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ग़ज़लें

आइए आसमाँ की ओर चलें

आइए आसमाँ की ओर चलें
साथ ले कर ज़मीं का शोर चलें

चाँद उल्फ़त का इस्तिआरा है
जिस की जानिब सभी चकोर चलें

यूँ दबे पाँव आई तेरी याद
जैसे चुपके से शब में चोर चलें

दिल की दुनिया अजीब दुनिया है
अक़्ल के उस पे कुछ न ज़ोर चलें

सब्ज़-रूत छाई यूँ उन आँखों की
जिस तरह नाच नाच मोर चलें

तुम भी यूँ मुझ को आ के ले जाओ
जैसे ले कर पतंगे डोर चलें

आँखों पर पलकों का बोझ नहीं होता

आँखों पर पलकों का बोझ नहीं होता
दर्द का रिश्ता अपनी आन नहीं खोता

बस्ती के हस्सास दिलों को चुभता है
सन्नाटा जब सारी रात नहीं होता

मन-नगरी में धूम-धड़क्का रहता है
मेरा मैं जब मेरे साथ नहीं होता

बन जाते हैं लम्हे भी कितने संगीन
वक़्त कभी जब अपना बोझ नहीं ढोता

रिश्ते नाते टूटे फूटे लगे हैं
जब भी अपना साया साथ नहीं होता

दिल को ‘हनीफ़’ उधार नहीं मिलता जब तक
आँखों का पथरीला दर्द नहीं रोता

एहसास-ए-ना-रसाई से जिस दम उदास था

एहसास-ए-ना-रसाई से जिस दम उदास था
शायद वो उस घड़ी भी मेरे आस पास था

महफ़िल में फूल ख़ुशियों के जो बाँटता रहा
तन्हाई में मिला तो बहुत ही उदास था

हर ज़ख़्म-ए-कोहना वक़्त के मरहम ने भर दिया
वो दर्द भी मिटा जो ख़ुशी की असास था

अँगड़ाई ली सहर ने तो लम्हे चहक उठे
जंगल में वरना रात के ख़ौफ़ ओ हरास था

सूरज पे वक़्त का जो गहन लग गया ‘हनीफ़’
देखा तो मुझ से साया मेरा ना-शनास था

गर्दिश की रिक़ाबत से झगड़े के लिए था

गर्दिश की रिक़ाबत से झगड़े के लिए था
जो अहद मेरा तितली पकड़ने के लिए था

जिस के लिए सदियाँ कई तावान में दी हैं
वो लम्हा तो मिट्टी में जकड़ने के लिए था

हालात ने की जान के जब दस्त-दराज़ी
हर सुलह का पहलू ही जगड़ने के लिए था

मुंह ज़ोरियाँ क्यूँ मुझ से सज़ा-वार थीं उस को
फैलाओ जहाँ उस को सुकड़ने के लिए था

क़ुर्बान थीं बालीदगियाँ नख़्ल-ए-तलब पर
क्या जोश-ए-नुमू आप उखाड़ने के लिए था

पानी ने जिसे धूप की मिट्टी से बनाया
वो दाएरा-ए-रब्त बिगड़ने के लिए था

किस के ख़याल ने मुझे शोरीदा कर दिया

किस के ख़याल ने मुझे शोरीदा कर दिया
तन्हा-शबी को और भी संजीदा कर दिया

एहसास-ए-ना-रसाई की बंजरन ज़मीन को
किस के ख़याल-ए-सब्ज़ ने बालीदा कर दिया

कल हम ने तश्त-ए-बाम पे शब ख़ून मार कर
बिस्तर उचटती नींद का ख़्वाबीदा कर दिया

बीते ग़मों को आज तल्ख़ी में घोल कर
मुस्तक़बिल-ए-हयात को लग़्जीदा कर दिया

हर रोज़ की नई नई ईजाद ने ‘हनीफ़’
हरन मादन-ए-क़दीम को ज़ोलिदा कर दिया

नज़्में

दोधारी तलवार

ख़्वाहिश की तस्कीं की ख़ातिर
अपने ला-यानी जज़्बों को
लौह-ए-दिल पर आँख रहे हैं
देश बिदेश की ख़ाक छान के
गिरते-पड़ते फाँक रहे हैं
अपनी दीद से ग़ाफ़िल कर कर
ना-दीदा को झाँक रहे हैं

जब तर्सील बटन तक पहूँची

कल तिरा नामा
जो मिलता था हमें
उस के अल्फ़ाज़ तले
मुद्दतें मानी के तशरीहों में
लुत्फ़ का सैल रवाँ रहता था
रातें बिस्तर पे
नशा ख़्वाब का रख देती थीं
इत्र में डूबी हुई धूप की पैमाइश पर
चाँदनी नींद को लोरी की थपक देती थी
ज़हन में सुब्ह ओ मसा
इक अजब फ़रहत-ए-नौ-रस्ता सफ़र करती थी
लेकिन अब क़ुर्बतें हैं बहम
समाअत को मगर
फ़ोन की घँटी को सुनने को तरसती ख़्वाहिश
मुनक़ता राबित पाने के लिए कोशाँ है
उँगलियाँ रहती हैं
एक एक बटन पर रक़्साँ
यही मामूल है मुद्दत से
मगर टेलीफोन
एक ख़ामोश सदा देता है
सिलसिला लम्हों का
सदियों सा बना देता है

साँप का साया ख़्वाब मेरे डस जाता है

कितनी दफ़ा तो
बड़ा रूका मैं उस की जानिब
सदियों वो महका कर मेरा ज़ाहिर ओ बातिन
कई युगों तक उस ने मुझ को याद किया
और कहा ये नद्दी हूँ मैं
नाव हो डोलो मुझ पर
झूठ उठो तन की चाँदी सोना पाकर
लेकिन मेरे जिस्म के वीराने से कोई
हर दम मुझ को ताक रहा है
तन से आगे
मन नगरी में झाँक रहा है
नींद नशे के
ज्ञान ध्यान में सान रहा है
सर से क़दम तक तान रहा है

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