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जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’की रचनाएँ

दिव्य सौन्दर्य की स्वामिनी शोभने!

दिव्य सौन्दर्य की स्वामिनी शोभने!
श्याम कुन्तल सजा एक लीला कमल।

लाज की लालिमा से ढँके ये अधर
चन्द्रमा-कर अमृतकुण्ड-से हैं लगे
और इन पर हँसी के थिरकते चरण
रूप-दीपक-शिखा-ज्योति-से हैं पगे

आभरण से अधिक दीप्त है तन-वदन
ज्यों मचलता गगन में नशीला कमल।
दिव्य सौन्दर्य की स्वामिनी शोभने!
श्याम कुन्तल सजा एक लीला कमल॥

प्रीति-अट्टालिका के हृदय-कक्ष में
चारुशीला बनी तुम निरन्तर दिखी
आँख की पाठशाला मुखर हर घड़ी
मौन रहकर प्रिये! प्रेम-पुस्तक लिखी

स्वच्छ आँचल विहँसते युवा हंस को
लोरियाँ गा रिझाता लजीला कमल।
दिव्य सौन्दर्य की स्वामिनी शोभने!
श्याम कुन्तल सजा एक लीला कमल॥

रुक्मिणी-सी सदा रूपगर्वान्विता
किन्तु अन्तःकरण राधिका की तरह
सत्यभामा बनी रूठती हो प्रिये!
किन्तु है आचरण साधिका की तरह

अंग प्रत्यंग हैं साधना से तपे
धूप में ज्यों खिला हो हठीला कमल।
दिव्य सौन्दर्य की स्वामिनी शोभने!
श्याम कुन्तल सजा एक लीला कमल॥

रातरानी खड़ी प्रीति-उपहार ले

रातरानी खड़ी प्रीति-उपहार ले
रक्त पाटल-अधर प्रिय प्रतीक्षा करे।

थाल-दीपक सजा गन्ध कर्पूर का
चारु चन्दन हरिद्रा विलेपित वदन
रोलिका पुष्प केशर सुमन मानिनी
रूप मोहक बसा एक मानस-सदन
मौन मनुहार संकेत पद्धति भली
पाँव पायल थिरक राग-निर्झर झरे।
रातरानी खड़ी प्रीति-उपहार ले
रक्त पाटल-अधर प्रिय प्रतीक्षा करे॥

आयताक्षी कला पुष्पशर साथ में
हाथ कंचन-कलश तीर्थ-जल से भरा
रत्नभूषण लसी केश वेणी बँधी
मालती-मल्लिका-स्नात सौरभ खरा
लाज निर्बन्ध द्वारे खड़ी देखती
देह निर्वात माणिक शिखा-सी जरे।
रातरानी खड़ी प्रीति-उपहार ले
रक्त पाटल-अधर प्रिय प्रतीक्षा करे॥

खोल उर-पोटली स्नेह-मुक्तावली
मुक्त कर से मनोरम समर्पण सधे
दूर आलस श्रमित बिन्दु सीकर-सुधा
पानकर तृप्ति सम्मोह बन्धन बँधे
लाल कोपल हुए गाल पर गाल रख
चाँदनी-गात-संस्पर्श अनुभव परे।
रातरानी खड़ी प्रीति-उपहार ले
रक्त पाटल-अधर प्रिय प्रतीक्षा करे॥

पद्मरागान्विता रम्य रजनी ढली
चन्द्रमा गुरु-प्रिया-वक्ष उपधान ले
खो गया नींद-सागर में गोता लगा
स्वप्न-माणिक्य का लोभ उपमान ले
आ गया भोर प्राची अरुण पट हुआ
मन्त्र मुखरित हुए ऋषि कमण्डलु भरे।
रातरानी खड़ी प्रीति-उपहार ले
रक्त पाटल-अधर प्रिय प्रतीक्षा करे॥

चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ

चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर।

काम्य-कादम्ब-रसपान करता रहूँ
मंजु-मंजुल अधर स्नेह मुरली रहे
छोड़ भूधर-सदन फूट निर्झर चले
गीत माधुर्य मंगल कमल पद गहे
मौन संकेत अभिलेख मेरा पढ़ो
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर।
चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर॥

रूपसी चाँदनी में नहाये हुए
प्राण-अंजलि भरा घट सुधारस झरे
सौम्य सुषमा सफल सार बढ़ता रहे
धीर गम्भीर सागर हृदय में भरे
मूर्ति मोहन मधुर ज्योति गंगा मढ़ो
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर।
चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर॥

केश-बादल तले वक्र भ्रूरेख-से
काम की शिंजनी ध्वस्त होती रहे
मोह-तम की घटा में पली दामिनी
भेद अन्तस सहज ज्ञान ढोती रहे
खोल घूँघट मुखच्छवि बहिर्गत कढ़ो
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर।
चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर॥

बाँह से खोल दो लाज-गहना सखी!
मुक्त प्रणयी नयन का मुखर छन्द हो
भेद कोई न हो भूमि-आकाश में
भोग-संयोग का द्वन्द्व मकरन्द हो
उच्च उन्तन शिला पद प्रहर्षित बढ़ो
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर।
चाँद बनकर तुम्हारी अटा पर चढ़ूँ
प्रीति पुलकित लखूँ मैं तुम्हें रात भर॥

रात भर स्नेह का दीप जलता रहा

रात भर स्नेह का दीप जलता रहा
प्रीति का गीत लिखता रहा रात भर।

एक अव्यक्त-सी गन्ध आवर्त में
सीप में ज्यों पड़ी बूँद स्वाती सखी!
देह में प्राण के सत्य संचार-सी
राधिका की लिखी प्रीति-पाती सखी!
बाँच कर मन मगन नेह ढलता रहा
रीति का गीत लिखता रहा रात भर।
रात भर स्नेह का दीप जलता रहा
प्रीति का गीत लिखता रहा रात भर॥

छन्द हर क्षण बदलते सहज रूप में
भाव-मोती पिरोकर सु-माला बनी
जौहरी को परख थी न जिस रत्न की
ज्योति उसकी नवोढ़ा दुशाला बनी
मन्द मुसकान प्रतिकार छलता रहा
नीति का गीत लिखता रहा रात भर।
रात भर स्नेह का दीप जलता रहा
प्रीति का गीत लिखता रहा रात भर॥

रूप के दर्प की क्या कहानी कहूँ
पुष्प-सौरभ में ज्यों दृष्टि उनकी फँसी
शोण के बाहु उपकूल में ज्यों चली
धार देवापगा हो अचानक धँसी
नींव की ईंट-सा अंक पलता रहा
भीति का गीत लिखता रहा रात भर।
रात भर स्नेह का दीप जलता रहा
प्रीति का गीत लिखता रहा रात भर॥

होश में चित्त था देह बेहोश थी
चेतना फिर भी जागृत हमेशा रही
संस्मरण है यही गत दिवस का सखी!
फूल-सी प्रियतमा रति-नयन से दही
काम-शर-ग्रस्त मन मोक्ष फलता रहा
जीति का गीत लिखता रहा रात भर।
रात भर स्नेह का दीप जलता रहा
प्रीति का गीत लिखता रहा रात भर॥

दे गयी जो प्रिये! प्रीति-संवाद है।

दे गयी जो प्रिये! प्रीति-संवाद है।
आज भी वह प्रतिज्ञा हमें याद है॥

लाल चूनर सजा रूप वह अनछुआ
सप्तपद चल पड़ा मन्त्र पढ़ता हुआ
लाज के पोखरे में नहाये हुए,
दो सजल मीन देते प्रणय की दुआ

युग्म उर-वस्त्र सिलकर गृहस्थी बनी
सूत्र देता चला दिव्य आह्लाद है।
दे गयी जो प्रिये! प्रीति-संवाद है,
आज भी वह प्रतिज्ञा हमें याद है॥

मानसर तैरती थी मराली प्रिये!
रक्त अम्भोज की भव्य लाली प्रिये!
रोशनी का कलश द्वार रखती चली,
पैजनी गीत रचती दिवाली प्रिये!

छोड़कर चल पड़ी कण्व-आश्रम वही
भूप दुष्यन्त के राजप्रासाद है।
दे गयी जो प्रिये! प्रीति-संवाद है,
आज भी वह प्रतिज्ञा हमें याद है॥

पद्मदल-से खिले दो खिलौने दिये
चाँद ने माथ लोने डिठौने दिये
रूप-कानन विचरते सुमृग के लिए,
ज्यों मृगी ने भली-भाँति छौने दिये

ज़िन्दगी के सुखद नील आकाश में
चाँदनी के तले चाँद आबाद है।
दे गयी जो प्रिये! प्रीति-संवाद है।
आज भी वह प्रतिज्ञा हमें याद है॥

 

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