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पाबंद-ए-एहतियात-ए-वफ़ा भी न हो सके

पाबंद-ए-एहतियात-ए-वफ़ा भी न हो सके
हम क़ैद-ए-ज़ब्त-ए-ग़म से रिहा भी न हो सके

दार-ओ-मदार-ए-इश्‍क़ वफ़ा पर है हम-नशीं
वो क्या करे के जिस से वफ़ा भी न हो सके

गो उम्र भर न मिल सके आपस में एक बार
हम एक दूसरे से जुदा भी न हो सके

जब जुज़्व की सिफ़ात में कुल की सिफ़ात हैं
फिर वो बशर ही क्या जो ख़ुदा भी न हो सके

ये फैज़-ए-इश्‍क था के हुई हर ख़ता मुआफ़
वो ख़ुश न हो सके तो खफ़ा भी न हो सके

वो आस्तान-ए-दोस्त पे क्या सर झुकाएगा
जिस से बुलंद दस्त-ए-दुआ भी न हो सके

ये एहतिराम था निगाह-ए-शौक़ का जो तुम
बे-पर्दा हो सके जलवा-नुमा भी न हो सके

‘मख़मूर’ कुछ न पूछिए मजबूरी-ए-हयात
अच्छी तरह ख़राब-ए-फ़ना भी न हो सके

सज्दे जबीन-ए-शौक़ के अब राएगाँ नहीं

सज्दे जबीन-ए-शौक़ के अब राएगाँ नहीं
तू बे-हिजाब अंजुमन-आरा कहाँ नहीं

मैं मीर-ए-कारवाँ हूँ पस-ए-कारवाँ नहीं
हाथों में मेरे दामन-ए-मंज़िल कहाँ नहीं

मौजूदगी-ए-जन्नत-ओ-दोज़ख से है अयाँ
रहमत है एक बहर मगर बे-कराँ नहीं

चाहे हिजाब में रहो तो चाहे बे-हिजाब
हम तुम ही तो हैं और कोई दरमियाँ नहीं

बर्क़-ए-जमाल-ए-दोस्त न हो इस पे शौला जन
तेरा भी घर है सिर्फ़ मेरा आशियाँ नहीं

दिल-चस्पियाँ बहुत सी हैं इस इख़्तिसार में
कुछ ग़म नहीं शबाब अगर जावेदाँ नहीं

साकित फ़लक को मुफ़्त में ज़ालिम बना दिया
गर्दिश में है ज़मीन फ़क़त आसमाँ नहीं

नाम-काम-तर हैं मेरी शिकस्ता-नसीबियाँ
‘मख़मूर’ सिर्फ़ ज़ीस्त ही ना-कामराँ नहीं

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