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वंदना

हे! शारदे माँ, हे! शारदे माँ
हंस वाहिनी वीणापाणि,
हे! वागेश्वरी आशीष दे माँ
लेखनी मेरी सँवार दे माँ।

उर में बहे प्रेम की गंगा
द्वेष घृणा का भाव न हो,
जग में फहरे मेरा तिरंगा
खुशहाली का अभाव न हो।

रचूँ नवगीत नव छंद
कंठ में भर दो लय स्वर,
हरूँ हर मन का विषाद
शिवमय हो अक्षर-अक्षर।

जलाऊँ सत्य की ज्योति
करूँ सुपथ का संधान,
ज्ञान, कला, संगीत की निधि
माँ भारती दे दो वरदान।

हे! शारदे माँ हे! शारदे माँ
हंसवाहिनी वीणापाणि,
हे! वागीश्वरी आशीष दे माँ
लेखनी मेरी सँवार दे माँ।

हे! विषपायी तुम्हें प्रणाम

हे! विषपायी तुम्हें प्रणाम
हर लेते सबके संकट
करते हर प्राणी का कल्याण
हे! शुभ्रवर्णी चन्द्रधर
विराजें सदा कैलाश शिखर
सोहे संग शैलसुता
कर जोड़ें शिवउमासुत
करें रक्षा सुत कार्तिकेय
हे! विश्वनाथ कैसे करूँ
तुम्हारा बखान..

भागीरथ का विकट तप
माँ गंगा के उर में उमड़ी ममता
उद्दाम वेग से स्वर्ग लोक से
अवतरित हो रही गंगा
कौन संभालेगा यह आवेग?
आशुतोष की खुली जटायें
प्रबल वेग रोका क्षण भर में
हे! विषपायी तुम्हें प्रणाम

सृष्टि यह न बची होती
धारण न करते हे! गंगाधर..

निर्बल के तुम सदा सहायक
चौंसठ कलाओं से हुआ विहिन सुधाकर
क्षय रोग से पीड़ित शापित
असहाय चन्द्र को किया शिरोधार्य
तभी चन्द्रशेखर कहलाए..

हे! मृत्युंजय तुम्हे नमन
जब हुआ समुद्र मंथन
निकला हलाहल
मचा कोलाहल
देव असुर सभी भयभीत
कैसे बचेगी यह सृष्टि?
कौन करे यह विषपान
विषकुम्भ को लगाया अधरों पर
क्षण भर में विषपान किया
हे! विषपायी हे! नीलकंठ
करते हो सदा कल्याण

हे! महादेव दो ऐसा वर
तुमसा हो मेरा पाथेय
गरल पीकर रहूँ अमर
मेरे उर में बसे शिवत्व
हे! ज्योतिर्मय लूं मैं शिवसंकल्प
करूँ यह जीवन धन्य धन्य
हे! सर्वेश्वर तुम्हे प्रणाम
सदा करो सबका कल्याण।

रत्ना ! करना मुझे क्षमा

पुत्रवधु हुलसी की
प्रिया तुलसी की
कर रही स्वामी से प्रश्न
क्यों परित्याग किया मेरा?
क्या अपराध था मेरा?
पुत्र भी रूठा
बना नभ का तारा
जीवन हुआ अभिशप्त
छिन गया हर सहारा
भूल गए सप्तपदी
अग्नि की हवि
सौगंध खाई थी कभी
पति का पथ बनता सदा
पत्नी का पाथेय
क्यों नहीं देते मुझे आश्रय?
तुम साधक बनो
मैं साधिका बनूँ
मैं मनु की शतरूपा सी तपूँ
रामसेवक की सेविका सी
राम में ही रमूँ
छाया-सी साथ चलूं स्वामी
फिर क्यों मेरा त्याग स्वामी
रामचरितमानस रचा
उत्तरकांड में सीता को
राम से नहीं पृथक किया
फिर किस अपराध का
दण्ड मुझे दिया
भर गयी तुलसी की आँखें
वाणी रह न सकी मौन
रूंधे कंठ से फूटे शब्द
मैंने अन्याय किया तुमसे
पर प्रभु राम कैसे
अन्याय कर सकते थे?
रत्ना मैं तुम-सा दृढ़
वैरागी नहीं तुम-सा गुरू पा
मैं हुआ धन्य
सदैव रहोगी वन्दनीय
मैं ऋणी हूँ तुम्हारा
मेरा अपराध नहीं क्षम्य
युगों-युगों तक रहेगा
रत्ना तेरा नाम अग्रगण्य।

नदी की धार

तोड़ तटों के बाँध
रूढ़ियों का कचरा फेंक
दुर्गंध से बेपरवाह
नवचेतना से भरी
बही जा रही नदी

नीरस नीरव बंजर भू
तरसती रसधार को मरू
उर्वर बनाती जा रही
ममता से भरी नदी

सांझ ढली
थका शिशु
रवि को अंक में लिए
लोरी गा रही नदी।

अमा निशा
काली हर दिशा
पर निडर निर्भया सी
ओज भरे गीत
गा रही नदी।

चिन्तन मनन में लीन
सुपथ के राही सी
दार्शनिक सी
किसी नयी खोज में
बही जा रही है नदी।

चरैवेति चरैवेति

समय की सुईं
घूम रही प्रति क्षण
कोणार्क के सूर्यमंदिर के
कालचक्र सी
सप्त अश्वों की लगाम साधे
सारथी अरूण
हाँक रहा रवि रथ
अश्वों की टापें
रच रहीं देववाणी में सप्त छंद
ध्वनित होती सर्वत्र
एक ही ध्वनि प्रतिध्वनि
चरैवेति चरैवेति…

नदी, ताल, तलैया
सागर की उत्ताल तरंगें
जल समेट रहे मेघ
उर्ध्वगामी हुए
प्रभंजन ने दिया झकझोर
मेघ बरस पड़े
गूँज रही एक ही ध्वनि
चरैवेति चरैवेति…

धरती की कोख से
फूटे अंकुर
मुस्कराए कोंपलें
तरू की शाख-शाख पर
भँवरे तितलियाँ
चूमें हर डाली-डाली
मधुमास की छटा
अजब निराली
गा रही कोकिल नवगीत
चरैवेति चरैवेति…

हुई सांझ
थका है तन
उदास हुआ मन
दायित्वों की गठरी का भार
पड़ रही जैसे दिलो दिमाग पर
चाबुक की मार
अनायास उतरा गगन में चाँद
नक्षत्रों के सुमन खिल उठे
बतिया रहे ऐसे
जैसे पुराने दोस्त हों मिले
कथाकार चंदा मामा
सुना रहा शिशु तारों को
नयी रची कहानी
चरैवेति चरैवेति…।

बहुत कठिन है

बहुत कठिन है
रोते हुए बच्चे को छोड़कर
काम पर जाना
बेहतर भविष्य के लिए
रख सीने पर पत्थर
घर की दहलीज लाँघ जाना
पीछे दौड़ते वे नन्हे कदम
कोंपल से कोमल हाथ
जो मुझे पकड़ लेना
जकड़ लेना चाहते हैं
उनसे नजरें बचाकर
चले जाना बहुत कठिन है..

लाऊँगी चाकलेट टाफी
जल्दी घर आऊँगी
खेलूँगी छुपमछुप्पी का खेल
आश्वासन की लकड़ी थमाना
बहुत कठिन है..

‘मुझे नहीं चाहिए ये सब’
उसकी भोली सूरत पर
लिखा एक-एक शब्द
पढ़ लेना
मिटाकर चले जाना
बहुत कठिन है..

आया के हाथों में सौंपी
मूल्यवान धरोहर
पता नहीं कैसे रखती होगी?
मन में उठते असंख्य सवाल
घड़ी की सूईंयों को देखती हूँ तेजी से बढ़ते हुए
देर हो रही आफिस को
सवालों के उत्तरों से
मुँह फेर लेना कठिन है..

आफिस में फाइलों से घिरी
लैपटाप पर चलाती
यंत्रवत उँगलियाँ
लंचटाइम में खोला टिफिन
कौर मुँह में डाला
अनायास उभर आयी
बच्चे की छवि
ममत्व की कील
उर में फँसी
टीस मिटाने की खातिर
सहकर्मियों के बीच हँसी
अरे! पांच बज गये
शीघ्रता से निबटा रही
अपना काम
करती होंगी वो मासूम आँखें मेरा इंतजार
सच में
आफिस और माँ के बीच
संतुलन बनाना
बहुत कठिन है।

मैं धुरी हूँ

घर का पहिया
घूमे मेरे चहुँ ओर
ऐसी धुरी हूँ मैं
संतति हो रूग्ण
संतप्त या खिन्न
पथ के कंटक
बटोर लेती हूँ मैं..

सपनो के पंखों को
देती उड़ान
निराश मन को
देती मुस्कान
हर लेती हूँ सबकी थकान
ऐसी धुरी हूँ मैं..

रिश्ते-नाते कैसे निभते?
हर पल समझाऊँ मैं
पिता-संतति में हो मनमुटाव
दोनों का समझौता कराऊँ मैं
ऐसी धुरी हूँ मैं..

संतति मोह में बने धृतराष्ट्र
गांधारी सी समझाऊँ
स्त्रीहठ की चर्चा करें सब
पुरूष हठ से घर बचाऊँ
ऐसी धुरी हूँ मैं..

आफिस हो या घर
कोई समस्या लेती घेर
हो जाते सब परेशान
खोज लेती हूँ समाधान
प्रिय मुझ बिन अधूरे
घूमे मेरे चहुँ ओर
ऐसी धुरी हूँ मैं..

परम्पराओं की करूँ रखवाली
प्रगतिशीलता की ज्योति जलाऊँ
पुत्र-पुत्री में अंतर न मानूँ
प्रगतिपथ पर बढ़ें सभी
समर्पित करती तन मन धन
सारा जीवन कर देती अर्पण
ऐसी धुरी हूँ मैं।

स्त्री शक्ति

मैं दुनिया की आधी आबादी
चीर रही नभ का सीना
मंगलग्रह पर दौड़ लगा दी
सीमाओं पर करूँ चौकसी
पहनूं कमांडो की पोशाक निराली
रक्षा मंत्री बनी देश की
करूँ देश की रखवाली

रच रही नया इतिहास
कर रही नित नव अनुसंधान
कोई ऐसा क्षेत्र नही शेष
जहाँ न हो मेरे निशान

नाप ली पर्वतों की ऊँचाई
ओलम्पिक खेलों में खेली
स्वर्ण पदक जीतकर मैंने
अपने देश की लाज बचाली

कोर्ट कचहरी से नही भय
करूँ न्याय होकर निर्भय
सुप्रीम कोर्ट की बनी चीफ जज
करूँ संविधान की रक्षा
करती सबके साथ न्याय
देनी पड़ती रोज परीक्षा।

स्त्री का मान मर्दन
अब मुझे नहीं सह्य
गैंगरैप के अमानुषों को
ऐसी सजा मिलेगी
माँगेगे वो प्राण भिक्षा
क्रूर कृत्य का मूल्य
अब चूकाना होगा
नया कानून बनाऊँगी मैं
करूँगी संविधान में परिवर्तन
मैं शक्ति हूँ दुर्गा हूँ
महिषासुरों के प्राण हरूँगी
मैं सृष्टि का आधार हूँ
सदा रहूँगी।

फरिश्ता

भोर की पहली किरण मुस्कराई
चुपके से कान में गुनगुनाई
बोली, आने वाला है कोई..

कोंपले नींद से जागीं
कलियां हैं खिलखिलायीं
बोलीं, आने वाला है कोई..

चिरैया डाल-डाल कूदी
दिशाएं विहाग राग से गूंजी
बोलीं, आने वाला हैं कोई..

झरने की धार है बहकी
पहाड़ी नभ छूने को चहकी
बोलीं, आने वाला है कोई..

जग का अणु-अणु महके
नेह से घर आंगन चहके
‘फरिश्ता’ आने वाला है कोई।

ओ! दीप जलाने वाले

ओ! दीप जलाने वाले तू इतना सुनता जा।
हर अंधियारे कोने में तू दीप जलाता जा।

अमावस्या की इस बेला मे, तू कण-कण उज्वल कर दे
सारी भू पर इस बेला में, तू नवजीवन भर दे।
लेकर मानवता का दीप, तू जन-जन में नेह भरता जा
हर अंधियारे कोने में, तू दीप जलाता जा।

ओ! दीप जलाने वाले………

रूठे होठों पर तू हास जगा दे।
सूनी आंखों में तू मुस्कान बिखरा दे।।
क्लान्त पथिक को तू विश्राम देता जा।
हर अंधियारे कोने में तू दीप जलाता जा।।

ओ! दीप जलाने वाले…..
अपने हृदय की कालिमा को धवलित कर ले।
अपने परायों की आत्मा को जागृत कर दे।।
अमर शहीदों को कुछ दीप अर्पित करता जा।
हर अंधियारे कोने में तू दीप जलाता जा।।

ओ! दीप जलाने वाले तू इतना सुनता जा।
हर अंधियारे कोने में तू दीप जलाता जा।

यादें

(अपने संघर्षशील पिता को याद करते हुए)

बाबा तुम्हारी आवाज
गुंजती है
खेत-खलिहानों में
लहलहाते खेतों में
कलकल बहते
नदी और झरनों में
हर दिशाओं में
हर कोने में,
हां, गुंजती है
बाबा तुम्हारी आवाज,
हरदम, हर पल, हर क्षण
गुंजता है, हवाओं में
हौले-हौले से
पवन का झोंका सा,
गुंजती है
बाबा तुम्हारी आवाज,
इस पहर से उस पहर तक
सांझ और भोर
हरदम दिलाती है याद
बाबा तुम्हारी आवाज,
गुंजती है
चहुं-दिशाओं में
बच्चों की किलकारियों सा
रह-रह कर तड़पाती
तुम्हारी सुरीली आवाज,
भोर का जगना
अब तो नहीं लगता जगना
क्योंकि, तुम्हारी
वो मीठी, प्यारी आवाज
न जाने कहां, कब
गुम सा हो गया
और न जाने तुम
हमसे रूठ कर
कहां खो गये,
फिर भी
बचा रह गया है
घर के हरेक कोने में
हरेक साजो सामान में
तुम्हारी मीटठी-प्यारी सी आवाज!
हॉं बाबा, तुम्हारी मीटठी-प्यारी सी आवाज..!

 

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