मुस्कान की महक
हो जाती जब
बहुत दूर,
तब चेहरों पर,
दुश्चिन्ताओं,
तनावों की रेखाएं
खींच जाती हैं
आड़ी, तिरछी…
मनोबल,
आत्म-विश्वास
की मजबूत कवच
जब टूटती है
बहुत चुभते हैं तब
अपनों,
परायों के
शब्द संधान
मर्मभेदी व्यंग्यवाण…
तुम्हें देख़ कर
मिलती हैं
बहुत सारी खुशियां
मुझे
नैसर्गिक आनन्द…
जिन्दगी को
समझने,
परखने की
आह्लादित अनुभूति…
झंकृत हो जाते हैं
हॄदय के तार,
तुम्हारे सौम्य
सुन्दर व्यवहार से…
तुम्हारे “वकवास” में भी
छुपे होते हैं
कई अर्थपूर्ण भाव
गोता लगा कर
तुझ में ही
सुन, समझ लेता है
मेरा अन्तर्मन
जिन्दगी की बड़ी सच्चाई…
परेशानियों के बीच
दबी रहती हैं
कुछ जिन्दगानियां
सुबकती,
सिसकती,
दुबकती खुद में
निर्वाक,
बेवस…
लाचार..
बहन, बहू, बेटियां…
हंसते चेहरों
के बीच
दफ़्न हो जाती है
उनकी तमाम खुशियां,
पल पल
मिटती रहती
सिमटकर
उनके अन्दर की दुनियां
और वे
रह जाती है दबी,
उत्पीड़ित,
खामोश,
अवला…
परम्पराओं,
सामाजिक मर्यादाओं की
खड़ी दीवारों में
युगों युगों से कैद होकर…
हर जगह … हर तरफ़
जीने के लिए
काफ़ी जद्दोजहद –
एक तरफ़
मौत को मात देकर
जीने का जज्बा है
तो
दूसरी तरफ़
मरने पर अमादा कुछ लोग…
कुछ जिन्दगियां
बचती हैं,
कुछ बिक जाती हैं,
खुद जिन्दगी अपनी
यूं ही मिटा देते हैं कुछ लोग…
गहन अविद्या मध्य विभूषित
महाविद्या धन की लक्ष्मी बनकर,
है अति घनघोर घन घटाटोप,
निकलें हम दिव्य रश्मि बनकर।
आस-विश्वास के गौरव से
चीर धीर बने सबल मन बनकर,
निज जन है अरि निर्जन में,
सफ़ल बने हम सज्जन बनकर।
दॄश्य विश्व में असीम ऊर्जा से
स्वयं उर्ध्व बनें अन्तसृष्टि बनकर,
सौन्दर्य प्रभा है वन उपवन,
आत्म पान करें हम नवदृष्टि बनकर।