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जया झा की रचनाएँ

मन के साथ भटकना होगा

मन के पीछे चलने वाले,

मन के साथ भटकना होगा।

हाँ, अभी देखी थी मन ने

रंग-बिरंगी-सी वह तितली

फूल-फूल पे भटक रही थी

जाने किसकी खोज में पगली।

पर वह पीछे छूट गई है

इन्द्रधनुष जो वह सुन्दर है

अब उसको ही तकना होगा।

मन के पीछे चलने वाले,

मन के साथ भटकना होगा।

बच्चों-सा जो कल सीधा था

और कभी किशोर-सा चंचल

आज वयस्कों-सा वह दूर, क्यों

रूप बदलता है पल-पल?

मन घबराए, गुस्सा आए

चोट लगे, आँसू आ जाएँ

हर कुछ को ही सहना होगा।

मन के पीछे चलने वाले,

मन के साथ भटकना होगा।

मन के साथ भटकना होगा

मन के पीछे चलने वाले,

मन के साथ भटकना होगा।

हाँ, अभी देखी थी मन ने

रंग-बिरंगी-सी वह तितली

फूल-फूल पे भटक रही थी

जाने किसकी खोज में पगली।

पर वह पीछे छूट गई है

इन्द्रधनुष जो वह सुन्दर है

अब उसको ही तकना होगा।

मन के पीछे चलने वाले,

मन के साथ भटकना होगा।

बच्चों-सा जो कल सीधा था

और कभी किशोर-सा चंचल

आज वयस्कों-सा वह दूर, क्यों

रूप बदलता है पल-पल?

मन घबराए, गुस्सा आए

चोट लगे, आँसू आ जाएँ

हर कुछ को ही सहना होगा।

मन के पीछे चलने वाले,

मन के साथ भटकना होगा।

हो रही है बेचैनी सी

हो रही है बेचैनी सी, कुछ तो लिखना है मुझे,

ना हो बात जो ख़ुद पता पर, वो कोई कैसे कहे?

इंतज़ार की आदत जिसको, बरसों से है हो गई

मिलन के सपने बुनने की समझ उसे कैसे मिले?

उजड़े महलों पर ही नाचना, जिसने हरदम सीखा हो

रंगशाला की चमक भला, कैसे उसकी आँख सहे?

जिसने हँसना सीखा है, ज़िन्दग़ी के मज़ाक पर

दे देना मत उसको ख़ुशी, ख़ुशी का वो क्या करे?

सवाल

सवाल कईयों ने पूछे हैं,
मैं पहली नहीं हूँ।
सवाल सभी पूछते हैं,
मैं अकेली नहीं हूँ।

पर बहुत से लोग
सवाल पूछ-पूछ कर थक गए।
जवाब मिलने की तो छोड़ो
कोई अलग रास्ता तक न सूझा।
उसी लीक पर चलते गए।

और मैं?
क्या कम-से-कम
अलग रास्ता अपना पाऊंगी?
या यों ही अपने सारे सवाल लिए
एक दिन ख़ुद भी चली जाऊंगी।

अधूरापन 

है नहीं कुछ फिर क्यों भारी मन है,
दिन के अंत में कैसा अधूरापन है?

बोझिल आँखें, चूर बदन हैं, थके कदम से
कहाँ रास्ता मंज़िल का भला पाता बन है?

अधूरेपन की कविताएँ भी अधूरी ही रह जाती हैं,
पूरा कर पाए इन्हें, कहाँ कोई वो जन है?

कौन सा है रास्ता जो यों मुझे बुला रहा?

कौन सा है रास्ता जो यों मुझे बुला रहा?

धुंधला ये स्वप्न मुझे कौन है दिखा रहा?

बदली कई बार मग़र राह अभी मिली नहीं

चलने को जिसपर मेरा मन कुलबुला रहा।

बैठी थी यों ही, पर वैसे ना रह सकी

सफ़र कोई और है जो मुझे बुला रहा।

यहाँ-वहाँ, कहीं-कोई, झकझोर सा मुझे गया

कोई है सवाल जो पल-पल मुझे सता रहा।

कौन सा है रास्ता जो यों मुझे बुला रहा?

कौन सा है रास्ता जो यों मुझे बुला रहा?

धुंधला ये स्वप्न मुझे कौन है दिखा रहा?

बदली कई बार मग़र राह अभी मिली नहीं

चलने को जिसपर मेरा मन कुलबुला रहा।

बैठी थी यों ही, पर वैसे ना रह सकी

सफ़र कोई और है जो मुझे बुला रहा।

यहाँ-वहाँ, कहीं-कोई, झकझोर सा मुझे गया

कोई है सवाल जो पल-पल मुझे सता रहा।

देखने में रास्ता छूट गए हैं सब नज़ारे

देखने में रास्ता छूट गए हैं सब नज़ारे,

मिल गई मंज़िल मग़र कब मिलेंगे अब नज़ारे।

नहीं थी देनी फुर्सत गर देख पाने की हमें,

रास्तों के बगल मे क्यों दिए थे रब नज़ारे?

पहुँच कर भी मंज़िल पर हारे हुए से हम रहे,

पीछे खड़ा-खड़ा ही पर देख रहा है जग नज़ारे।

मंज़िल यों बेज़ार है कि ख़याल ये भी आता है

सच है मंज़िल या कहो फिर सच कहीं थे बस नज़ारे।

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