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जयप्रकाश कर्दम की रचनाएँ

आदमी और कविता

क्यों नहीं चलते साथ-साथ
आदमी और कविता जहां कविता है वहां आदमी नहीं है
जहां आदमी है वहां नहीं है कविता
दोनों के बीच बनी रहती है दूरी
कब तक खड़े रहेंगे अवरोध बनकर
कविता और आदमी के बीच
भारी-भारी सिद्धांत, विचार और शब्द
बनाते रहेंगे शुष्क और संवेदनहीन आदमी को
कहीं तो कोई जगह हो
वादों, विवादों की इस दुनियां में
जहां एक आदमी कर सके संवाद
दूसरे आदमी से
समझें वे एक-दूसरे की संवेदना बाटें एक-दूसरे का दर्द
वर्ण, जाति और सम्प्रदाय से ऊपर उठ
केवल आदमी बनकर
मनुष्यता के आवेग और
संवेदना के संवेग से अलग और क्या है कविता
फिर क्यों नहीं जुड़ते परस्पर
कविता और आदमी
आदमी और कविता?

ढोल

मैं हूं ढोल
चमड़े से मढा काठ का खोल
जन्म, शादी, मनादी
घर, दंगल, जंगल
होली हुड़दंग, मंगल
बजाया जाता हूं मैं
मनोरंजन और खुशी के हर मौके पर
अंगुलियों की थिरकन,
हथेली की थाप
या डंडी की चोट से
कभी धीमा, कभी तेज
हर थाप हर चोट पर
मैं दर्द से कराहता हूं
बिलबिलाता हूं
मुझ पर पड़ने वाली प्रत्येक चोट
बनाती है जख्म मेरे जिस्म पर
जितनी तगड़ी चोट
उतना गहरा जख्म
उतनी ऊंची चीख
आनन्दित होते हैं वे जिस पर
नाचते गाते हैं, तालियां बजाते हैं
नाच गाने और तालियों के शोर में
दबकर रह जाता है मेरा दर्द
ध्वनित होती है चीख
सुनाई पड़ती है जो
संगीत के रूप में।

देवभूमि

देवों का शासन
देवों का सम्मान
देवों का अधिपत्य
छीनती है जनों से
जीने का अधिकार-देवभूमि
नहीं जीने देते शान्ति से जनों को
शांति के दूत
हिंसा करते हैं अहिंसा के पुजारी
सत्य है सिर्फ वही, जो
देखते, सुनते और बोलते हैं-देव
वे ही हैं आंख, कान और मुंह
इस देवभूमि के
समझते हैं जनों को दास
सर्वत्र पाखण्ड, प्रवंचना, प्रपंच
विभेद, विखण्डन
पीड़ा-प्रतारणा, उत्पीड़न
काम से अधिक बात बोलती है
मुंह से अधिक लात बोलती है
आदमी से अधिक जाति बोलती है
इस देवभूमि पर
देवों के लिए जाति एक गर्व है
सामाजिक पर्व है
लेकिन जनों को यह
घुन की तरह खाती है
जोंक की तरह चूंसती है
सर्प की तरह डसती है
जाति की गति आदमी से तेज होती है
जहां भी जाता है आदमी
उससे पहले पहुंचती है उसकी जाति
और रहती है अस्तित्व में
आदमी के न रहने पर भी
उसके नाम के साथ
इस देवभूमि पर।

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