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ज़हर-ए-ग़म दिल में समोने भी नहीं देता है

ज़हर-ए-ग़म दिल में समोने भी नहीं देता है
कर्ब-ए-एहसास को खोने भी नहीं देता है

दिल की ज़ख़्मों को किया करता है ताज़ा हर-दम
फिर सितम ये है कि रोने भी नहीं देता है

अष्क-ए-ख़ूँ दिल से उमड़ आते हैं दरिया की तरह
दामन-ए-चष्म भिगोने भी नहीं देता है

उठना चाहें तो गिरा देता है फिर ठोकर से
बे-ख़ुदी चाहें तो होने भी नहीं देता है

हर घड़ी लगती है ‘अनवर’ प नई इक तोहमत
किसी इल्ज़ाम को धोने भी नहीं देता है

सर में सौदा भी वही कूचा-ए-क़ातिल भी वही

सर में सौदा भी वही कूचा-ए-क़ातिल भी वही
रक़्स-ए-बिस्मिल भी वही शोर-ए-सलासिल भी वही

बात जब है कि हर इक फूल को यकसाँ समझो
सब का आमेज़ा वही आब वही गिल भी वही

डूब जाता है जहाँ डूबना होता है जिसे
वर्ना पैराक को दरिया वही साहिल भी वही

देखना चाहो तो ज़ख़्मो का चराग़ाँ हर-सम्त
महफ़िल-ए-ग़ैर वहीं अंजुमन-ए-दिल भी वही

कैसे मुमकिन है कि क़ातिल ही मसीहा हो जाए
उस की नीयत भी वही दावा-ए-बातिल भी वही

तुम समझते नहीं ‘अनवर’ तो ख़ता किस की है
राह है रोज़-ए-अ़जल से वहीं मंज़िल भी वही

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