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मैं बनारस कभी नहीं गया

हिन्दी का ठेठ कवि
अपने जनेऊ या जनेऊनुमा सँस्कार पर
हाथ फेरता हुआ
चौंकता है मेरी स्वीकारोक्ति पर
अय्..बनारस नहीं गए
नहीं गए, न सही
ज़रूरत आख़िर क्या है
ऐसी स्वीकारोक्तियों की
इन्हीं बातों से कविता में
आरक्षण की प्रबल माँग उठ रही है
हुँह..दलित साहित्य..उसने मुँह बनाया

मैं बनारस कभी नहीं गया
लेकिन वह मुझे कविताओं में मिला
कर्मकाण्डी पिता की अतृप्त इच्छाओं में मिला
माँ कमर के दर्द से परेशान हो
नींद में अक्सर चीख़-चीख़ उठती है
बनारस..बनारस..

कबीर यहीं से कुढ़कर
मगहर की ओर निकल गए थे
उसे पण्डों, लुटेरों, दलालों,
गंगा और माणिकर्णिका को सौंप

अभी कुछ दिन पहले की बात है
पटना जाते हुए रास्ते में
उसका रेलवे स्टेशन मिला था
बिल्कुल सुबह साढ़े पाँच का वक़्त
बनारस जाग रहा था
उसके ऊपर का कुहरीला आवरण
धीरे-धीरे खींच रहा था सूरज

स्टेशन की उस गहमागहमी में
मैंने एक अधेड़ को निर्लिप्त पेशाब करते देखा
यह जान रहिए
कि वह प्लेटफ़ार्म पर खड़े होकर
पटरियों पर पेशाब नहीं कर रहा था
चलते-चलते सहसा रुका
और प्लेटफार्म पर पेशाब करने लगा

मुझे वह अजीब लगा
मुझे बनारस ही अजीब-सा लगा
गन्दा, अराजक, अव्यवस्थित और दम्भी
स्टेशन की खिड़की से मैंने बनारस को देखा
और मुझे दहशत हुई
इसलिए
मैं बनारस कभी नहीं गया ।

मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ

मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ
कवि हूँ

खादी पहनता हूँ, बहस करता हूँ
फ़िल्में देखता हूँ, शराब पीता हूँ
बचे समय में अपनी कारगुजारियों को
सही साबित करने की कवायद करता हूँ

मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ
यद्यपि कुछ भी ठहरा हुआ नहीं
तेज़ी से घूम रहे लहू के आभासी ठहराव जैसा है यह

फूल प्यार बच्चे और चिड़िया
चिट्ठियाँ और कविताएँ
अपने समय की समस्त बुरी घटनाएँ और दुश्चिन्ताएँ
रक्त के भीतर बड़बड़ाता कोई पुराना सँस्कार
सब कुछ मिलकर इतना एक हो गया है
कि डरावने सपने आते हैं

मैं डरावने सपने देखते हुए
अपना मकान बनवाना स्थगित करता हूँ
बौखलाहट और नकार अब बीते दिनों की चीज़ है
सब कुछ पर केवल हामी है
कुछ न करने के दाखिल प्रतिज्ञा-पत्रों के बीच
कहीं मैं भी हूँ

बगदाद और बसरा की सड़कों पर
कैमरे की आँख से बचता हुआ
भारत में आम की लकड़ी की मेज़ पर झुका हुआ
कर्ज़ की किस्तों के भयंकर चक्रवात में घिरा हुआ
अपने समय का एक मामूली-सा कवि यानी मैं
शान्त मुद्रा में अशान्त समय की कविताएँ लिखता हूँ

कविता लिखने के सबसे ज़रूरी समय में
कविता लिखते हुए
मैं इतना अकेला और हताश हूँ
कि कहता हूँ — मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ ।

दुख

एक खाली मैदान में
अकेले खेल रहे हों फुटबाल
या पर कटे परिन्दे की तरह
बचते-बचाते सड़क पर चल रहे हों

उम्मीदें सारी सूख जाएँ
जैसे गर्मी का पोखर
और सपने तक नोच कर ले जाए कोई
नींद से

रातें न कटती हों
न बीतती हों
रुलाई तक होंठों पर आने से घबराए
सही चीज़ों की शक्लें इतनी बदल चुकी हों
कि पहचान तक न पाएँ उन्हें

हम भयानक ख़्वाब के बाद हड़बड़ाकर उठें
और पानी का जग सिरहाने से गायब हो।

सुख

बरसों पुराना कोई परिचित
किसी अजनबी शहर में
अचानक मिल जाए
उसका नाम आपकी स्मृति में
आकार नहीं ले पा रहा हो
जबकि वह कहे कि बीते दिनों
वह लगातार आपको याद करता रहा
और उसे आपका नाम तक याद हो

विस्मृति में दुबका कोई गीत
होंठों पर चला आए चुपचाप
और याद दिलाए बीते प्रेम की मीठी कसक

शाम हम घर लौटें
और थकान न महसूस हो
अचानक अच्छी कविताओं पर भरोसा करने को
जी चाहे।

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