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उनकी पराजय

वे खुश हैं कि समाजवाद पराजित हो रहा है
मैं खुश हूँ कि आदमी में अभी लड़ने का हौसला बाक़ी है

वे कहते हैं कहाँ है तुम्हारी कविता में छंद
कहाँ है तुक
कहाँ है लय

लय-तुक-छंद मैं नहीं जानता
कहाँ करता हूँ मैं कविता
मैं तो जीता हूँ स्वच्छंद
बोलता जाता हूँ निर्बंध।

मेरे वक्तव्यों में झलकती है उनकी पराजय
उनका भय
उनकी क्षय।

बच्चे

बच्चों पर दो कविताएँ

एक

प्यार तो करते हैं हम सभी बच्चों को

छोटे होते हैं जब बच्चे
करते हैं हम उन सभी को प्यार
दिखते हैं सबके सब सुंदर।

कल जब ये बड़े होंगे
मारे जाएंगे किसी न किसी वाद की आड़ में
मारे जाएंगे अपनी वजह से
अपनी नस्ल, अपनी जाति बतलाने के जुर्म में मारे जाएंगे।

बचे रहेंगे कुछ बच्चे
व्यापक सुरक्षा की बदौलत
बचे रहेंगे वे कि उनके साथ होंगी बंदूकें
और निहत्थे होंगे बाकी सभी बच्चे।

दो

बच्चे बंधे हैं सीमाओं में
बच्चे नहीं मानते सीमाएँ
बच्चे खेल रहे हैं बंदूकों से
बच्चे सिर्फ़ खेलना चाहते हैं

बच्चों के लिए खींची हैं सीमाएँ हमने ही
उनके हाथों में बंदूकें भी हमने ही दी हैं।

बसंत

बसंत : तीन कविताएँ

1

कविता की किताब पर
रखा है पीला फूल
पढ़ने की मेज पर
रखा है पीला फूल
पीला फूल सजा है
बैठक में घर की…
घास पर बैठे हैं हम दोनों
बीच में रखा है पीला फूल।

2

कहीं नहीं आता बसन्त
वह तो आता है
हमारे दिलों में
या आता है
उन बाग़ीचों में
जिनके दरवाज़ों पर लिखा है
ये आम रास्ता नहीं है।

3

किसी रंग का नाम नहीं होता बसन्त
किसी मौसम का नाम भी नहीं होता
वह तो होता है रिश्ता
पीली सरसों का
धरती के साथ।

चंद हाइकू

वसंत

मस्ती अनन्त
खिले फूल चहुँ ओर
आया वसंत

बाज़ारवाद

मैने सोचा कायकू
बाज़ार है जब छाया
तो क्यों लिखूँ हाइकू

होली

वह यूँ बोली
क्यों डाला रंग मुझे
होली है होली

भोगवाद

बंगला है, गाड़ी है
भोग की जय-जय
घर में सब कुछ है

विचारहीनता

लंबी नींद औ’ अच्छा भोजन
क्यों औ’ क्या करें विचार
जब हर तरफ हो मनोरंजन

संबंध

1

संबंधों के झूलते पुल पर
हाथों में हाथ थाम
पार कर जाते हैं हम
जीवन की गहरी नदी
और तेज बहता समय।

2

वह आदमी नहीं हैं
व्यवस्था के वाहक हैं
नाहक है मेरे पिता, मेरे भाई …

हर व्यक्ति पुर्जा है
इस विशाल तंत्र का
पहुँचाता है मुझ तक
कोई न कोई मंत्र
इस विशाल तंत्र का।

पिता

रात के अंतिम पहर में
नींद के बीहड़ से मीलों दूर
घूमने निकलता हूँ जब
अपने ही भीतर पाता हूँ तुम्हें
किसी बंद दरवाज़े सा

झांकने पर भीतर
दीखता है तुम्हारा रक्त-रंजित ललाट
तुम वह नहीं थे जो हो
लौट आता हूँ सहम कर

न चाहते हुए भी तुमने
व्यवस्था को गहा
लड़ते रहे
सब कुछ सहा
जो कुछ रहा
मेरे भीतर
बंद दरवाज़े के पीछे
तुम्हारा रक्त-रंजित ललाट।

मैं नहीं ढो सकता पिता
तुम्हारी तरह
इस चरमराते तंत्र को
ब्राह्मणत्व और आधुनिकता की खिचड़ी को
मैने आधुनिकता चुनी
बंद दरवाज़े के पीछे
तुम्हारी चीख सुनी।

रुको पिता रुको
मत बनो मेरे पथ-प्रदर्शक
खोजने दो अपनी राह स्वयं ही
हाँ! रातों में
नींद के बीहड़ से दूर
लौट आऊँगा तुम्हारे पास
बैठेंगे अलाव के आस-पास
खोलेंगे अपनी-अपनी पोटली
तौलेंगे अपने-अपने अनुभव
गिनेंगे अपने-अपने हिस्से के काँटे।

और फिर एक दिन
दोनों पोटलियाँ सरका दूँगा
समय की सकरी गली में
कोई शायद उनमें डाले
रंग-बिरंगे फूल खुशबू वाले।

चुप्पी 

शब्दों में चुप्पी है कविता
शब्द बनाते हैं कविता
जो बनता है
कहीं नहीं होती उसमें कविता

कविता जहाँ होती है
वहाँ न शब्द होते हैं
न चुप्पी

शब्द 

शब्द महज शब्द नहीं
पूरा संसार है
केंचुए सा रेंगता
वायलिन सा बजता
रंगों सा बिखरता

मुँह खुलता है जब भी
अंकुर सा प्रस्फुटित होता है
हाथ के खिलाफ़ मुट्ठी सा तनता है
युद्ध में जोरों से फटता है
युद्ध के विरुद्ध
सफ़ेद पताका सा लहराता है

शब्द।

कई बार ऐसा हुआ

कई बार ऐसा हुआ
शब्द हाथों से छूट कर
टूटकर बिखर गए
ज़मीन पर

अपनी ही तलाश में
शब्दों को गढ़ा कई बार
आवरण में रखा सहेज कर
और वो दर्द सहा
जो ख़ुद को छिपाने में रहा

अक्षर

मैं उतरता हूँ
कागज़ पर
कविता बन कर

तुम जिसे पढ़ते हो
वह मैं हूँ निरा मैं
स्पंदित प्रतिपल
तुम्हारी ही शर्तों पर
हर पल
बनता हुआ
अक्षर

रचना

घर के सामने रहते है कुम्हार
उनके घरों में अब नहीं चलते चाक
कहलाते हैं वो अब भी कुम्हार
बेचते हैं मिट्टी के गमले
खिलौने, दिए और झांवां
कभी-कभी दीखते हैं रंगते
कहीं और से बन आई चीज़ें

अब नहीं चलाते चाक ये कुम्हार
अब नहीं बनाते घड़े और सुराही
दूर गाँवों से
महानगरों में आकर
बेचते हैं मूर्तियाँ विशाल

सुना है अब भी होते हैं चाक
अब भी होते हैं कुम्हार
अब भी घूमते चाक पर
तरह-तरह की शक्ल लेती है मिट्टी

मेरे घर के सामने रहते हैं जो कुम्हार
उनके घरों पर अब नहीं चलते चाक।

अर्थ

जब गेंहूँ सा पिसता हो आदमी
मौसम की बाते हैं बेमानी
धुँए सा उठ रहा हो चिमनी से
जब हर मज़दूर
तब कोई गीत न गाओ

नए बिम्बों में
पुराने अर्थ खोज रहे हैं हम
लगातार
और नया अर्थ
छुपा हुआ है अब तक
वहीं पसीने की गंध में

पिता मर रहे थे

इस दुनिया में मर रहे थे पिता
पिता के भीतर मर रही थी यह दुनिया।

मेरी दुनिया में मर रहे थे पिता
एक पूरी दुनिया मर रही थी मेरे पिता के साथ।

मृत्यु के बाद
मेरी स्मृति में जीवित रहेंगे मेरे पिता
पिता की स्मृति में नहीं रह पाऊंगा मैं?

कांक्रीट के शब्द

जटिलताओं के वृक्ष
नहीं हिलते विषम हवाओं में

अब नहीं बहते शब्द
सघन इमारतों से
छा जाते हैं
और उनके भीतर
खोजना होता है हमें।

रोटी 

मार्क्स को याद करते हुए

याद रखें कि मेरा पेट भरा है
कहीं कोई बंजर नहीं, हर तरफ़ हरा-भरा है
पेट को हमेशा-हमेशा रखने के लिए भरा-पूरा
जंगल से शहरों और शहरों से महानगरों तक फिरा मैं मारा-मारा ।

जानवरों के शिकार से
आदमख़ोरी से भी पेट भरा है ।
जब दिखे बंजर मैदान
बदला उनको खलिहानों में
और एक दिन ईजाद की रोटी
रोटी ज्वार की
रोटी बाजरे की
रोटी मडुवे की
रोटी मक्के की और गेहूँ की
रोटी गोल-गोल जैसे पृथ्वी
रोटी चाँद हो जैसे
रोटी सूरज की छटाओं सी
अलग-अलग रंगों की
अलग-अलग स्वाद सी ।

जबसे बनाई रोटी
पेट भरता नहीं केवल बोटी से
दीगर है बात कि राजे-रजवाड़े और उनके दरबारी
सदा से खाते रहे हैं छप्पन भोग
पर हमने तो रोटी ही खाई
रोटी की ही गाई
दो रोटी पेट पाल
दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ
पता नहीं प्रभु कौन है अब
रोटी पर इतना सोचा
नया अर्थ ही दे डाला
रोटी तब नहीं रह गई केवल रोटी
हो गई रोज़ी-रोटी
हो गई मजबूरी इतनी
हाय पापी पेट क्या न कराए
चोरी-चकारी, हत्याएँ, हमले, प्रपंच
जेब काटना, बाल काटना
पेड़ काटना, कुर्सी बनाना
कपड़े बनाना, पढ़ना-पढ़ाना
बहुत विकास किया भाई
नई-नई चीज़ें बनाईं
बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी
कारें, बसें, रेल की सवारी
ढेरों नशे, ढेरों बीमारी
ढेरों दवाएँ और महामारी
विकास ही विकास चहुँ ओर
नए-नए हथियार, टैंक, युद्धपोत, विमान
अमीरी और ग़रीबी
ऐय्याशी और मज़दूरी
खाए-अघाए लोग और भुखमरी
पता ही नहीं चला
कब सत्ता के दलालों ने
लोकतन्त्र के नाम पर रोटी की बहस को
बदल दिया विकास की बहस में
ज्ञान-विज्ञान-अनुसन्धान और प्रबन्धन की बहस में ।

आज जब कोई भूखा
यहाँ आदमी कहना ज़रूरी नहीं क्योंकि भूख
को स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में बाँटना ठीक नहीं
जब कोई भूखा कहता है आज
रोटी दो, मुझे रोटी दो
तो वो उससे पूछते हैं
जीने का मतलब क्या केवल रोटी होता है?
देखो, देखो हमने विमान बनाए हैं जिनसे हम पुष्प वर्षा करते हैं
ठीक उसी तरह जैसे धरा पर ईश्वर के अवतरण पर
करते थे देवता
पुष्प वर्षा करते हैं हम
लोगों पर, जो जाते हैं सावन में गंगाजल लेने
लोगों पर, जो करते हैं सेवा तुम्हें महामारी से बचाने के लिए ।

तुम्हें, मूर्ख ! तुम्हें बचाने के लिए
और तुम्हें रोटी की पड़ी है
जब जीवन ही नहीं होगा
तो रोटी का क्या करेगा
तू बचेगा भी या नहीं, पता नहीं
हम सुरक्षित रहेंगे
और हमारे खज़ाने भरे रहेंगे
हम रोटी के बिना ज़िन्दा रहते हैं
वह और बात है कि हम जीते जी मरे हुए हैं
तू जिसे कहता है रोज़ी-रोटी
वह रोज़ की रोटी है
मिले तो सही
न मिले तो खोटी है
रोटी नहीं तेरी क़िस्मत

जा, अब हमें पुष्प वर्षा करने दे।

05 मई 2020

महायुद्धों के आस-पास

प्रिय हेमन्त! तुमने फ़्रांसिसी कविता के अपने इस संग्रह को अपने पन्ने में जोड़ा है, इसे अनूदित कविता के फ़्रांसिसी कविता वाले पन्ने पर ही जोड़ना होगा। तुम्हारे पन्ने पर हम तुम्हारी इस किताब का लिंक दे देंगें। लेकिन किताब अनूदित कविता वाले विभाग में ही रखी जाएगी। कविता कोश में एक ही कवि की कविताएँ दो अलग-अलग जगह जोड़ने और नए से नए पन्ने बनाने की कोई तुक नहीं है। अभी तुम इस पन्ने को ऎसे ही छोड़ दो। अनिल जनविजय

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