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चतुर चित्रकार

चित्रकार सुनसान जगह में, बना रहा था चित्र,
इतने ही में वहाँ आ गया, यम राजा का मित्र।

उसे देखकर चित्रकार के तुरत उड़ गए होश,
नदी, पहाड़, पेड़, पत्तों का, रह न गया कुछ जोश।

फिर उसको कुछ हिम्मत आई, देख उसे चुपचाप,
बोला-सुंदर चित्र बना दूँ, बैठ जाइए आप।

डकरू-मुकरू बैठ गया वह, सारे अंग बटोर,
बड़े ध्यान से लगा देखने, चित्रकार की ओर।

चित्रकार ने कहा-हो गया, आगे का तैयार,
अब मुँह आप उधर तो करिए, जंगल के सरदार।

बैठ गया पीठ फिराकर, चित्रकार की ओर,
चित्रकार चुपके से खिसका, जैसे कोई चोर।

बहुुत देर तक आँख मूँदकर, पीठ घुमाकर शेर,
बैठे-बैठे लगा सोचने, इधर हुई क्यों देर।

झील किनारे नाव थी, एक रखा था बाँस,
चित्रकार ने नाव पकड़कर, ली जी भर के साँस।

जल्दी-जल्दी नाव चला कर, निकल गया वह दूर,
इधर शेर था धोखा खाकर, झुँझलाहट में चूर।

शेर बहुत खिसियाकर बोला, नाव ज़रा ले रोक,
कलम और कागज़ तो ले जा, रे कायर डरपोक।

चित्रकार ने कहा तुरत ही, रखिए अपने पास,
चित्रकला का आप कीजिए, जंगल में अभ्यास।

नंदू को जुकाम

बहुत जुकाम हुआ नंदू को,
एक रोज वह इतना छींका।
इतना छींका, इतना छींका,
इतना छींका, इतना छींका।
सब पत्ते गिर गए पेड़ के,
धोखा हुआ उन्हें आंधी का!

तिल्लीसिंह

पहने धोती कुरता झिल्ली,
गमछे से लटकाए किल्ली,
कस कर अपनी घोड़ी लिल्ली,
तिल्लीसिंह जा पहुँचे दिल्ली!

पहले मिले शेख जी चिल्ली,
उनकी बहुत उड़ाई खिल्ली,
चिल्ली ने पाली थी बिल्ली,
तिल्लीसिंह ने पाली पिल्ली!

पिल्ली थी दुमकटी चिबिल्ली,
उसने धर दबोच दी बिल्ली,
मरी देखकर अपनी बिल्ली,
गुस्से से झुँझलाया चिल्ली!

लेकर लाठी एक गठिल्ली,
उसे मारने दौड़ा चिल्ली,
लाठी देख डर गया तिल्ली,
तुरंत हो गई धोती ढिल्ली!

कसकर झटपट घोड़ी लिल्ली,
तिल्लीसिंह ने छोड़ी दिल्ली,
हल्ला हुआ गली दर गल्ली,
तिल्लीसिंह ने जीती दिल्ली!

मामी निशा

चंदा मामा गए कचहरी, घर में रहा न कोई,
मामी निशा अकेली घर में कब तक रहती सोई!

चली घूमने साथ न लेकर कोई सखी-सहेली,
देखी उसने सजी-सजाई सुंदर एक हवेली!

आगे सुंदर, पीछे सुंदर, सुंदर दाएँ-बाएँ,
नीचे सुंदर, ऊपर सुंदर, सुंदर सभी दिशाएँ!

देख हवेली की सुंदरता फूली नहीं समाई,
आओ नाचें उसके जी में यह तरंग उठ आई!

पहले वह सागर पर नाची, फिर नाची जंगल में,
नदियों पर नालों पर नाची, पेड़ों के झुरमुट में!

फिर पहाड़ पर चढ़ चुपके से वह चोटी पर नाची,
चोटी से उस बड़े महल की छत पर जाकर नाची!

वह थी ऐसी मस्त हो रही आगे क्या गति होती,
टूट न जाता हार कहीं जो बिखर न जाते मोती!

टूट गया नौलखा हार जब, मामी रानी रोती,
वहीं खड़ी रह गई छोड़कर यों ही बिखरे मोती!

पाकर हाल दूसरे ही दिन चंदा मामा आए,
कुछ शरमा कर खड़ी हो गई मामी मुँह लटकाए!

चंदा मामा बहुत भले हैं, बोले-‘क्यों है रोती’,
दीवा लेकर

अस्तोदय की वीणा

बाजे अस्तोदय की वीणा–क्षण-क्षण गगनांगण में रे।
हुआ प्रभात छिप गए तारे,
संध्या हुई भानु भी हारे,
यह उत्थान पतन है व्यापक प्रति कण-कण में रे॥
ह्रास-विकास विलोक इंदु में,
बिंदु सिन्धु में सिन्धु बिंदु में,
कुछ भी है थिर नहीं जगत के संघर्षण में रे॥
ऐसी ही गति तेरी होगी,
निश्चित है क्यों देरी होगी,
गाफ़िल तू क्यों है विनाश के आकर्षण में रे॥
निश्चय करके फिर न ठहर तू,
तन रहते प्रण पूरण कर तू,
विजयी बनकर क्यों न रहे तू जीवन-रण में रे?

घर से निकले

तिल्ली सिंह

पहने धोती कुरता झिल्ली
गमछे से लटकाये किल्ली
कस कर अपनी घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह जा पहुँचे दिल्ली

पहले मिले शेख जी चिल्ली
उनकी बहुत उड़ाई खिल्ली
चिल्ली ने पाली थी बिल्ली
तिल्ली ने थी पाली पिल्ली

पिल्ली थी दुमकटी चिबिल्ली
उसने धर दबोच दी बिल्ली
मरी देख कर अपनी बिल्ली
गुस्से से झुँझलाया चिल्ली

लेकर लाठी एक गठिल्ली
उसे मारने दौड़ा चिल्ली
लाठी देख डर गया तिल्ली
तुरंत हो गई धोती ढिल्ली

कस कर झटपट घोड़ी लिल्ली
तिल्ली सिंह ने छोड़ी दिल्ली
हल्ला हुआ गली दर गल्ली
तिल्ली सिंह ने जीती दिल्ली !

चले बीनने मोती!

 

अन्वेषण

मैं ढूँढता तुझे था, जब कुंज और वन में।
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में॥

तू ‘आह’ बन किसी की, मुझको पुकारता था।
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में भजन में॥

मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में॥

बनकर किसी के आँसू, मेरे लिए बहा तू।
आँखे लगी थी मेरी, तब मान और धन में॥

बाजे बजाबजा कर, मैं था तुझे रिझाता।
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में॥

मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर।
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में॥

बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था।
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहाँ चरन में॥

तूने दिया अनेकों अवसर न मिल सका मैं।
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में॥

तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था।
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में॥

क्रीसस की ‘हाय’ में था, करता विनोद तू ही।
तू अंत में हँसा था, महमूद के रुदन में॥

प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना।
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में॥

आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में।
मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में॥

कैसे तुझे मिलूँगा, जब भेद इस कदर है।
हैरान होके भगवन, आया हूँ मैं सरन में॥

तू रूप की किरन में सौंदर्य है सुमन में।
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में॥

तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में।
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में॥

हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू।
देखूँ तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में॥

कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है।
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में॥

दुख में न हार मानूँ, सुख में तुझे न भूलूँ।
ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में॥

 

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