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आरज़ूएँ कमाल-आमादा

आरज़ूएँ कमाल-आमादा
ज़िंदगानी ज़वाल-आमादा

ज़िंदगी तिश्ना-ए-मजाल-ए-जवाब
लम्हा लम्हा सवाल-आमादा

ज़ख़्म खा कर बिफर रही है अना
आजज़ी है जलाल-आमादा

कैसे हमवार हो निबाह की राह
दिल मुख़ालिफ़ ख़याल आमादा

फिर कोई निश्तर-आज़मा हो जाए
ज़ख़्म हैं इंदिमाल-आमादा

हर क़दम फूँक फूँक कर रखिए
रहगुज़र है जिदाल-आमादा

हर नफ़स ज़र्फ़-आज़मा ‘कैफ़ी’
हर नज़र इश्तिआल-आमादा

बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ

बना के तोड़ती है दाएरे चराग़ की लौ
बहा के ले गई मुझ को कहाँ शुऊर की रौ

बना चुका हूँ अधूरे मुजस्समे कितने
कहाँ वो नक़्श जो तकमील-ए-फ़न का हो परतव

वो मोड़ मेरे सफ़र का है नुक़्ता-ए-आग़ाज़
फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-मंज़िल हुए जहाँ रह-रौ

लरज़ते हैं मिरी महरूम-ए-ख़्वाब आँखों में
बिखर चुके हैं जो ख़्वाब उन के मुंतशिर परतव

भटक न जाऊँ मैं तश्कीक के अंधेरों में
लरज़ रही है मिरी शम-ए-एतक़ाद की लौ

शब-ए-दराज़ का है क़िस्सा मुख़्तसर ‘कैफ़ी’
हुई सहर के उजालों में गुम चराग़ की लौ

बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं 

बिखर के रेत हुए हैं वो ख़्वाब देखे हैं
मिरी निगाह ने कितने सराब देखे हैं

सहर कहें तो कहें कैसे अपनी सुब्हों को
कि रात उगलते हुए आफ़्ताब देखे हैं

कोई भी रूत हो मिली है दुखों की फ़स्ल हमें
जौ मौसम आया है उस के इताब देखे हैं

मैं बद-गुमान नहीं हों मगर किताबों में
तुम्हारे नाम कई इंतिसाब देखें हैं

कभी की रूक गई बारिश गुज़र चुका सैलाब
कई घर अब भी मगर ज़ेर-ए-आब देखे हैं

कोई हमारी ग़ज़ल भी मुलाहिज़ा करना
तुम्हारे हम ने कई इंतिख़ाब देखे हैं

पहना ढूँडते गुज़री है ज़िंदगी ‘कैफ़ी’
झुलसती धूप में साए के ख़्वाब देखे हैं

है राह-रौ के हुए हादसात की दीवार 

है राह-रौ के हुए हादसात की दीवार
गिराए कौन ये गर्द-ए-हयात की दीवार

सहर हमारे मुक़द्दर से दूर होती गई
बुलंद होती गई रोज़ रात की दीवार

मिटे जो ये हद्द-ए-फ़ासिल तो आप तक पहुँचें
हमारे बीच में हाइल है ज़ात की दीवार

अना अना के मुक़ाबिल है राह कैसे खुले
तअल्लुक़ात में हाइल है बात की दीवार

न जाने कौन से झोंके में गिर पड़े ‘कैफ़ी’
शिकस्ता होने लगी है हयात की दीवार

हर इक कमाल को देखा है हम ने रू ब-ज़वाल

हर इक कमाल को देखा है हम ने रू ब-ज़वाल
सिसक के रह गई सीने में आरज़ू-ए-कमाल

हम अपनी डूबती क़दरों के साथ डूब गए
मिलेग अब तो किताबों में बस हमारी मिसाल

हुए अना के दिखावे से लोग सर अफ़राज़
अना ने सर को उठा कर किया हमें पामाल

ज़रा सी उम्र में किस किस का हल तलाश करें
खड़ें हैं रास्ता रोके हुए हज़ार सवाल

मिरे ख़ुलुस का यारों ने आसरा ले कर
किया है ख़ूब मिरी दोस्ती का इस्तेहसाल

बुझा बुझा सा यही दिल है इस शबाब की राख
रगों में दौड़ रही थी जो आतिश-ए-सय्याल

मिले वो लम्हा जिसे अपना कह सकें ‘कैफ़ी’
गुज़र रहे हैं इसी जुस्तुजू में माह-ओ-साल

की नज़र मैं ने जब एहसास के आईने में

की नज़र मैं ने जब एहसास के आईने में
अपना दिल पाया धड़कता हुआ हर सीने में

मुद्दतें गुज़रीं मुलाक़ात हुई थी तुम से
फिर कोई और न आया नज़र आईने में

अपने काँधों पे लिए फिरता हूँ अपनी ही सलीब
ख़ुद मिरी मौत का मातम है मिरे जीने में

अपने अंदाज़ा से अंदाज़ा लगाया सब ने
मुझ को यारों ने ग़लत कर लिया तख़मीने में

अपनी जानिब नहीं अब लौटना मुमकिन मेरा
ढल गया हूँ मैं सरापा तिरे आईने में

एक लम्हे को ही आ जाए मयस्सर ‘कैफ़ी’
वो नज़र जो मुझे देखे मिरे आईने में

तमाम आलम से मोड़ कर मुँह में अपने अंदर समा गया हूँ 

तमाम आलम से मोड़ कर मुँह में अपने अंदर समा गया हूँ
मुझे न आवाज़ दे ज़माना में अपनी आवाज़ सुन रहा हूँ

तज़ाद-ए-हस्ती का फ़ल्सफ़ा हूँ उरूज ओ पस्ती का आइना हूँ
उठा हुआ इक गुरूर-ए-सर हूँ मिटा हुआ एक नक़्श-ए-पा हूँ

हो क्या तअय्युन मिरी हदों का शुमार किया मेरी वुसअतों का
हज़ारों आलम बसे हैं मुझ में मैं बेहद-ओ-बे-कराँ ख़ला हूँ

अज़ाब-ए-अहसास-ओ-आगही के वो दिल-शिकन ख़्वाब-पाश लम्हे
हज़ार आईने टूटते हैं मैं जब भी आईना देखता हूँ

मैं ना-शुनीदा सदा-ए-सहरा बनूँगा आवाज़-ए-वक़्त ‘कैफ़ी’
ज़बान-ए-आलम पे आऊँगा कल मैं आज इक हर्फ़-ए-नारसा हूँ

थे मिरे ज़ख़्मों के आईने तमाम 

थे मिरे ज़ख़्मों के आईने तमाम
दाग़-दाग़ आए नज़र सीने तमाम

सब नज़र आते हैं चेहरे गर्द गर्द
क्या हुए बे-आब आईने तमाम

एक मंज़िल और है इक जस्त और
आदमी तय कर चुका ज़ीने तमाम

मौत ले कर एक आँधी आई थी
खो दिए इंसान बस्ती ने तमाम

ताज़गी चेहरे पे अब तो लाइए
पी लिया है ज़हर ‘कैफ़ी’ ने तमाम

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