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बरसों ग़म-ए-गेसू में गिरफ़्तार तो रक्खा

बरसों ग़म-ए-गेसू में गिरफ़्तार तो रक्खा
अब कहते हो क तुम ने मुझे मार तो रक्खा

कुछ बे-अदबी और शब-ए-वस्ल नहीं की
हाँ यार के रूख़्सार पे रूख़्सार तो रक्खा

इतना भी ग़नीमत है तिरी तरफ़ से ज़ालिम
खिड़की न रखी रौज़न-ए-दीवार तो रक्खा

वो ज़ब्ह करे या न करे ग़म नहीं इस का
सर हम ने तह-ए-ख़ंजर-ए-ख़ूँ-ख़्वार तो रक्खा

इस इश्क़ की हिम्मत के मैं सदक़े हूँ कि ‘बेगम’
हर वक़्त मुझे मरने पे तय्यार तो रक्खा

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