कोंपले फिर फूट आईं शाख़ पर कहना उसे

कोंपलें फिर फूट आँई शाख पर कहना उसे

वो न समझा है न समझेगा मगर कहना उसे

वक़्त का तूफ़ान हर इक शय बहा के ले गया

कितनी तनहा हो गयी है रहगुज़र कहना उसे

जा रहा है छोड़ कर तनहा मुझे जिसके लिए

चैन न दे पायेगा वो सीमज़र कहना उसे

रिस रहा हो खून दिल से लब मगर हँसते रहे

कर गया बर्बाद मुझको ये हुनर कहना उसे

जिसने ज़ख्मों से मेरा ‘शहज़ाद’ सीना भर दिया

मुस्कुरा कर आज क्या है चारागर कहना उसे

 

क्या ख़बर थी के मैं इस दर्जा बदल जाऊँगा

क्या ख़बर थी के मैं इस दर्जा बदल जाऊँगा
तुझ को खो दूंगा, तेरे ग़म से संभल जाऊँगा

अजनबी बन के मिलूँगा तुझे मैं महफ़िल में
तूने छेड़ी भी तो मैं बात बदल जाऊँगा

ढूँढ पाए ना जहां याद भी तेरी मुझ को
ऐसे जंगल में किसी रोज़ निकल जाऊँगा

ज़िद में आये हुए मासूम से बच्चे की तरह
खुद ही कश्ती को डुबोने पे मचल जाऊँगा