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ग़ज़लें

इस शहर-ए-खराबी में 

इस शहर-ए-खराबी में गम-ए-इश्क के मारे
ज़िंदा हैं यही बात बड़ी बात है प्यारे

ये हंसता हुआ लिखना ये पुरनूर सितारे
ताबिंदा-ओ-पा_इन्दा हैं ज़र्रों के सहारे

हसरत है कोई गुंचा हमें प्यार से देखे
अरमां है कोई फूल हमें दिल से पुकारे

हर सुबह मेरी सुबह पे रोती रही शबनम
हर रात मेरी रात पे हँसते रहे तारे

कुछ और भी हैं काम हमें ए गम-ए-जानां
कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे

और सब भूल गए हर्फे-सदाक़त लिख

और सब भूल गए हर्फे-सदाक़त लिखना
रह गया काम हमारा ही बगावत लिखना

न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको
हक में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना.

हम ने तो भूलके भी शह का कसीदा न लिखा
शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना.

दह्र के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए
सर्व-क़ामत की जवानी को क़यामत लिखना.

कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब ‘जालिब’
रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना

कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं

कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं
अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं

बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ
न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं

वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है
न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं

कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम
चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल[1] निकलते हैं

हमेशा औज पर देखा मुक़द्दर उन अदीबों का
जो इब्नुलवक़्त[2] होते हैं हवा के साथ चलते हैं

हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया ‘जालिब’
कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खूँ से जलते हैं

बटे रहोगे तो अपना यूँही बहेगा लहू

बटे रहोगे तो अपना यूँही बहेगा लहू
हुए न एक तो मंज़िल न बन सकेगा लहू

हो किस घमण्ड में ऐ लख़्त लख़्त दीदा-वरो
तुम्हें भी क़ातिल-ए-मेहनत-कशाँ कहेगा लहू

इसी तरह से अगर तुम अना-परस्त रहे
ख़ुद अपना राह-नुमा आप ही बनेगा लहू

सुनो तुम्हारे गरेबान भी नहीं महफ़ूज़
डरो तुम्हारा भी इक दिन हिसाब लेगा लहू

अगर न अहद किया हम ने एक होने का
ग़नीम सब का यूँही बेचता रहेगा लहू

कभी कभी मिरे बच्चे भी मुझ से पूछते हैं
कहाँ तक और तू ख़ुश्क अपना ही करेगा लहू

सदा कहा यही मैं ने क़रीब-तर है वो दूर
कि जिस में कोई हमारा न पी सकेगा लहू

ज़र्रे ही सही कोह से टकरा तो गए हम

ज़र्रे ही सही कोह से टकरा तो गए हम
दिल ले के सर-ए-अर्सा-ए-ग़म आ तो गए हम

अब नाम रहे या न रहे इश्क़ में अपना
रूदाद-ए-वफ़ादार पे दोहरा तो गए हम

कहते थे जो अब कोई नहीं जाँ से गुज़रता
लो जाँ से गुज़रकर उन्हें झुटला तो गए हम

जाँ अपनी गँवाकर कभी घर अपना जला कर
दिल उनका हर इक तौर से बहला तो गए हम

कुछ और ही आलम था पस-ए-चेहरा-ए-याराँ
रहता जो यूँही राज़ उसे पा तो गए हम

अब सोच रहे हैं कि ये मुमकिन ही नहीं है
फिर उनसे न मिलने की क़सम खा तो गए हम

उट्ठें कि न उट्ठें ये रज़ा उन की है ‘जालिब’
लोगों को सर-ए-दार नज़र आ तो गए हम

ये उजड़े बाग़ वीराने पुराने

ये उजड़े बाग़ वीराने पुराने
सुनाते हैं कुछ अफ़्साने पुराने

इक आह-ए-सर्द बनकर रह गए हैं
वो बीते दिन वो याराने पुराने

जुनूँ का एक ही आलम हो क्यूँकर
नई है शम्अ’ परवाने पुराने

नई मँज़िल की दुश्वारी मुसल्लम
मगर हम भी हैं दीवाने पुराने

मिलेगा प्यार ग़ैरों ही में ‘जालिब’
कि अपने तो हैं बेगाने पुराने

ये और बात तेरी गली में न आएँ हम

ये और बात तेरी गली में न आएँ हम
लेकिन ये क्या कि शहर तिरा छोड़ जाएँ हम

मुद्दत हुई है कू-ए-बुताँ की तरफ़ गए
आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम

शायद ब-क़ैद-ए-ज़ीस्त ये साअत न आ सके
तुम दास्तान-ए-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम

बे-नूर हो चुकी है बहुत शहर की फ़ज़ा
तारीक रास्तों में कहीं खो न जाएँ हम

उसके बग़ैर आज बहुत जी उदास है
‘जालिब’ चलो कहीं से उसे ढूँढ़ लाएँ हम

वही हालात हैं फ़क़ीरों के

वही हालात हैं फ़क़ीरों के
दिन फिरे हैं फ़क़त वज़ीरों के

अपना हल्क़ा है हल्क़ा-ए-ज़ँजीर
और हल्क़े हैं सब अमीरों के

हर बिलावल है देस का मक़रूज़
पाँव नँगे हैं बेनज़ीरों के

वही अहल-ए-वफ़ा की सूरत-ए-हाल
वारे न्यारे हैं बे-ज़मीरों के

साज़िशें हैं वही ख़िलाफ़-ए-अवाम
मशवरे हैं वही मुशीरों के

बेड़ियाँ सामराज की हैं वही
वही दिन-रात हैं असीरों के

उस रऊनत से वो जीते हैं कि मरना ही नहीं

उस रऊनत से वो जीते हैं कि मरना ही नहीं
तख़्त पर बैठे हैं यूँ जैसे उतरना ही नहीं

यूँ मह-ओ-अँजुम की वादी में उड़े फिरते हैं वो
ख़ाक के ज़र्रों पे जैसे पाँव धरना ही नहीं

उन का दा’वा है कि सूरज भी उन्ही का है ग़ुलाम
शब जो हम पर आई है उस को गुज़रना ही नहीं

क्या इलाज उस का अगर हो मुद्दआ’ उन का यही
एहतिमाम रँग-ओ-बू गुलशन में करना ही नहीं

ज़ुल्म से हैं बरसर-ए-पैकार आज़ादी-पसन्द
उन पहाड़ों में जहाँ पर कोई झरना ही नहीं

दिल भी उन के हैं सियह ख़ूराक-ए-ज़िन्दाँ की तरह
उन से अपना ग़म बयाँ अब हम को करना ही नहीं

इन्तिहा कर लें सितम की लोग अभी हैं ख़्वाब में
जाग उट्ठे जब लोग तो उन को ठहरना ही नहीं

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था

कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था

आज सोए हैं तह-ए-ख़ाक न जाने यहाँ कितने
कोई शोला कोई शबनम कोई महताब-जबीं था

अब वो फिरते हैं इसी शहर में तन्हा लिए दिल को
इक ज़माने में मिज़ाज उनका सर-ए-अर्श-ए-बरीं था

छोड़ना घर का हमें याद है ‘जालिब’ नहीं भूले
था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िन्दाँ तो नहीं था

तेरी आँखों का अजब तुर्फ़ा समाँ देखा है

तेरी आँखों का अजब तुर्फ़ा समाँ देखा है
एक आलम तिरी जानिब निगराँ देखा है

कितने अनवार सिमट आए हैं इन आँखों में
इक तबस्सुम तिरे होंटों पे रवाँ देखा है

हमको आवारा ओ बेकार समझने वालो
तुमने कब इस बुत-ए-काफ़िर को जवाँ देखा है

सेहन-ए-गुलशन में कि अँजुम की तरब-गाहों में
तुमको देखा है कहीं जाने कहाँ देखा है

वही आवारा ओ दीवाना ओ आशुफ़्ता-मिज़ाज
हम ने ‘जालिब’ को सर-ए-कू-ए-बुताँ देखा है

शेर से शाइरी से डरते हैं 

शेर से शाइरी से डरते हैं
कम-नज़र रौशनी से डरते हैं

लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी
हम तिरी दोस्ती से डरते हैं

दहर में आह-ए-बे-कसाँ के सिवा
और हम कब किसी से डरते हैं

हमको ग़ैरों से डर नहीं लगता
अपने अहबाब ही से डरते हैं

दावर-ए-हश्र बख़्श दे शायद
हाँ, मगर मौलवी से डरते हैं

रूठता है तो रूठ जाए जहाँ
उनकी हम बे-रुख़ी से डरते हैं

हर क़दम पर है मोहतसिब ‘जालिब’
अब तो हम चान्दनी से डरते हैं

शहर वीराँ उदास हैं गलियाँ

शहर वीराँ उदास हैं गलियाँ
रहगुज़ारों से उठ रहा है धुआँ

आतिश-ए-ग़म में जल रहे हैं दयार
गर्द-आलूद है रुख़-ए-दौराँ

बस्तियों पर ग़मों की यूरिश है
क़र्या-क़र्या है वक़्फ़-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ

सुब्ह बे-नूर शाम बे-माया
लुट गई दौलत-ए-निगाह कहाँ

फिर रहे हैं तुयूर आवारा
बर्क़ हर शाख़ पर है शो’ला-फ़िशाँ

मेरी तन्हाइयों पे सूरत-ए-शम्अ’
रो रहा है अलम-नसीब समाँ

मेरे शानों से तेरी ज़ुल्फ़ों तक
फ़ासला उम्र का है मेरी जाँ

फिर दिल से आ रही है सदा उस गली में चल

फिर दिल से आ रही है सदा उस गली में चल
शायद मिले ग़ज़ल का पता उस गली में चल

कबसे नहीं हुआ है कोई शेर काम का
ये शेर की नहीं है फ़ज़ा उस गली में चल

वो बाम ओ दर वो लोग वो रुस्वाइयों के ज़ख़्म
हैं सब के सब अज़ीज़ जुदा उस गली में चल

उस फूल के बग़ैर बहुत जी उदास है
मुझको भी साथ ले के सबा उस गली में चल

दुनिया तो चाहती है यूँही फ़ासले रहें
दुनिया के मशवरों पे न जा उस गली में चल

बे-नूर ओ बे-असर है यहाँ की सदा-ए-साज़
था उस सुकूत में भी मज़ा उस गली में चल

‘जालिब’ पुकारती हैं वो शोला-नवाइयाँ
ये सर्द रुत ये सर्द हवा उस गली में चल

न डगमगाए कभी हम वफ़ा के रस्ते में

न डगमगाए कभी हम वफ़ा के रस्ते में
चराग़ हमने जलाए हवा के रस्ते में

किसे लगाए गले और कहाँ कहाँ ठहरे
हज़ार ग़ुँचा-ओ-गुल हैं सबा के रस्ते में

ख़ुदा का नाम कोई ले तो चौंक उठते हैं
मिले हैं हमको वो रहबर ख़ुदा के रस्ते में

कहीं सलासिल-ए-तस्बीह और कहीं ज़ुन्नार
बिछे हैं दाम बहुत मुद्दआ के रस्ते में

अभी वो मँज़िल-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र नहीं आई
है आदमी अभी जुर्म ओ सज़ा के रस्ते में

हैं आज भी वही दार-ओ-रसन वही ज़िन्दाँ
हर इक निगाह-ए-रुमूज़-आश्ना के रस्ते में

ये नफ़रतों की फ़सीलें जहालतों के हिसार
न रह सकेंगे हमारी सदा के रस्ते में

मिटा सके न कोई सैल-ए-इँक़लाब जिन्हें
वो नक़्श छोड़े हैं हम ने वफ़ा के रस्ते में

ज़माना एक सा ‘जालिब’ सदा नहीं रहता
चलेंगे हम भी कभी सर उठा के रस्ते में

मावरा-ए-जहाँ से आए हैं

मावरा-ए-जहाँ से आए हैं
आज हम ख़ुमसिताँ से आए हैं

इस क़दर बे-रुख़ी से बात न कर
देख तो हम कहाँ से आए हैं

हमसे पूछो चमन पे क्या गुज़री
हम गुज़र कर ख़िज़ाँ से आए हैं

रास्ते खो गए ज़ियाओं में
ये सितारे कहाँ से आए हैं

इस क़दर तो बुरा नहीं ‘जालिब’
मिलके हम उस जवाँ से आए हैं

लोग गीतों का नगर याद आया 

लोग गीतों का नगर याद आया
आज परदेस में घर याद आया

जब चले आए चमन-ज़ार से हम
इल्तिफ़ात-ए-गुल-ए-तर याद आया

तेरी बेगाना-निगाही सर-ए-शाम
ये सितम ता-ब-सहर याद आया

हम ज़माने का सितम भूल गए
जब तिरा लुत्फ़-ए-नज़र याद आया

तो भी मसरूर था इस शब सर-ए-बज़्म
अपने शे’रों का असर याद आया

फिर हुआ दर्द-ए-तमन्ना बेदार
फिर दिल-ए-ख़ाक-बसर याद आया

हम जिसे भूल चुके थे ‘जालिब’
फिर वही राहगुज़र याद आया

कुछ लोग ख़यालों से चले जाएँ तो सोएँ

कुछ लोग ख़यालों से चले जाएँ तो सोएँ
बीते हुए दिन-रात न याद आएँ तो सोएँ

चेहरे जो कभी हम को दिखाई नहीं देंगे
आ-आ के तसव्वुर में न तड़पाएँ तो सोएँ

बरसात की रुत के वो तरब-रेज़ मनाज़िर
सीने में न इक आग सी भड़काएँ तो सोएँ

सुब्हों के मुक़द्दर को जगाते हुए मुखड़े
आँचल जो निगाहों में न लहराएँ तो सोएँ

महसूस ये होता है अभी जाग रहे हैं
लाहौर के सब यार भी सो जाएँ तो सोएँ

यूँ वो ज़ुल्मत से रहा दस्त-ओ-गरेबाँ यारो

यूँ वो ज़ुल्मत से रहा दस्त-ओ-गरेबाँ यारो
उससे लर्ज़ां थे बहुत शब के निगहबाँ यारो

उसने हर-गाम दिया हौसला-ए-ताज़ा हमें
वो न इक पल भी रहा हम से गुरेज़ाँ यारो

उसने मानी न कभी तीरगी-ए-शब से शिकस्त
दिल अन्धेरों में रहा उस का फ़रोज़ाँ यारो

उसको हर हाल में जीने की अदा आती थी
वो न हालात से होता था परेशाँ यारो

उसने बातिल से न ता-ज़ीस्त किया समझौता
दहर में उस-सा कहाँ साहब-ए-ईमाँ यारो

उसको थी कश्मकश-ए-दैर-ओ-हरम से नफ़रत
उस-सा हिन्दू न कोई उस सा मुसलमाँ यारो

उसने सुल्तानी-ए-जम्हूर के नग़्मे लिक्खे
रूह शाहों की रही उस से परेशाँ यारो

अपने अशआ’र की शम्ओं’ से उजाला कर के
कर गया शब का सफ़र कितना वो आसाँ यारो

उसके गीतों से ज़माने को सँवारें यारो
रूह-ए-‘साहिर’ को अगर करना है शादाँ यारो

ये सोच कर न माइल-ए-फ़रियाद हम हुए

ये सोचकर न माइल-ए-फ़रियाद हम हुए
आबाद कब हुए थे कि बर्बाद हम हुए

होता है शाद-काम यहाँ कौन बा-ज़मीर
नाशाद हम हुए तो बहुत शाद हम हुए

परवेज़ के जलाल से टकराए हम भी हैं
ये और बात है कि न फ़रहाद हम हुए

कुछ ऐसे भा गए हमें दुनिया के दर्द-ओ-ग़म
कू-ए-बुताँ में भूली हुई याद हम हुए

‘जालिब’ तमाम उम्र हमें ये गुमाँ रहा
उस ज़ुल्फ़ के ख़याल से आज़ाद हम हुए

वो देखने मुझे आना तो चाहता होगा

वो देखने मुझे आना तो चाहता होगा
मगर ज़माने की बातों से डर गया होगा

उसे था शौक़ बहुत मुझ को अच्छा रखने का
ये शौक़ औरों को शायद बुरा लगा होगा

कभी न हद्द-ए-अदब से बढ़े थे दीदा ओ दिल
वो मुझ से किस लिए किसी बात पर ख़फ़ा होगा

मुझे गुमान है ये भी यक़ीन की हद तक
किसी से भी न वो मेरी तरह मिला होगा

कभी-कभी तो सितारों की छाँव में वो भी
मिरे ख़याल में कुछ देर जागता होगा

वो उस का सादा ओ मासूम वालेहाना-पन
किसी भी जुग में कोई देवता भी क्या होगा

नहीं वो आया तो ‘जालिब’ गिला न कर उस का
न-जाने क्या उसे दरपेश मसअला होगा

उसने जब हँस के नमस्कार किया

उसने जब हँस के नमस्कार किया
मुझ को इनसान से अवतार किया

दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-वीराँ ने
याद जमुना को कई बार किया

प्यार की बात न पूछो यारो
हम ने किस-किस से नहीं प्यार किया

कितनी ख़्वाबीदा तमन्नाओं को
उसकी आवाज़ ने बेदार किया

हम पुजारी हैं बुतों के ‘जालिब’
हमने का’बे में भी इक़रार किया

उस गली के लोगों को मुँह लगा के पछताए 

उस गली के लोगों को मुँह लगा के पछताए
एक दर्द की ख़ातिर कितने दर्द अपनाए

थक के सो गया सूरज शाम के धुँदलकों में
आज भी कई ग़ुँचे फूल बन के मुरझाए

हम हँसे तो आँखों में तैरने लगी शबनम
तुम हँसे तो गुलशन ने तुम पे फूल बरसाए

उस गली में क्या खोया उस गली में क्या पाया
तिश्ना-काम पहुँचे थे तिश्ना-काम लौट आए

फिर रही हैं आँखों में तेरे शहर की गलियाँ
डूबता हुआ सूरज फैलते हुए साए

‘जालिब’ एक आवारा उलझनों का गहवारा
कौन उस को समझाए कौन उस को सुलझाए

तू रंग है ग़ुबार हैं तेरी गली के लोग

तू रँग है ग़ुबार हैं तेरी गली के लोग
तो फूल है शरार हैं तेरी गली के लोग

तो रौनक़-ए-हयात है तो हुस्न-ए-काएनात
उजड़ा हुआ दयार हैं तेरी गली के लोग

तू पैकर-ए-वफ़ा है मुजस्सम ख़ुलूस है
बदनाम-ए-रोज़गार हैं तेरी गली के लोग

रौशन तिरे जमाल से हैं मेहर-ओ-माह भी
लेकिन नज़र पे बार हैं तेरी गली के लोग

देखो जो ग़ौर से तो ज़मीं से भी पस्त हैं
यूँ आसमाँ-शिकार हैं तेरी गली के लोग

फिर जा रहा हूँ तेरे तबस्सुम को लूट कर
हर-चन्द होशियार हैं तेरी गली के लोग

खो जाएँगे सहर के उजालों में आख़िरश
शम्अ’ सर-ए-मज़ार हैं तेरी गली के लोग

तिरे माथे पे जब तक बल रहा है

तिरे माथे पे जब तक बल रहा है
उजाला आँख से ओझल रहा है

समाते क्या नज़र में चान्द-तारे
तसव्वुर में तिरा आँचल रहा है

तिरी शान-ए-तग़ाफ़ुल को ख़बर क्या
कोई तेरे लिए बे-कल रहा है

शिकायत है ग़म-ए-दौराँ को मुझ से
कि दिल में क्यूँ तिरा ग़म पल रहा है

तअज्जुब है सितम की आँधियों में
चराग़-ए-दिल अभी तक जल रहा है

लहू रोएँगी मग़रिब की फ़ज़ाएँ
बड़ी तेज़ी से सूरज ढल रहा है

ज़माना थक गया ‘जालिब’ ही तन्हा
वफ़ा के रास्ते पर चल रहा है

शे’र होता है अब महीनों में

शे’र होता है अब महीनों में
ज़िन्दगी ढल गई मशीनों में

प्यार की रौशनी नहीं मिलती
उन मकानों में उन मकीनों में

देखकर दोस्ती का हाथ बढ़ाओ
साँप होते हैं आस्तीनों में

क़हर की आँख से न देख इन को
दिल धड़कते हैं आबगीनों में

आसमानों की ख़ैर हो यारब
इक नया अज़्म है ज़मीनों में

वो मोहब्बत नहीं रही ‘जालिब’
हम-सफ़ीरों में हम-नशीनों में

फिर कभी लौटकर न आएँगे 

फिर कभी लौटकर न आएँगे
हम तिरा शहर छोड़ जाएँगे

दूर-उफ़्तादा बस्तियों में कहीं
तेरी यादों से लौ लगाएँगे

शम-ए-माह-ओ-नुजूम गुल कर के
आँसुओं के दिए जलाएँगे

आख़िरी बार इक ग़ज़ल सुन लो
आख़िरी बार हम सुनाएँगे

सूरत-ए-मौजा-ए-हवा ‘जालिब’
सारी दुनिया की ख़ाक उड़ाएँगे

नज़र-नज़र में लिए तेरा प्यार फिरते हैं

नज़र-नज़र में लिए तेरा प्यार फिरते हैं
मिसाल-ए-मौज-ए-नसीम-ए-बहार फिरते हैं

तिरे दयार से ज़र्रों ने रौशनी पाई
तिरे दयार में हम सोगवार फिरते हैं

ये हादिसा भी अजब है कि तेरे दीवाने
लगाए दिल से ग़म-ए-रोज़गार फिरते हैं

लिए हुए हैं दो आलम का दर्द सीने में
तिरी गली में जो दीवाना-वार फिरते हैं

बहार आ के चली भी गई मगर ‘जालिब’
अभी निगाह में वो लाला-ज़ार फिरते हैं

‘मीर’-ओ-‘ग़ालिब’ बने ‘यगाना’ बने 

‘मीर’-ओ-‘ग़ालिब’ बने ‘यगाना’ बने
आदमी ऐ ख़ुदा ख़ुदा न बने

मौत की दस्तरस में कबसे हैं
ज़िन्दगी का कोई बहाना बने

अपना शायद यही था जुर्म ऐ दोस्त
बा-वफ़ा बन के बे-वफ़ा न बने

हमपे इक ए’तिराज़ ये भी है
बे-नवा हो के बे-नवा न बने

ये भी अपना क़ुसूर क्या कम है
किसी क़ातिल के हम-नवा न बने

क्या गिला सँग-दिल ज़माने का
आश्ना ही जब आश्ना न बने

छोड़ कर उस गली को ऐ ‘जालिब’
इक हक़ीक़त से हम फ़साना बने

महताब-सिफ़त लोग यहाँ ख़ाक-बसर हैं

महताब-सिफ़त लोग यहाँ ख़ाक-बसर हैं
हम महव-ए-तमाशा-ए-सर-ए-राह-गुज़र हैं

हसरत सी बरसती है दर-ओ-बाम पे हर सू
रोती हुई गलियाँ हैं सिसकते हुए घर हैं

आए थे यहाँ जिन के तसव्वुर के सहारे
वो चान्द वो सूरज वो शब-ओ-रोज़ किधर हैं

सोए हो घनी ज़ुल्फ़ के साए में अभी तक
ऐ राह-रवाँ क्या यही अंदाज़-ए-सफ़र हैं

वो लोग क़दम जिनके लिए काहकशाँ ने
वो लोग भी ऐ हम-नफ़सो हम से बशर हैं

बिक जाएँ जो हर शख़्स के हाथों सर-ए-बाज़ार
हम यूसुफ़-ए-कनआँ’ हैं न हम लाल-ओ-गुहर हैं

हम लोग मिलेंगे तो मोहब्बत से मिलेंगे
हम नुज़हत-ए-महताब हैं हम नूर-ए-सहर हैं

क्या-क्या लोग गुज़र जाते हैं रँग-बिरँगी कारों में 

क्या-क्या लोग गुज़र जाते हैं रँग-बिरँगी कारों में
दिल को थाम के रह जाते हैं दिल वाले बाज़ारों में

ये बे-दर्द ज़माना हम से तेरा दर्द न छीन सका
हमने दिल की बात कही है तीरों में तलवारों में

होंटों पर आहें क्यूँ होतीं आँखें निस-दिन क्यूँ रोतीं
कोई अगर अपना भी होता ऊँचे ओहदे-दारों में

सद्र-ए-महफ़िल दाद जिसे दे दाद उसी को मिलती है
हाए कहाँ हम आन फँसे हैं ज़ालिम दुनिया-दारों में

रहने को घर भी मिल जाता चाक-ए-जिगर भी सिल जाता
‘जालिब’ तुम भी शेर सुनाते जा के अगर दरबारों में

.

कितना सुकूत है रसन-ओ-दार की तरफ़

कितना सुकूत है रसन-ओ-दार की तरफ़
आता है कौन जुरअत-ए-इज़हार की तरफ़

दश्त-ए-वफ़ा में आबला-पा कोई अब नहीं
सब जा रहे हैं साया-ए-दीवार की तरफ़

क़स्र-ए-शही से कहते हैं निकलेगा मेहर-ए-नौ
अहल-ए-ख़िरद हैं इस लिए सरकार की तरफ़

वित्नाम-ओ-कोरिया से अदू को निकाल लें
आएँगे लौटकर लब-ओ-रुख़्सार की तरफ़

बाक़ी जहाँ में रह गया ‘ग़ालिब’ का नाम ही
हर-चन्द इक हुजूम था अग़्यार की तरफ़

कौन बताए कौन सुझाए कौन से देस सिधार गए

कौन बताए कौन सुझाए कौन से देस सिधार गए
उन का रस्ता तकते तकते नैन हमारे हार गए

काँटों के दुख सहने में तस्कीन भी थी आराम भी था
हँसने वाले भोले-भाले फूल चमन के मार गए

एक लगन की बात है जीवन एक लगन ही जीवन है
पूछ न क्या खोया क्या पाया क्या जीते क्या हार गए

आने वाली बरखा देखें क्या दिखलाए आँखों को
ये बरखा बरसाते दिन तो बिन प्रीतम बे-कार गए

जब भी लौटे प्यार से लौटे फूल न पा कर गुलशन में
भँवरे अमृत रस की धुन में पल पल सौ सौ बार गए

हम से पूछो साहिल वालो क्या बीती दुखियारों पर
खेवन-हारे बीच भँवर में छोड़ के जब उस पार गए

कम पुराना बहुत नया था फ़िराक़

कम पुराना बहुत नया था फ़िराक़
इक अजब रम्ज़-आशना था फ़िराक़

दूर वो कब हुआ निगाहों से
धड़कनों में बसा हुआ है फ़िराक़

शाम-ए-ग़म के सुलगते सहरा में
इक उमंडती हुई घटा था फ़िराक़

अम्न था प्यार था मोहब्बत था
रंग था नूर था नवा था फ़िराक़

फ़ासले नफ़रतों के मिट जाएँ
प्यार ही प्यार सोचता था फ़िराक़

हम से रँज-ओ-अलम के मारों को
किस मोहब्बत से देखता था फ़िराक़

इश्क़ इनसानियत से था उस को
हर तअ’स्सुब से मावरा था फ़िराक़

कहीं आह बन के लब पर तिरा नाम आ न जाए

कहीं आह बन के लब पर तिरा नाम आ न जाए
तुझे बेवफ़ा कहूँ मैं वो मक़ाम आ न जाए

ज़रा ज़ुल्फ़ को सँभालो मिरा दिल धड़क रहा है
कोई और ताइर-ए-दिल तह-ए-दाम आ न जाए

जिसे सुन के टूट जाए मिरा आरज़ू भरा दिल
तिरी अंजुमन से मुझ को वो पयाम आ न जाए

वो जो मंज़िलों पे ला कर किसी हम-सफ़र को लूटें
उन्हीं रहज़नों में तेरा कहीं नाम आ न जाए

इसी फ़िक्र में हैं ग़लताँ ये निज़ाम-ए-ज़र के बंदे
जो तमाम-ए-ज़िंदगी है वो निज़ाम आ न जाए

ये मह ओ नुजूम हँस लें मिरे आँसुओं पे ‘जालिब’
मिरा माहताब जब तक लब-ए-बाम आ न जाए

जीवन मुझ से मैं जीवन से शरमाता हूँ

जीवन मुझ से मैं जीवन से शरमाता हूँ
मुझ से आगे जाने वालो में आता हूँ

जिन की यादों से रौशन हैं मेरी आँखें
दिल कहता है उन को भी मैं याद आता हूँ

सुर से साँसों का नाता है तोड़ूँ कैसे
तुम जलते हो क्यूँ जीता हूँ क्यूँ गाता हूँ

तुम अपने दामन में सितारे बैठ कर टाँको
और मैं नए बरन लफ़्ज़ों को पहनाता हूँ

जिन ख़्वाबों को देख के मैं ने जीना सीखा
उन के आगे हर दौलत को ठुकराता हूँ

ज़हर उगलते हैं जब मिल कर दुनिया वाले
मीठे बोलों की वादी में खो जाता हूँ

‘जालिब’ मेरे शेर समझ में आ जाते हैं
इसी लिए कम-रुत्बा शाएर कहलाता हूँ

जागने वालो ता-ब-सहर ख़ामोश रहो

जागने वालो ता-ब-सहर ख़ामोश रहो
कल क्या होगा किस को ख़बर ख़ामोश रहो

किस ने सहर के पाँव में ज़ंजीरें डालीं
हो जाएगी रात बसर ख़ामोश रहो

शायद चुप रहने में इज़्ज़त रह जाए
चुप ही भली ऐ अहल-ए-नज़र ख़ामोश रहो

क़दम क़दम पर पहरे हैं इन राहों में
दार-ओ-रसन का है ये नगर ख़ामोश रहो

यूँ भी कहाँ बे-ताबी-ए-दिल कम होती है
यूँ भी कहाँ आराम मगर ख़ामोश रहो

शेर की बातें ख़त्म हुईं इस आलम में
कैसा ‘जोश’ और किस का ‘जिगर’ ख़ामोश रहो

इस शहर-ए-ख़राबी में ग़म-ए-इश्क़ के मारे 

इस शहर-ए-ख़राबी में ग़म-ए-इश्क़ के मारे
ज़िन्दा हैं यही बात बड़ी बात है प्यारे

ये हँसता हुआ चाँद ये पुर-नूर सितारे
ताबिंदा ओ पाइंदा हैं ज़र्रों के सहारे

हसरत है कोई ग़ुँचा हमें प्यार से देखे
अरमाँ है कोई फूल हमें दिल से पुकारे

हर सुब्ह मिरी सुब्ह पे रोती रही शबनम
हर रात मिरी रात पे हँसते रहे तारे

कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ
कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे

हमने सुना था सहन-ए-चमन में कैफ़ के बादल छाए हैं

हमने सुना था सहन-ए-चमन में कैफ़ के बादल छाए हैं
हम भी गए थे जी बहलाने अश्क बहा कर आए हैं

फूल खिले तो दिल मुरझाए शम्अ’ जले तो जान जले
एक तुम्हारा ग़म अपना कर कितने ग़म अपनाए हैं

एक सुलगती याद चमकता दर्द फ़रोज़ाँ तन्हाई
पूछ न उस के शहर से हम क्या क्या सौग़ातें लाए हैं

सोए हुए जो दर्द थे दिल में आँसू बन कर बह निकले
रात सितारों की छाँव में याद वो क्या क्या आए हैं

आए भी सूरज डूब गया बे-नूर उफ़ुक़ के सागर में
आज भी फूल चमन में तुझ को बिन देखे मुरझाए हैं

एक क़यामत का सन्नाटा एक बला की तारीकी
उन गलियों से दूर न हँसता चाँद न रौशन साए हैं

प्यार की बोली बोल न ‘जालिब’ इस बस्ती के लोगों से
हम ने सुख की कलियाँ खो कर दुख के काँटे पाए हैं

हम आवारा गाँव-गाँव बस्ती-बस्ती फिरने वाले

हम आवारा गाँव-गाँव बस्ती-बस्ती फिरने वाले
हम से प्रीत बढ़ा कर कोई मुफ़्त में क्यूँ ग़म को अपना ले

ये भीगी-भीगी बरसातें ये महताब ये रौशन रातें
दिल ही न हो तो झूटी बातें क्या अन्धियारे क्या उजियाले

ग़ुँचे रोएँ कलियाँ रोएँ रो-रो अपनी आँखें खोएँ
चैन से लम्बी तान के सोएँ इस फुलवारी के रखवाले

दर्द-भरे गीतों की माला जपते-जपते जीवन गुज़रा
किस ने सुनी हैं कौन सुनेगा दिल की बातें दिल के नाले

हर-गाम पर थे शम्स-ओ-क़मर उस दयार में

हर-गाम पर थे शम्स-ओ-क़मर उस दयार में
कितने हसीं थे शाम-ओ-सहर उस दयार में

वो बाग़ वो बहार वो दरिया वो सब्ज़ा-ज़ार
नश्शों से खेलती थी नज़र उस दयार में

आसान था सफ़र कि हर इक राहगुज़र पर
मिलते थे साया-दार शजर उस दयार में

हर-चन्द थी वहाँ भी ख़िज़ाँ की उदास धूप
दिल पर नहीं था ग़म का असर उस दयार में

महसूस हो रहा था सितारे हैं गर्द-ए-राह
हम थे हज़ार ख़ाक-बसर उस दयार में

‘जालिब’ यहाँ तो बात गरेबाँ तक आ गई
रखते थे सिर्फ़ चाक-जिगर उस दयार में

ग़ज़लें तो कही हैं कुछ हमने उनसे न कहा अहवाल तो क्या 

ग़ज़लें तो कही हैं कुछ हमने उनसे न कहा अहवाल तो क्या
कल मिस्ल-ए-सितारा उभरेंगे हैं आज अगर पामाल तो क्या

जीने की दुआ देने वाले ये राज़ तुझे मा’लूम नहीं
तख़्लीक़ का इक लम्हा है बहुत बे-कार जिए सौ साल तो क्या

सिक्कों के एवज़ जो बिक जाए वो मेरी नज़र में हुस्न नहीं
ऐ शम-ए-शबिस्तान-ए-दौलत तू है जो परी-तिमसाल तो क्या

हर फूल के लब पर नाम मिरा चर्चा है चमन में आम मिरा
शोहरत की ये दौलत क्या कम है गर पास नहीं है माल तो क्या

हम ने जो किया महसूस कहा जो दर्द मिला हंस-हंस के सहा
भूलेगा न मुस्तक़बिल हम को नालाँ है जो हम से हाल तो क्या

हम अहल-ए-मोहब्बत पा लेंगे अपने ही सहारे मंज़िल को
यारान-ए-सियासत ने हर-सू फैलाए हैं रंगीं जाल तो क्या

दुनिया-ए-अदब में ऐ ‘जालिब’ अपनी भी कोई पहचान तो हो
‘इक़बाल’ का रंग उड़ाने से तू बन भी गया ‘इक़बाल’ तो क्या

घर के ज़िन्दाँ से उसे फ़ुर्सत मिले तो आए भी

घर के ज़िन्दाँ से उसे फ़ुर्सत मिले तो आए भी
जाँ-फ़ज़ा बातों से आ के मेरा दिल बहलाए भी

लग के ज़िन्दाँ की सलाख़ों से मुझे वो देख ले
कोई ये पैग़ाम मेरा उस तलक पहुँचाए भी

एक चेहरे को तरसती हैं निगाहें सुब्ह ओ शाम
ज़ौ-फ़िशाँ ख़ुर्शीद भी है चाँदनी के साए भी

सिसकियाँ लेती हवाएँ फिर रही हैं देर से
आँसुओं की रुत मिरे अब गुलिस्ताँ से जाए भी

रोज़ हँसता है सलीबों से उधर माह-ए-मुनीर
उस के पीछे कौन है वो छब मुझे दिखलाए भी

दिल की बात लबों पर लाकर

दिल की बात लबों पर लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं|
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं|

बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदली,
लेकिन इन प्यासी आँखों में अब तक आँसू बहते हैं|

एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं,
दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं|

जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए,
आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं|

वो जो अभी रहगुज़र से, चाक-ए-गरेबाँ गुज़रा था,
उस आवारा दीवाने को ‘ज़लिब’-‘ज़लिब’ कहते हैं|

नन्ही जा सो जा

जब देखो तो पास खड़ी है नन्ही जा सो जा
तुझे बुलाती है सपनों की नगरी जा सो जा

ग़ुस्से से क्यूँ घूर रही है मैं आ जाऊँगा
कह जो दिया है तेरे लिए इक गुड़िया लाऊँगा
गई न ज़िद करने की आदत तेरी जा सो जा
नन्ही जा सो जा

इन काले दरवाज़ों से मत लग के देख मुझे
उड़ जाती है नींद आँखों से पा कर पास तुझे
मुझ को भी सोने दे मेरी प्यारी जा सो जा
नन्ही जा सो जा

क्यूँ अपनों और बेगानों के शिकवे करती है
क्यूँ आँखों में आँसू ला कर आहें भरती है
रोने से कब रात कटी है दुख की जा सो जा
नन्ही जा सो जा

नीलो

तू कि ना-वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-शहँशाही थी
रक़्स ज़ंजीर पहन कर भी किया जाता है
तुझ को इनकार की जुरअत जो हुई तो क्यूँकर
साया-ए-शाह में इस तरह जिया जाता है

अहल-ए-सर्वत की ये तज्वीज़ है सरकश लड़की
तुझ को दरबार में कोड़ों से नचाया जाए
नाचते-नाचते हो जाए जो पायल ख़ामोश
फिर न ता-ज़ीस्त तुझे होश में लाया जाए

लोग इस मँज़र-ए-जाँकाह को जब देखेंगे
और बढ़ जाएगा कुछ सतवत-ए-शाही का जलाल
तेरे अँजाम से हर शख़्स को इबरत होगी
सर उठाने का रेआया को न आएगा ख़याल

तब्-ए-शाहाना पे जो लोग गिराँ होते हैं
हाँ उन्हें ज़हर भरा जाम दिया जाता है
तू कि ना-वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-शहंशाही थी
रक़्स ज़ँजीर पहन कर भी किया जाता है

‘नूर-जहाँ’ 

हुजूम-ए-यास में जोत आस की तिरी आवाज़
हम अहल-ए-दर्द की है ज़िंदगी तिरी आवाज़

लबों पे खिलते रहें फूल शेर-ओ-नग़्मा के
फ़ज़ा में रंग बिखेरे यूँही तिरी आवाज़
दयार-ए-दीदा-ओ-दिल में है रौशनी तुझ से
है चेहरा चाँद मधुर चाँदनी तिरी आवाज़

हो नाज़ क्यूँ न मुक़द्दर पे अपने ‘नूर-जहाँ’
तुझे क़रीब से देखा सुनी तिरी आवाज़
न मिट सकेगा तिरा नाम रहती दुनिया तक
रहेगी यूँही सदा गूँजती तिरी आवाज़

पाकिस्तान का मतलब क्या?

रोटी, कपड़ा और दवा
घर रहने को छोटा-सा
मुफ़्त मुझे तालीम दिला
मैं भी मुसलमाँ हूँ वल्लाह
पाकिस्तान का मतलब क्या ?
ला इल्लाह इल्लालह…

अमरीका से माँग न भीक
मत कर लोगों की तज़हीक
रोक न जम्हूरी तहरीक
छोड़ न आज़ादी की राह
पाकिस्तान का मतलब है क्या ?
ला इल्लाह इल्लालह…

खेत वडेरों से ले लो
मिलें लुटेरों से ले लो
मुल्क अंधेरों से ले लो
रहे न कोई आलीजाह
पाकिस्तान का मतलब क्या ?
ला इल्लाह इल्लालह…

सरहद, सिंध, बलूचिस्तान
तीनों हैं पंजाब की जान
और बंगाल है सब की आन
आए न उन के लब पर आह
पाकिस्तान का मतलब क्या ?
ला इल्लाह इल्लालह…

बात यही है बुनियादी
ग़ासिब की हो बरबादी
हक़ कहते हैं हक़ आगाह
पाकिस्तान का मतलब क्या ?
ला इल्लाह इल्लालह…

फ़िरंगी का दरबान

फ़िरंगी का जो मैं दरबान होता
तो जीना किस क़दर आसान होता

मेरे बच्चे भी अमरीका में पढ़ते
मैं हर गर्मी में इंग्लिस्तान होता

मेरी इंग्लिश बला की चुस्त होती
बला से जो न उर्दू दान होता

झुका के सर को हो जाता जो ‘सर’ मैं
तो लीडर भी अज़ीमुश्शान होता

ज़मीनें मेरी हर सूबें में होतीं
मैं वल्लाह सदर-ए पाकिस्तान होता

बगिया लहूलुहान 

हरियाली को आँखे तरसें बगिया लहूलुहान
प्यार के गीत सुनाऊँ किसको शहर हुए वीरान
बगिया लहूलुहान ।

डसती हैं सूरज की किरनें चाँद जलाए जान
पग-पग मौन के गहरे साए जीवन मौत समान
चारों ओर हवा फिरती है लेकर तीर-कमान
बगिया लहूलुहान ।

छलनी हैं कलियों के सीने खून में लतपत पात
और न जाने कब तक होगी अश्कों की बरसात
दुनियावालों कब बीतेंगे दुख के ये दिन-रात
ख़ून से होली खेल रहे हैं धरती के बलवान
बगिया लहू लुहान ।

बातों दी सरकार (पंजाबी) 

डाकुआँ दा जे साथ न दिंदा पिंड दा पहरेदार
अज पैरें ज़ंजीर ना हुंद जित ना हुंदी हार
पग्गन अपने गल विच पा लो तुरो पेट दे भार
छड जाए ते मुश्किल लेहंदी बातों दी सरकार ।

बीस घराने 

बीस घराने हैं आबाद
और करोड़ों हैं नाशाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद

आज भी हम पर जारी है
काली सदियों की बेदाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद

बीस रूपय्या मन आटा
इस पर भी है सन्नाटा
गौहर, सहगल, आदमजी
बने हैं बिरला और टाटा
मुल्क के दुश्मन कहलाते हैं
जब हम करते हैं फ़रियाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद

लाइसेंसों का मौसम है
कंवेंशन को क्या ग़म है
आज हुकूमत के दर पर
हर शाही का सर ख़म है
दर्से ख़ुदी देने वालों को
भूल गई इक़बाल की याद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद

आज हुई गुंडागर्दी
चुप हैं सिपाही बावर्दी
शम्मे नवाये अहले सुख़न
काले बाग़ ने गुल कर दी
अहले क़फ़स की कैद बढ़ाकर
कम कर ली अपनी मीयाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद

ये मुश्ताके इसतम्बूल
क्या खोलूँ मैं इनका पोल
बजता रहेगा महलों में
कब तक ये बेहंगम ढोल
सारे अरब नाराज़ हुए हैं
सीटो और सेंटों हैं शाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद
गली गली में जंग हुई
ख़िल्क़त देख के दंग हुई
अहले नज़र की हर बस्ती
जेहल के हाथों तंग हुई
वो दस्तूर[1] हमें बख़्शा है
नफ़रत है जिसकी बुनियाद
सद्र अय्यूब ज़िन्दाबाद

भए कबीर उदास

इक पटरी पर सर्दी में अपनी तक़दीर को रोए
दूजा जुल्फ़ों की छाँव में सुख की सेज पे सोए
राज सिंहासन पर इक बैठा और इक उसका दास
भए कबीर उदास ।

ऊँचे-ऊँचे ऐवानों में मूरख हुकम चलाएँ
क़दम-क़दम पर इस नगरी में पंडित धक्के खाएँ
धरती पर भगवान बने हैं धन है जिनके पास
भए कबीर उदास ।

गीत लिखाएँ, पैसे ना दें फिल्म नगर के लोग
उनके घर बाजे शहनाई, लेखक के घर सोग
गायक सुर में क्योंकर गाए, क्यों ना काटे घास
भए कबीर उदास ।

कल तक जो था हाल हमारा हाल वही हैं आज
‘जालिब’ अपने देस में सुख का काल वही है आज
फिर भी मोची गेट पे लीडर रोज़ करे बकवास
भए कबीर उदास ।

मता-ए-ग़ैर

आख़िर-ए-कार ये साअत भी क़रीब आ पहुँची
तू मिरी जान किसी और की हो जाएगी
कल तलक मेरा मुक़द्दर थी तिरी ज़ुल्फ़ की शाम
क्या तग़य्युर है कि तू ग़ैर की कहलाएगी
मेरे ग़म-ख़ाने में तू अब न कभी आएगी

तेरी सहमी हुई मासूम निगाहों की ज़बाँ
मेरी महबूब कोई अजनबी क्या समझेगा
कुछ जो समझा भी तो इस ऐन-ख़ुशी के हंगाम
तेरी ख़ामोश निगाही को हया समझेगा
तेरे बहते हुए अश्कों को अदा समझेगा

मेरी दम-साज़ ज़माने से चली आती हैं
रेहन-ए-ग़म वक़्फ़-ए-अलम सादा-दिलों की आँखें
ये नया ज़ुल्म नहीं प्यार के मत्वालों पर
हम ने देखीं यूँही नम सादा-दिलों की आँखें
और रो लें कोई दम सादा-दिलों की आँखें

मल्का-ए-तरन्नुम नूर-ए-जहाँ की नज़्र 

नग़्मा भी है उदास तो सर भी है बे-अमाँ
रहने दो कुछ तो नूर अँधेरों के दरमियाँ

इक उम्र जिस ने चैन दिया इस जहान को
लेने दो सुख का साँस उसे भी सर-ए-जहाँ

तय्यार कौन है जो मुझे बाज़ुओं में ले
इक ये नवा न हो तो कहो जाऊँ मैं कहाँ

अगले जहाँ से मुझ को यही इख़्तिलाफ़ है
ये सूरतें ये गीत सदाएँ कहाँ वहाँ

ये है अज़ल से और रहेगा ये ता-अबद
तुम से न जल सकेगा तरन्नुम का आशियाँ.

माँ

बच्चों पे चली गोली
माँ देख के यह बोली
यह दिल के मेरे टुकड़े
यूँ रोए मेरे होते
मैं दूर खड़ी देखूँ
ये मुझ से नहीं होगा

मैं दूर खड़ी देखूँ
और अहल-ए सितम खेलें
ख़ून से मेरे बच्चों के
दिन-रात यहाँ होली
बच्चों पे चली गोली
माँ देख के यह बोली
यह दिल के मेरे टुकड़े
यूँ रोए मेरे होते
मैं दूर खड़ी देखूँ
ये मुझ से नहीं होगा

मैदान में निकल आई
इक बर्क़-सी लहराई
हर दस्त-ए सितम कपड़ा
बंदूक भी ठहराई
हर सिम्त सदा गूँजी
मैं आती हूँ, मैं आई
मैं आती हूँ, मैं आई

हर ज़ुल्म हुआ बातिल
और सहम गए क़ातिल
जब उसने ज़बाँ खोली
बच्चों पे चली गोली
उस ने कहा ख़ून ख़्वारो !
दौलत के परस्तारो
धरती है यह हम सब की
इस धरती को नादानो
अंग्रेज़ों के दरबानो !
साहेब की अता करदाह
जागीर न तुम जानो
इस ज़ुल्म से बाज़ आओ
बैरक में चले जाओ
क्यों चंद लुटेरों की
फिरते हो लिए टोली
बच्चों पे चली गोली

मीरा-जी

गीत क्या-क्या लिख गया क्या-क्या फ़साने कह गया
नाम यूँही तो नहीं उस का अदब में रह गया

एक तन्हाई रही उस की अनीस-ए-ज़िन्दगी
कौन जाने कैसे कैसे दुख वो तन्हा सह गया

सोज़ ‘मीरा’ का मिला जी को तो मीरा-जी बना
दिल-नशीं लिक्खे सुख़न और धड़कनों में रह गया

दर्द जितना भी उसे बेदर्द दुनिया से मिला
शायरी में ढल गया कुछ आँसुओं में बह गया

इक नई छब से जिया वो इक अजब ढब से जिया
आँख उठा कर जिस ने देखा देखता ही रह गया

उस से आगे कोई भी जाने नहीं पाया अभी
नक़्श बन के रह गया जो उस की रौ में बह गया

मुम्ताज़

क़स्र-ए-शाही से ये हुक्म सादिर हुआ, लाड़काने चलो
वर्ना थाने चलो

अपने होंटों की ख़ुश्बू लुटाने चलो, गीत गाने चलो
वर्ना थाने चलो

मुन्तज़िर हैं तुम्हारे शिकारी वहाँ,
कैफ़ का है समाँ
अपने जल्वों से महफ़िल सजाने चलो मुस्कुराने चलो
वर्ना थाने चलो

हाकिमों को बहुत तुम पसन्द आई हो,
ज़ेहन पर छाई हो
जिस्म की लौ से शमएँ जलाने चलो, ग़म भुलाने चलो
वर्ना थाने चलो

मेरी बच्ची

 मेरी बच्ची मैं आऊँ न आऊँ

आने वाला ज़माना है तेरा
तेरे नन्हे से दिल को दुखों ने
मैं ने माना कि है आज घेरा
आने वाला ज़माना है तेरा

तेरी आशा की बगिया खिलेगी
चाँद की तुझ को गुड़िया मिलेगी
तेरी आँखों में आँसू न होंगे
ख़त्म होगा सितम का अँधेरा
आने वाला ज़माना है तेरा

दर्द की रात है कोई दम की
टूट जाएगी ज़ँजीर ग़म की
मुस्कुराएगी हर आस तेरी
ले के आएगा ख़ुशियाँ सवेरा
आने वाला ज़माना है तेरा

सच की राहों में जो मर गए हैं
फ़ासले मुख़्तसर कर गए हैं
दुख न झेलेंगे हम मुँह छुपा के
सुख न लूटेगा कोई लुटेरा
आने वाला ज़माना है तेरा

मुलाक़ात

जो हो न सकी बात वो चेहरों से अयाँ थी
हालात का मातम था मुलाक़ात कहाँ थी
उस ने न ठहरने दिया पहरों मिरे दिल को
जो तेरी निगाहों में शिकायत मिरी जाँ थी

घर में भी कहाँ चैन से सोए थे कभी हम
जो रात है ज़िन्दाँ में वही रात वहाँ थी
यकसाँ हैं मिरी जान क़फ़स और नशेमन
इंसान की तौक़ीर यहाँ है न वहाँ थी

शाहों से जो कुछ रब्त न क़ाएम हुआ अपना
आदत का भी कुछ जब्र था कुछ अपनी ज़बाँ थी
सय्याद ने यूँही तो क़फ़स में नहीं डाला
मशहूर गुलिस्ताँ में बहुत मेरी फ़ुग़ाँ थी

तू एक हक़ीक़त है मिरी जाँ मिरी हमदम
जो थी मिरी ग़ज़लों में वो इक वहम-ओ-गुमाँ थी
महसूस किया मैं ने तिरे ग़म से ग़म-ए-दहर
वर्ना मिरे अशआर में ये बात कहाँ थी

मुशीर

मुशीर[1]
मैंने उससे ये कहा
ये जो दस करोड़ हैं
जेहल का निचोड़ हैं

इनकी फ़िक्र सो गई
हर उम्मीद की किस
ज़ुल्मतों[2] में खो गई

ये खबर दुरुस्त है
इनकी मौत हो गई
बे शऊर लोग हैं
ज़िन्दगी का रोग हैं
और तेरे पास है
इनके दर्द की दवा

मैंने उससे ये कहा

तू ख़ुदा का नूर है
अक्ल है शऊर है
क़ौम तेरे साथ है
तेरे ही वज़ूद से
मुल्क की नजात है
तू है मेहरे सुबहे नौ[3]
तेरे बाद रात है
बोलते जो चंद हैं
सब ये शर पसंद[4] हैं
इनकी खींच ले ज़बाँ
इनका घोंट दे गला

मैंने उससे ये कहा

जिनको था ज़बाँ पे नाज़
चुप हैं वो ज़बाँ-दराज़
चैन है समाज में
वे मिसाल फ़र्क है
कल में और आज में
अपने खर्च पर हैं क़ैद
लोग तेरे राज में
आदमी है वो बड़ा
दर पे जो रहे पड़ा
जो पनाह माँग ले
उसकी बख़्श दे ख़ता

मैंने उससे ये कहा

हर वज़ीर हर सफ़ीर
बेनज़ीर[5] है मुशीर
वाह क्या जवाब है
तेरे जेहन की क़सम
ख़ूब इंतेख़ाब है
जागती है अफ़सरी
क़ौम महवे ख़ाब है
ये तेरा वज़ीर खाँ
दे रहा है जो बयाँ
पढ़ के इनको हर कोई
कह रहा है मरहबा

मैंने उससे ये कहा

चीन अपना यार है
उस पे जाँ निसार है
पर वहाँ है जो निज़ाम
उस तरफ़ न जाइयो
उसको दूर से सलाम
दस करोड़ ये गधे[6]
जिनका नाम है अवाम
क्या बनेंगे हुक्मराँ
तू “चक़ीं” ये “गुमाँ”
अपनी तो दुआ है ये
सद्र तू रहे सदा

मैंने उससे ये कहा

मुस्तक़बिल

मुस्तक़बिल[1]

तेरे लिए मैं क्या-क्या सदमे सहता हूँ
संगीनों के राज में भी सच कहता हूँ
मेरी राह में मस्लहतों के फूल भी हैं
तेरी ख़ातिर काँटे चुनता रहता हूँ

तू आएगा इसी आस में झूम रहा है दिल
देख ऐ मुस्तक़बिल ।

इक-इक करके सारे साथी छोड़ गए
मुझसे मेरे रहबर भी मुँह मोड़ गए
सोचता हूँ बेकार गिला है ग़ैरों का
अपने ही जब प्यार का नाता तोड़ गए

तेरे दुश्मन हैं मेरे ख़्वाबों के क़ातिल
देख ऐ मुस्तक़बिल ।

जेहल के आगे सर न झुकाया मैंने कभी
सिफ़्लों[2] को अपना न बनाया मैंने कभी
दौलत और ओहदों के बल पर जो ऐंठें
उन लोगों को मुँह न लगाया मैंने कभी

मैंने चोर कहा चोरों को खुलके सरे महफ़िल
देख ऐ मुस्तक़बिल ।

मौलाना 

बहुत मैंने सुनी है आपकी तक़रीर मौलाना
मगर बदली नहीं अब तक मेरी तक़दीर मौलाना

खुदारा सब्र की तलकीन[1] अपने पास ही रखें
ये लगती है मेरे सीने पे बन कर तीर मौलाना

नहीं मैं बोल सकता झूठ इस दर्ज़ा ढिठाई से
यही है ज़ुर्म मेरा और यही तक़सीर[2] मौलाना

हक़ीक़त क्या है ये तो आप जानें और खुदा जाने
सुना है जिम्मी कार्टर आपका है पीर मौलाना

ज़मीनें हो वडेरों की, मशीनें हों लुटेरों की
ख़ुदा ने लिख के दी है आपको तहरीर मौलाना

करोड़ों क्यों नहीं मिलकर फ़िलिस्तीं के लिए लड़ते
दुआ ही से फ़क़त कटती नहीं ज़ंजीर मौलाना

ये और बात तेरी गली में ना आएं हम

ये और बात तेरी गली में ना आएं हम
लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम

मुद्दत हुई है कू-ए-बुताँ की तरफ गए
आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएं

हम शायद बाक़ैद-ए-ज़ीस्त ये साअत ना आ सके
तुम दास्ताँ-ए-शौक़ सुनो और सुनाएं हम

बेनूर हो चुकी है बहुत शहर की फजा
तारीक रास्तों में कहीँ खो ना जाएँ हम

उस के बग़ैर आज बहुत जी उदास है
‘जालिब’ चलो कहीं से उसे ढूँढ लाएं हम

यौम-ए-इक़बाल पर

लोग उठते है जब तेरे ग़रीबों को जगाने
सब शहर के ज़रदार पहुँच जाते हैं थाने

कहते हैं ये दौलत हमें बख़्शी है ख़ुदा ने
फ़रसुदः बहाने वही अफ़साने पुराने

ऐ शायर-ए-मशरिक! ये ही झूठे ये ही बदज़ात
पीते हैं लहू बंदा-ए-मज़दूर का दिन-रात ।

यौम-ए-मई

सदा आ रही है मरे दिल से पैहम
कि होगा हर इक दुश्मन-ए-जाँ का सर ख़म
नहीं है निज़ाम-ए-हलाकत में कुछ दम
ज़रूरत है इनसान की अम्न-ए-आलम
फ़ज़ाओं में लहराएगा सुर्ख़ परचम

सदा आ रही है मिरे दिल से पैहम
न ज़िल्लत के साए में बच्चे पलेंगे
न हाथ अपने क़िस्मत के हाथों मलेंगे
मुसावात के दीप घर-घर जलेंगे
सब अहल-ए-वतन सर उठा के चलेंगे
न होगी कभी ज़िन्दगी वक़्फ़-ए-मातम
फ़ज़ाओं में लहराएगा सुर्ख़ परचम

रक्शिन्दा ज़ोया से 

कह नहीं सकती पर कहती है
मुझसे मेरी नन्ही बच्ची
अब्बू घर चल
अब्बू घर चल
उस की समझ में कुछ नहीं आता
क्यों ज़िन्दाँ में रह जाता हूँ
क्यों नहीं साथ में उसके चलता
कैसे नन्ही समझाऊँ
घर भी तो ज़िन्दाँ की तरह है ।

रेफ़्रेनडम

शहर में हू का आलम था
जिन था या रेफ़्रेनडम था
क़ैद थे दीवारों में लोग
बाहर शोर बहुत कम था

कुछ बा-रीश से चेहरे थे
और ईमान का मातम था
मर्हूमीन शरीक हुए
सच्चाई का चहलम था

दिन उन्नीस दिसम्बर का
बे-मअ’नी बे-हँगम था
या वादा था हाकिम का
या अख़बारी कॉलम था

रोए भगत कबीर 

पूछ न क्या लाहौर में देखा हम ने मियाँ-‘नज़ीर’
पहनें सूट अँग्रेज़ी बोलें और कहलाएँ ‘मीर’
चौधरियों की मुट्ठी में है शाइ’र की तक़दीर
रोए भगत कबीर

इक-दूजे को जाहिल समझें नट-खट बुद्धीवान
मेट्रो में जो चाय पिलाए बस वो बाप समान
सब से अच्छा शाइ’र वो है जिस का यार मुदीर
रोए भगत कबीर

सड़कों पर भूके फिरते हैं शाइ’र मूसीक़ार
एक्ट्रसों के बाप लिए फिरते हैं मोटर-कार
फ़िल्म-नगर तक आ पहुँचे हैं सय्यद पीर फ़क़ीर
रोए भगत कबीर

लाल-दीन की कोठी देखी रँग भी जिस का लाल
शहर में रह कर ख़ूब उड़ाए दहक़ानों का माल
और कहे अज्दाद ने बख़्शी मुझ को ये जागीर
रोए भगत कबीर

जिस को देखो लीडर है और से मिलो वकील
किसी तरह भरता ही नहीं है पेट है उन का झील
मजबूरन सुनना पड़ती है उन सब की तक़दीर
रोए भगत कबीर

महफ़िल से जो उठ कर जाए कहलाए वो बोर
अपनी मस्जिद की तारीफ़ें बाक़ी जूते-चोर
अपना झंग भला है प्यारे जहाँ हमारी हीर
रोए भगत कबीर

लता मंगेश्कर

तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन-रैन हमारे

तेरी अगर आवाज़ न होती
बुझ जाती जीवन की ज्योती

तेरे सच्चे सुर हैं ऐसे
जैसे सूरज चाँद सितारे

तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन-रैन हमारे

क्या-क्या तूने गीत हैं गाए
सुर जब लागे मन झुक जाए

तुझको सुनकर जी उठते हैं
हम जैसे दुख-दर्द के मारे

तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन-रैन हमारे

मीरा तुझमें आन बसी है
अंग वही है रंग वही है

जग में तेरे दास है इतने
जितने हैं आकाश में तारे

तेरे मधुर गीतों के सहारे
कटते हैं दिन-रैन हमारे

सिंध की हैदराबाद जेल में

लायल-पूर

लायल-पूर इक शहर है जिस में दिल है मिरा आबाद
धड़कन धड़कन साथ रहेगी उस बस्ती की याद

मीठे बोलों की वो नगरी गीतों का संसार
हँसते-बसते हाए वो रस्ते नग़्मा-रेज़ दयार
वो गलियाँ वो फूल वो कलियाँ रंग-भरे बाज़ार
मैं ने उन गलियों फूलों कलियों से किया है प्यार
बर्ग-ए-आवारा में बिखरी है जिस की रूदाद
लायल-पूर इक शहर है जिस में दिल है मिरा आबाद

कोई नहीं था काम मुझे फिर भी था कितना काम
उन गलियों में फिरते रहना दिन को करना शाम
घर घर मेरे शेर के चर्चे घर घर में बदनाम
रातों को दहलीज़ों पे ही कर लेना आराम
दुख सहने में चुप रहने में दिल था कितना शाद
लायल-पूर इक शहर है जिस में दिल है मिरा आबाद

मैं ने उस नगरी रह कर क्या क्या गीत लिखे
जिन के कारन लोगों के मन में है मेरी प्रीत
एक लगन की बात है जीवन कैसी हार और जीत
सब से मुझ को प्यार है ‘जालिब’ सब हैं मेरे मीत
दाद तो उन की याद है मुझ को भूल गया बे-दाद
लायल-पूर इक शहर है जिस में दिल है मिरा आबाद

वतन को कुछ नहीं ख़तरा

वतन को कुछ नहीं ख़तरा निज़ामेज़र है ख़तरे में
हक़ीक़त में जो रहज़न है, वही रहबर है ख़तरे में

जो बैठा है सफ़े मातम बिछाए मर्गे ज़ुल्मत पर
वो नौहागर है ख़तरे में, वो दानिशवर है ख़तरे में

अगर तश्वीश लाह़क है तो सुल्तानों को लाह़क है
न तेरा घर है ख़तरे में न मेरा घर है ख़तरे में

जो भड़काते हैं फिर्क़ावारियत की आग को पैहम
उन्हीं शैताँ सिफ़त मुल्लाओं का लश्कर है ख़तरे में

जहाँ ‘इकबाल’ भी नज़रे ख़तेतंसीख हो ‘जालिब’
वहाँ तुझको शिकायत है, तेरा जौहर है ख़तरे में

हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है

हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है
लेकिन इन दोनों मुल्कों में अमरीका का डेरा है

ऐड की गंदम खाकर हमने कितने धोके खाए हैं
पूछ न हमने अमरीका के कितने नाज़ उठाए हैं

फिर भी अब तक वादी-ए-गुल को संगीनों ने घेरा है
हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है

खान बहादुर छोड़ना होगा अब तो साथ अँग्रेज़ों का
ता बह गरेबाँ आ पहुँचा है फिर से हाथ अंग्रेज़ों का

मैकमिलन तेरा न हुआ तो कैनेडी कब तेरा है
हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है

ये धरती है असल में प्यारे, मज़दूरों-दहक़ानों की
इस धरती पर चल न सकेगी मरज़ी चंद घरानों की

ज़ुल्म की रात रहेगी कब तक अब नज़दीक सवेरा है
हिन्दुस्तान भी मेरा है और पाकिस्तान भी मेरा है

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