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सुमन ढींगरा दुग्गल की रचनाएँ

लुटाते रहने से इल्म ओ लियाक़त कम नहीं होती

लुटाते रहने से इल्म ओ लियाक़त कम नहीं होती
इज़ाफा और होता है ये दौलत कम नहीं होती

अगर चाहो कभी तो दिल को छू कर आज़मा लेना
ये सोज़े इश्क है इसकी हरारत कम नहीं होती

यही अपनाईत की पायदारी की अलामत है
मुहब्बत बढ़ती है लेकिन शिकायत कम नहीं होती

शबे फुरक़त ख्यालों से तेरे राहत तो मिलती है
सराबों से मगर प्यासे की शिद्दत कम नहीं होती

सलीबो दार तक तेरी तमन्ना ले के आई है
मगर दिल से हमारे तेरी चाहत कम नहीं होती

समेटी हैं दुआऐं माँ की हमने अपने दामन में
जो नेमत हम ने पाई है ये नेमत कम नहीं होती

यहाँ जो चीज़ बढ़ती है वो इक दिन कम भी होती है
निगाहों की सुमन दिल से अदावत कम नहीं होती

धरती काटे अंबर काटे

धरती काटे अंबर काटे
तुम बिन हर इक मंज़र काटे

उस पापी का मंतर काटे
कोई पीर पयंबर काटे

प्यार में दुनिया बिल्ली बन कर
मेरा रस्ता अक्सर काटे

फस्ले मुहब्बत की दीवानी
दिन भर बोये शब भर काटे

रोने के दिन भी आये थे
लेकिन हमने हँसकर काटे

तुझ बिन मुझको नींद न आये
रैन डसे और बिस्तर काटे

देते हो तुम जिनकी दुहाई
वो दिन हमने अक्सर काटे

इक ज़ालिम शमशीर बकफ़ है
देखो किस किस का सर काटे

उस ने दर्पण दिखा दिया मुझ को 

उसने दर्पण दिखा दिया मुझको
और मुझसे मिला दिया मुझको

दिन में तारे दिखाई देते हैं
आप ने क्या पिला दिया मुझको

दर्द आहें फ़रेब रूस्वाई
इश्क़ ने और क्या दिया मुझको

ख़ुद को हम ख़ूबरू समझते थे
आईने ने डरा दिया मुझको

मैंने क्या क्या तुझे नवाज़ा है
तू बता तू ने क्या दिया मुझको

ए मुहब्बत मेरी ख़ता क्या थी
खाक़ मे क्यों मिला दिया मुझको

शब के पिछले पह्र वो याद आया
जिसने जा कर भुला दिया मुझको

ज्यूँ गिरे शाख़ से कोई पत्ता
यूँ नज़र से गिरा दिया मुझको

मैं ज़हीनों में थी शुमार सुमन
उसने पागल बना दिया मुझको

अपना मैं कह सकूँ जिसे दिलबर नहीं रहा

अपना मैं कह सकूँ जिसे दिलबर नहीं रहा
तन्हा सफर पे चल पड़ी रहबर नहीं रहा

तक्मील कर दे दर्द की रूदाद लफ्ज़ों से
ऐसा जहां में कोई सुखनवर नहीं रहा

बेहतर है उस को आज बुलंदी नसीब है
लेकिन अब उसका पाँव ज़मीं पर नहीं रहा

इस ज़िंदगी में ढूँढते हैं रोज़ ज़िंदगी
खुशियों का वो खज़ाना वो महवर नहीं रहा

जो ज़हन ओ दिल को मेरे मुअत्तर किया करे
गुलशन में तेरे अब वो गुलेतर नहीं रहा

बचपन की सेज पर थे खुशी के तमाम फूल
लेकिन जवाँ हुये तो वो बिस्तर नहीं रहा

ढूँढें कहाँ से अपनों की वो खोई कुर्बतें
खाली मकान रह गया अब घर नहीं रहा

फिर मेरा दिल दुखा गई बारिश

फिर मेरा दिल दुखा गयी बारिश
आ के तन मन जला गई बारिश

तुम ने वादा किया जब आने का
तुम से पहले ही आ गई बारिश

आँख रोई है संग घटाओं के
सारा काजल बहा गई बारिश

आ के तुम भी सजाओ माँग मेरी
सारी धरती सजा गई बारिश

हम को जी भर के भीग लेने दो
आज तन मन को भा गई बारिश

रुत है झूलों की और फूलों की
याद बचपन दिला गई बारिश

बूँद के तीर तन पे चुभते हैं
प्यास दिल की बढा गई बारिश

कैसी नुदरत है इस की बूँदों में
स्वर्ग धरती बना गई बारिश

जिस्म ओ जां सब सुमन सुलग उठ्ठे
ज़हन ओ दिल पर जो छा गई बारिश

तुम्हारे हिज्र में है ज़िंदगी दुश्वार बरसों से

तुम्हारे हिज्र में है ज़िंदगी दुश्वार बरसों से
तुम्हें मालूम क्या तुम हो समंदर पार बरसों से

चले आओ तुम्हारे बिन न जीते हैं न मरते हैं
बनी है ज़िंदगी जैसे गले का हार बरसों से

कभी दुनिया से हम हारे कभी तुमसे कभी खुद से
हमारी इश्क़ में होती रही है हार बरसों से

तुम्हारे नाम का मै मांग में सिंदूर भरती हूँ
तुम्ही हो आईना मेरा तुम्ही सिंगार बरसों से

निकलना कश्ती ए उम्मीद तूफानों से मुश्किल है
एक ऐसे नाख़ुदा के हाथ है पतवार बरसों से

इसी मिल्लत के गहवारे को हिंदुस्तान कहते हैं
कहीं रौशन शिवाले और कहीं मीनार बरसों से

सुमन दिन रात किस की मुन्तज़िर रहती हैं ये आँखें
ये किस की राह तकते हैं दर ओ दीवार बरसों से.

सच कह के उस के मुँह पे बस इक बार देखना 

सच कह के उसके मुँह पे बस इक बार देखना
फिर उस के बाद खुद को सरे दार देखना

बेशक बढ़ा लो और भी तुम अपने ये सितम
पर ज़ब्त का हमारे भी मेयार देखना

उसमें कमाल ये है उसे देखने के बाद
घटती नहीं है शिद्दते दीदार देखना

तू मुल्क के निज़ाम पे अपनी निगाह रख
फिर बाद में शिवाला ओ मीनार देखना

अपनों ने हर कदम जो दिया है मुझे फरेब
मुझको यही बनाएगा हुशियार देखना

तुम को दिखाई देगी हक़ीक़त की रोशनी
दिल की नजर से तुम पसे कोहसार देखना

ए दिल बता ये क्यूँ मेरा खाना खराब है

ए दिल बता ये क्यूँ मेरा खाना ख़राब है
कहते हैं लोग इश्क जिसे क्या अज़ाब है

वादी में पास ही कहीं बजता रबाब है
लहरों से खेलती हुई बहती चिनाब है

सच मे वो भर गया है सितारों से मेरी माँग
या फिर ये मेरी जागती आँखों का ख्वाब है

दुनिया का इल्म सबका अधूरा है आज तक
हालाँकि जीस्त रोज़ नयी इक किताब है

कैसे कोई यकीन करे ज़िंदगी तेरा
सब जानते हैं तुझको तू मिसले हुबाब है

आती है तिश्नगी भी तभी क्यूँ उरूज़ पर
आता नजर के सामने जब भी सराब है

अब जा के उस मुक़ाम पे ठहरी है ज़िंदगी
जिस जा कोई सवाल न कोई जवाब है

अपने हिसार में लिए रहता है रात दिन
तुझसे जियादा दर्द तिरा कामयाब है

मुझको तो बस नसीब से वो मिल गये सुमन
इतना कहाँ हसीन मेरा इंतिखाब है

 

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