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सुनील श्रीवास्तव की रचनाएँ

कविता का समय

’लिखने से कुछ नहीं होगा
कविता लिखने से तो बिल्कुल नहीं कुछ’
— यह बात लौटती ट्रेन में मुझसे
एक बूढ़े बड़े बाबू ने उसी दौरान कही थी
जब आए दिन कवियों को मारा जा रहा था

बस, कविता लिखने के कारण
कुछ को देशनिकाला दिया जा रहा था
कुछ इच्छा-मृत्यु का वरण कर रहे थे
और हर शाम टीवी पर
देशभक्त पार्टी के प्रवक्ता का ख़ून खौलता था
देशद्रोही कविताएँ पढ़कर

अगले दिन उस अनुभवी बड़े बाबू ने कहा —
’अब के कवियों में नहीं है दम
निष्प्रभ, निस्तेज हो गई है इनकी क़लम
छन्द-रस-अलंकार से कोसों दूर
आज की कविता,बस, प्रलाप है हुज़ूर’

जबकि कवियों का डिमाण्ड लगातार बढ़ रही थी
साबुन तेल बेचने वाली कम्पनियों से लेकर
धर्म-अध्यात्म बेचने वाले ट्रस्ट
और सबसे ज्यादा सियासती पार्टियाँ
धड़ाधड़ भर्ती कर रही थीं कवियों को

अपने उत्पादों के पक्ष में कसीदे रचवा रही थीं
कसीदे तैर रहे थे वायुमण्डल में
कवि मालामाल हो रहे थे

चन्द रोज़ बाद जब मिले बड़े बाबू
उसी लौटती ट्रेन में
तो पूरे आश्वस्त दिखे कविता के प्रति
पिछली शाम उन्होंने टीवी पर
सपरिवार एक कवि-सम्मेलन देखा था
कहने लगे —
’खूब मज़ा आया
कॉमेडी शो से भी ज़्यादा
बड़ा दिमाग होता है कवियों के पास’

मित्रो, यह सब सुनकर
निष्कर्ष निकाल सकते हैं आप
कि बड़े बाबुओं को समझ नहीं कविता की
पर मैं कहूँगा
कि सरकारी बाबू जब बयान दे रहे कविता पर
तब यह सही वक़्त है
कविता लिखने का

ख़ुदक़ुशी

एक नीलगाय ने आज
ख़ुदक़ुशी कर ली
कूदकर सामने
जनता एक्सप्रेस के
कमबख़्त ऐसे मरी
कि खड़ी हो गई सरपट भागती गाड़ी

गाड़ी दो घण्टे से खड़ी है बियाबान जंगल में
दूर दस किलोमीटर है स्टेशन
पीछे गाड़ियों की कतार
चमचमाती ‘राजधानी’ भी खड़ी है बेबस
एक अन्धेरे स्टेशन पर
कुढ़ रहे यात्री
धड़ाधड़ लगा रहे फोन प्रियजनों को
दे रहे सूचना देर से पहुँचने की

चहलकदमी कर रहे ट्रैक के किनारे
मोबाइल की रौशनी में
जा-जा कर सूचना ले आते ड्राइवर-गार्ड से
कुछ बैठे-बैठे अन्दाज़ा लगाते
कोई कहता इंजन में फंस गया लोथड़ा
निकलता ही नहीं
कोई कहता पाइप फट गया वैक्यूम का
सब बेचैन

बैठे पकड़कर माथा
साली को यहीं मरना था !

पिछली गाड़ियों के यात्री
तो होंगे परेशान ज़्यादा
उन्हें तो पता ही नहीं
क्यों रुक गई अचानक
शुभयात्रा उनकी

कुछ तो खलबली मची होगी
विभाग में भी
कुछ तो परेशान हुए होंगे
बाबू रेलवे के

डिब्बे में चुपचाप बैठे अख़बार उलटता
पढता आत्महत्या की खबरें
सोचता हूँ मैं –
मरो तो इसी नीलगाय की तरह
दो घण्टे के लिए ही सही
ठप्प कर दो देश का यातायात
बकने दो ग़ाली कामकाजू यात्रियों को
(वे बेचारे तो चल नहीं सकते पैदल
दस किलोमीटर भी)

कुछ तो खलल डालो
व्यवस्था की सुख-निद्रा में
इस तरह मत करो ख़ुदक़ुशी
कि बस, अख़बार में छपकर रह जाओ ।

इतना सा है सामान

हम,
जो शब्दों के सहारे
बदलने चले थे दुनिया,
कहाँ जानते थे
कि हमारी कविता के पूरा होते-होते
वे बदल देंगे
दुनिया की भाषा

तुम,
इत्र के व्यापारी,
क्या जानते थे
कि तुम्हारे नगर पहुँचने से पहले
लुप्त हो जाएगी
नागरिकों की घ्राण-शक्ति

बुझा दो
किसी काम की नहीं
पुरखों से मिली आग यह
इसे रोपना था जिन जवान धड़कती छातियों में
वहाँ पिछली बरसात का पानी जमा है
बजबजाता
हम चूक गए साथी

अपनी धीमी रफ़्तार से चूके हम
माशूक तो, बस, उस पार खड़ा था
बाँहें फैलाए
और हम कुचले गए
सड़क पार करते वक़्त

हम जंगलों, नदियों, पहाड़ों को लांघ कर आए थे
शेरों, साँढ़ों, साँपों को हरा कर आए थे
और जब मरे ट्रक से दबकर
गणमान्यों ने कहा — भुच्चड़ थे,
नहीं जानते सड़क पार करना

अब तो, बस, कुछ शब्द बचे हैं
अपनी भाषा तलाशते
एक ख़ुशबू है
अपनी पहचान ढूँढ़ती
राख में बची कुछ चिंगारियाँ हैं
बस इतना-सा है सामान
हमारे होने की गवाही देता ।

ज़रूरी काम

पानी तो ठीक वक़्त पर आया था नल में
साढ़े तीन बजे
बीस मिनट के लिए
उसे धोने थे दोपहर के जूठे बरतन
दो-चार कपड़े बच्चों के
और फिर दो बड़ी-बड़ी बाल्टियों को भरकर
रख देना था
सुबह चार बजे तक के लिए

अभी किसका फोन?
चौंकी वह देख भाई का नम्बर
अरे, उसे तो जाना था घर आज
बितानी थी एक रात और आधा दिन
पुश्तैनी घर में
फिर लौट जाना था महानगर
पत्नी-बच्चों के पास

अभी कल ही तो हुई थी बात
“क्या हुआ” — पूछा फ़ोन उठाते ही
“कुछ नहीं, इसी तरह
बिजी हो क्या” — भाई बोला
“हाँ, थोड़ी हूँ
बात करेंगे शाम को”
पर पूछ ही लिया फोन रखते-रखते —

“कैसा लग रहा घर में”
“महक रहा घर सारा” — उत्तर मिला
“बरसात का मौसम है न
बन्द पड़ा घर महकेगा ही”
— लगा उसे फ़ोन रखते वक़्त

बरतन धोते हुए उसे याद आया
यादें भी तो महक रही होंगी घर में
हाते में घुसते ही पहले
उसे गेंदे के फूल महके होंगे
पके अमरूद महके होंगे
हालाँकि होंगी वहाँ सिर्फ़ घासें ही
बड़ी-बड़ी घासें

कमरे में आकर वह
देर तक देखता रहा होगा
माँ की तस्वीर
माँ की महक भी तो होगी घर में
ओसारे से गुज़रते हुए
उसे चूहानी महकी होगी
मोटी लाल सिंकीं मकुनियाँ महकी होंगी

छत पर वह ज़रूर गया होगा
उसे नौ अदृश्य चौखट्टे महके होंगे
छिती तिती महकी होगा
शाम को लालटेन जलाकर
पढ़ना – पढ़ाना महका होगा

बिस्तर पर लेटते हुए
एक ज़िद महकी होगी
ईया के पास सोने की
लड़ाई भी महकी होगी
अन्तहीन कहानियाँ महकी होंगी
तुतले गीत महके होंगे
नसीहतें महकी होंगी
दोनो तरफ़ देखकर सड़क पार करने की
घर जल्दी लौटने की
हिदायतें महकी होंगी

और फिर बेचैन हो गई
यह सोचकर वह
कहीं शाम तक बन्द न हो जाए
भाई को महकना यह सब
उसे भी तो निपटाने हैं ज़रूरी काम ।

चूक

बस, यहीं चूक जाता हूँ

रोज़ एक छुरी
रखकर ऑफ़िस बैग में
निकलता हूँ घर से
दफ़्तर के आलीशान कमरे में
कुर्सी पर बैठा अजगर
लपलपाता है जीभ
खोलता है मुँह
मुझे निगलने को जब
तो छुरी क्या
भूल जाता हूँ अपना आदमी होना भी
खरगोश-सा बन्द कर लेता हूँ आँखें
निगले जाने को प्रस्तुत

बस, यहीं चूक जाता हूँ

नैहर गई पत्नी
शिद्दत से करती है इन्तज़ार
शाम होने का
आता हूँ घर तो आता उसका कॉल
पूछती हाल-चाल

कई-कई बातें बतियाती
आखिर में करती है निहोरा –
‘देखना चान्द को आज
कितना सुन्दर लग रहा

और मैं,
मैं खोलता हूँ डायरी
लिखता हूँ आज का ख़र्च
फिर उसे आमदनी से घटाता हूँ
बैलेंस निकालता हूँ
और शून्य से बढ़ती उसकी निकटता
को देख शून्य हो जाता हूँ

बस, यहीं चूक जाता हूँ

बचपन का दोस्त पगलाकर
कर लेता है ख़ुदकुशी
फ़ोन पर आती है ख़बर
आते नहीं आंसू मगर

और भी कुछ ख़बरें
पगलाए हुए दोस्तों की
खड़ी हैं कतार में,

बेरोज़गार भाई ने किया था कॉल
उसकी आवाज़ में भी
झाँकने लगा है
कुछ सन्देहास्पद

सोचता हूँ
सोचता जाता हूँ
आख़िर यह हल निकालता हूँ
कि स्विच-ऑफ़ कर
रख देता हूँ फ़ोन

बस, यहीं चूक जाता हूँ

तोन्द पर हाथ फेरते लल्लन बाबू
गोल्डन फ्रेम के चश्मे से पढ़ते हैं अख़बार
नक्सलियों को गरियाते हैं
चाय सुड़कते हम
हाँ में हाँ मिलाते हैं

छाती में लेकर कैंसर की गाँठें
पोछा लगाती निधिया की माई
माँगती है महीने का एडवांस
छह सौ रुपये में क्या
भर जाएगा पेट

हो जाएगी दवाई
पूछ नहीं पाता हूँ

बस, यहीं चूक जाता हूँ

लेकिन बात यह भी है
मैं चूकता नहीं, दोस्त, कभी
चूक जाने का अभिनय करता हूँ
ताकि तुम पहचान न सको मुझे
कर न सको सबसे अलग

यह रोज़ जो थोड़ा-थोड़ा ज़हर
देते हो तुम मुझे
उसे सहेज कर रखता हूँ एक घड़े में
भर जाएगा जब यह
डाल आऊँगा तुम्हारे कुएँ में
यह सपना मुझे रोज़ आता है

मैं रोज़ यह सपना देख बहल जाता हूँ
बस, यहीं चूक जाता हूँ

जादूगर

जादूगर जादू दिखा रहा था
रूमाल को तोता
तोते को खरगोश बना रहा था
लोग ताली बजा रहे थे
लोग पैसे लुटा रहे थे

तभी एक आदमी
चढ़ आया मंच पर
मारा तमाचा जादूगर को खींचकर
बोला —
साले, बेवकूफ बनाते हो !
हाथ की सफ़ाई दिखा
जनता को फुसलाते हो !
मेहनत मजूरी का पैसा
ठगकर ले जाते हो !

जाओ, भागो,
यहाँ से जाओ
सही जगह पसीना बहाओ
पहले उपजाओ, फिर खाओ

कथा सुनने वालो,
अब तुम बताओ
अनुमान लगाओ
आख़िर क्या हुआ होगा

क्या रोनी सूरत बना
जादूगर चल दिया होगा
या माँग ली होगी माफ़ी
खाई होगी कसम
फिर न किसी को ठगने की
नहीं, साहब, नहीं
ऐसा कुछ ना हुआ
आख़िर जादूगर ने फिर
एक जादू किया
उसने ग़ायब कर दिया आदमी को
वह आदमी अभी तक लापता है
और कारोबार जारी है
जादूगर का ।

तमाशा

हम भी ठहाके ही लगाते रहते
देखते रहते तमाशा
मनबहलाव करते
या कुनमुनाते थोड़ा बहुत
जैसे कुनमुनाते हैं उमस भरी रातों में
मच्छरों से काटे जाने पर
या जेठ की दुपहरी में सायकिल
बीच रस्ते पंक्चर हो जाने पर
या सुबह की लोकल ट्रेन में
किसी भारी जूते से
पाँव कुचल जाने पर

हम निर्विकार भी देख लेते तमाशा
कि तमाशे में शामिल हो गए गिद्ध
झुण्ड के झुण्ड मण्डराने लगे आकाश में
झपट्टा मारने लगे
हमारी रोटी
हमारे बदन के मांस पर

ख़ुद को बचाते किसी तरह
बचाते अपने बच्चों को
हम इन्तज़ार करने लगे

तमाशे के ख़त्म होने का
और सदियाँ गुज़र गईं

हमने जब भी उठाई लाठी
ख़ुद ही मारे गए
हमने जब भी लिखी कविता
अपराधी ठहराए गए

फिर भी बचाए रखे अपनी मुट्ठियों में
हमने कुछ बीज फूलों के
उन्हीं के सहारे लड़ी
अपनी लड़ाई

पीठ पेट सहलाते हुए भी हम
जुटा ही लाए बच्चों के लिए
एकाध टॉफियाँ
दिनभर कोड़े खाकर भी रात
ढूँढ़ ही लिया
पत्नियों-प्रेमिकाओं की सूरतों में
चान्द का पानी

बस, यहीं हारे वे
उनकी घृणा की आन्धियों में
उजड़ते-उखड़ते हुए भी

हमने दो सांसें ले ही लीं
प्रेम की

साथियो !
भूलना मत इतिहास यह
मैं अपराधी ठहराए जाने का खतरा
उठाते हुए कह रहा हूँ ।

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