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शब्द और सपने 

(1)
वह पलकों से सपने उतरने का वक्त था
जब मैं उठी
और सभी सपनों को बांध
मैंने उन्हें जागरण की गठरी में बंद कर दिया
सपने अब जागरण में कैद थे

जागरण में आसमान से गिरते झुलसे
पंख लिए पक्षी थे
जो चूहे बन दफ्न हो रहे थे जमीन में
गोलियों की धांय-धांय के बीच

अब सन्नाटा था
और उसे चीरती मेरी चीख थी
जो स्वप्न और जागरण की संधि से फूटी थी
शब्द कहीं नहीं थे…

2)
सपने में शब्द
एक एक कर दफ्न किए जा रहे थे
जागरण की जमीन में
पानी कहीं नहीं था

सदियों बाद हुई खुदाई में
बस हवा की सांय-सांय थी
सांय-सांय-सांय-सांय
पानी तब भी कहीं नहीं था

(3)
सपने में शब्द पक्षी थे
हाराकिरी करते पक्षी
उनकी चोंच और आंखें लहूलुहान थीं
हवा उनकी नर्म देह जमीन पर बिछने से
पहले ही सोख ले रही थी
उनके पंखों की गर्मी और देह की गंध
अब सपने में भी सांस ले पाना दूभर था…

(4)
सपने में शब्द
अपनी नुकीली जीभ से
पृथ्वी खोद रहे थे

पेड़ों की जड़ें
अनावृत जंघाओं-सी उघड़ी पड़ी थीं
रक्त से सूरज लाल था
दिशाएं कांप रही थीं
थर्राई अग्नि सागर में जा छिपी थी
वाचाल हवा
बौराए शब्दों की ट्टचाएं रच रही थी
पत्ते निःशब्द थे…

(5)
सपने में शब्द
सबकी आंखों से सपने समेट
जल सोख रहे थे
सोख्ते के आसमान से

आसमान में न सूरज था, न चांद, न तारे

जागरण में अब
न शब्द थे, न सपने, न पानी

(6)
पृथ्वी के वक्ष पर
बहते अनिल के खोखल में
धूप ने भर दिया उजास
बादलों ने छाया
पेड़ों ने सारा रंग
चिडि़यों ने कलरव
नदी ने कलकल जीवन
चांद-तारों ने सपने की ओट में
ले ली सारी सृष्टि
सृष्टि अब हवा में भर रही थी नाद
यह शब्द-समय था…

एक औरत अपने को फिर से सिरज कर

एक औरत अपने को फिर से सिरज कर
धोती है
अपने मन को
अपने ही लहू से

एक पुरुष डूब जाता है
अपने शर्म के आँसुओं से
कि मैंने अभी कुछ पल पहले
सृष्टि से कहा था
कि रचूँगा तुम्हे मैं

सौंपती हूँ तुम्हें वे तमाम पल
जो कभी मेरे थे ही नहीं
सौंपती हूँ तुम्हें अपने देह की ताप
जो कभी मेरी थी ही नहीं

इस तरह पृथ्वी ने
सूरज को सौंप दी
अपनी सारी ताप
सारा जल
सारी हवा
और
फिर
अपने शून्य के वितान में खो गई…

कृष्णा 

मैं पांचाली-पुंश्चली
आज स्वयं को कृष्णा कहती हूँ
डंके की चोट !

मुझे कभी न भूलेगी कुरुसभा की अपनी कातर पुकार
और तुम्हारी उत्कंठा
मुझे आवृत्त कर लेने की

ओह! वे क्षण
बदल गई मैं
सुनो कृष्ण ! मैंने तुम्हीं से प्रेम किया है
दोस्ती की है

तुमने कहा-
“अर्जुन मेरा मित्र, मेरा हमरूप, मेरा भक्त है
तुम इसकी हो जाओ
मैं उसकी हो गई”

तुमने कहा-
“माँ ने बाट दिया है तुमको अपने पाँचों बेटो के बीच
तुम बँट जाओ
मैं बँट गई

तुमने कहा-
सुभद्रा अर्जुन प्रिया है
स्वीकार लो उसे
और मैंने उसे स्वीकार लिया

प्रिय ! यह सब इसलिए
कि तुम मेरे सखा हो
और प्रेम में तो यह होता ही है !

सब कहते हैं-
अर्जुन के मोह ने
हिमदंश दिया मुझे
किन्तु मैं जानती हूँ
कि तुम्हीं ने रोक लिए थे मेरे क़दम
मैं आज भी वहीं पड़ी हूँ, प्रिय
मुझे केवल तुम्हारी वंशी की तान
सुनाई पड़ती है
अनहद नाद-सी ।

जाने किस आस में बूंद 

ये तो अजब वाकया हुआ
कल सवेरे टीले के बगल से गुजरते हुए
पत्ते पर पड़ी जलबूंद
अचानक पुकारते हुए साथ होली
जाने वह बूंद ओस थी या
पानी किसी आँख का
क्या वह बीत गई थी
या है वह अब भी
मौजूद इस देह में

जाने किस रूप में…

जाने किस आस में…

कल

मैंने तथागत से पूछा
क्या तुमने कल को देखा है?

एक हल्की स्मित कौंधी
मैंने तो बस कल ही को देखा है…

एक निश्चित समय पर 

एक निश्चित समय पर नींद खुल जाती है
करवट बदल, चादर लपेट फिर सो जाने का लालच परे ढकेल
उठ बैठती है वह
उँगलियाँ चटखाती
दरवाज़े से घुस पलंग के दाहिनी ओर सोई वह
पाँवो से टटोल-टटोल कर स्लीपर ढूँढ लेती है
और सधी उँगलियाँ उठ खड़े होने तक
जूड़ा लपेट चुकी होती हैं

चाय का पानी चढ़ाने
कूकर में दाल रखने
डबलरोटी या पराठा सेंकने
सब का एक निश्चित समय है
सब काम समय पर होता है
घड़ी की सूइयों-सा जीवन चलता है
अविराम

एक निश्चित समय पर नहा धोकर
बालों पर फूल और माथे पर बिंदिया
वह सजाती है
और निश्चित समय पर द्वार के आस-पास वह
चिड़िया-सी मंडराती है

इस टाइम टेबलवाले जीवन में
बस एक ही बात अनिश्चित है
और वह है उसका ख़ुद से बतिया पाना
ख़ुद की कह पाना और ख़ुद की सुन पाना
अब तो उसे याद भी नहीं कि उसकी
अपने से बात करती आवाज़
कैसी सुनाई पड़ती है..

कभी सामने पड़ने पर क्या
वह
पहचान लेगी ख़ुद को ।

तुम्हारी याद

बड़ा मन है कि तुम्हारे लिए
एक प्रेम कविता रचूँ
और आज क्योंकि चौदह फ़रवरी है
चलन भी कुछ देने का
फिर मन भी है
तो सोचा एक कविता रचूँ अपन–तुपन के बारे में
कुछ जग-जाहिर
कुछ जग से छिपी

अब क्यों कि हर सम्बंध अपने मे यूनीक होता है
अन्ना केरेनिना के प्रथम वाक्य–सा
तो एक टीस ऊब उभरी
जीवन की पहली स्मृत-घटना–सी
अन्ना याद आई
याद आया प्लेटफार्म पर भीगता
तृषित ब्रोन्स्की
एक हल्की याद किटी की
व्यथा लेविन की
असमंजस या क्रोध केरेनिन का

पर लो कहाँ से कहाँ
चली गई मैं
अब ऐसी अनअनन्यता भी क्या
प्रिय !

बहाने से जीवन जीती है औरत 

बहाने से जीवन जीती है औरत
थकने पर सिलाई-बुनाई का बहाना
नाज बीनने और मटर छीलने का बहाना
आँखें मूँद कुछ देर माला जपने का बहाना
रामायण और भागवत सुनने का बहाना

घूमने के लिए चलिहा[1] बद मन्दिर जाने का बहाना
सब्जी-भाजी, चूड़ी-बिन्दी खरीदने का बहाना
बच्चों को स्कूल ले जाने-लाने का बहाना
प्राम उठा नन्हें को घुमाने का बहाना

सोने के लिए बच्चे को सुलाने का बहाना
गाने के लिए लोरी सुनाने का बहाना
सजने के लिए पति-रिश्तेदारों का बहाना
रोने के लिए प्याज छीलने का बहाना
जीने के लिए औरों की ज़रूरतों का बहाना

अपने होने का बहाना ढूँढती है औरत
इसी तरह जीवन को जीती है औरत
बहाने से जीवन जीती है औरत…..

शब्दार्थ
  1. ऊपर जायें चालीस दिनों तक नियमित रूप से मंदिर जाने का संकल्प

लौंगिया 

उस छतनार पेड़ के घेरे में
खिल नहीं सका कोई फूल
लाख जतन के बावजूद

धूप की आस में
कोई पौधा टेढ़ा हुआ
कुछ लम्बोतरे
मानों मौका पाते ही डाल पकड़ झूलने लगेंगे
कुछ लेटे ज़मीन पर
आकाश ताकते उम्मीद में
हरे से पीले पड़ते हुए

उस दिन सुबह
परदा हटाते ही
गुलाबी किरणों से कौंधते
खिलखिलाते दिखे
लौंगिया के फूल
ऐन पेड़ की जड़ पी उगी बेल
उसी से खाद–पानी-हवा-धूप छीनती

याद आई
माँ
उसी पल भीतर कहीं खिलखिलाई
बिटिया ।

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