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हवा नमनाक होती जा रही है

हवा नमनाक होती जा रही है
हवेली ख़ाक होती जा रही है

दरीचा खोलते ही थम गई है
हवा चालाक होती जा रही है

हमारे हौसलों के आगे मुश्किल
ख़स ओ ख़ाशाक होती जा रही है

लहू के हाथ धोए जा रहे हैं
नदी नापाक होती जा रही है

नई तहज़ीब से ये नस्ल-ए-नौ अब
बहुत बेबाक होती जा रही है

समुंदर थाम ले मौजों को अपनी
ज़मीं तैराक होती जा रही है

मोहब्बत नफ़रतों के बीच पल कर
बड़ी सफ़्फ़ाक होती जा रही है

ब-फ़ैज़-ए-शाइरी शहर-ए-हुनर में
हमारी धाक होती जा रही है

कोई सुबूत न होगा तुम्हारे होने का

कोई सुबूत न होगा तुम्हारे होने का
न आया फ़न जो क़लम ख़ून में डुबोने का

हर एक बात पे बस क़हक़हे बरतसे हैं
ये तर्ज़ कितना निराला है दिल के रोने का

शुरू तुम ने किया था तुम्हें भुगतना है
जो सिलसिला था ग़लत-फ़हमियों को बोने का

शिनाख़्त हो तो गई अपने और पराए की
नहीं है ग़म मुझे उम्र-ए-अज़ीज़ खोने का

‘रईस’ फ़िक्र-ए-सुख़न रात भर जगाती है
कोई भी वक़्त मुक़र्रर नहीं है सोने का

रोज़ इक ख़्वाब-ए-मुसलसल और मैं

रोज़ इक ख़्वाब-ए-मुसलसल और मैं
रात भर यादों का जंगल और मैं

हाथ कोई भी सहारे को नहीं
पाँव के नीचे है दलदल और मैं

सोचता हूँ शब गुज़ारूँ अब कहाँ
घर का दरवाज़ा मुक़्फ़ल और मैं

हर कदम तारीकियाँ हैं हम-रिकाब
अब कोई जुगनू न मिश्अल और मैं

है हर इक पल ख़ौफ़ रक़्साँ मौत का
चार सू है शोर-ए-मक़्तल और मैं

शेर कहना अब ‘रईस’ आसाँ नहीं
सामने इक चेहरा मोहमल और मैं

सफ़र ये मेरा अजब इम्तिहान चाहता है 

सफ़र ये मेरा अजब इम्तिहान चाहता है
बला के हब्स में भी बादबान चाहता है

वो मेरा दिल नहीं मेरी ज़बान चाहता है
मिरा अदू है मुझी से अमाँ चाहता है

हज़ार उस को वही रास्ते बुलाते हैं
क़दम क़दम वो नया आसमान चाहता है

अजीब बात है मुझे से मिरा ही आईना
मिरी शिनाख़्त का कोई निशान चाहता है

मैं ख़ुश हूँ आज कि मेरी अना का सूरज भी
मिरे ही जिस्म का अब साएबान चाहता है

मैं उस की बात की तरदीद कर तो दूँ लेकिन
मगर वो शख़्स तो मुझ से ज़बान चाहता है

वरक़ वरक़ तुझे तहरीर करता रहता हूँ

वरक़ वरक़ तुझे तहरीर करता रहता हूँ
मैं ज़िंदगी तिरी तशहीर करता रहता हूँ

बहुत अज़ीज़ है मुझ को मसाफ़तों की थकन
सफ़र को पाँव की ज़ंजीर करता रहता हूँ

मुसव्विरों को है ज़ोम-ए-मुसव्विरी लेकिन
मैं अपनी ज़ीस्त को तस्वीर करता रहता हूँ

मैं सौंप देता हूँ हर रात अपने ख़्वाबों को
हर एक सुब्ह को ताबीर करता रहता हूँ

सिपर बनाता हूँ लफ़्ज़ों को शेर में लेकिन
क़लम को अपने मैं शमशीर करता रहता हूँ

हज़ार ऐब ख़ुद अपने ही नाम में लिख कर
मैं तेरी राय हमा-गीर करता रहता हूँ

वो मेरी फ़िक्र में बदले का ज़हर घोलता है
मगर मैं ज़हर को इक्सीर करता रहता हूँ

मैं शहर शहर भटकता हूँ और रोज़ाना
ख़ुद अपनी ज़ात की तामीर करता रहता हूँ

लिखे हैं हिस्से में मेरे ‘रईस’ सन्नाटे
नवा-ए-वक़्त की तस्ख़ीर करता रहता हूँ

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