजास जान
हम भरते रहे डग—
शोषण की अन्तहीन खाइयों में

दोहरे मानदंडों के
सख़्त हो चुके इन दरख़्तों को
हमारे ज्ञान के झकोरों ने
झकझोरा है, हिलाया-डुलाया है
इन बीज-वृक्षों की पनपती बेल को
अन्तस की रौशनी में
जितना भी बन पड़ा हमने धक्का लगाया है
षड्यन्त्रों के कँटीले-ज़हरीले ये झाड़-झंखाड़
प्रवेश करते रहे हमारी स्मृतियों में
सदियों तक
कुन्द करते रहे हमारी कल्पनाओं को
इन्होंने हमारी संवेदनाओं को
भोथरा बनाया है!

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