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क्या मालूम है तुम्हें

क्या
मालूम है
तुम्हें

पर्दे के पीछे
बेतरह
रूठ गई है
वह

उसकी
मात्राएँ
झाँकती हैं
अथाह हरे की सलों में

उसके शब्द
हृदय की रेत पर
तड़पते से कुछ जीव हैं अक्स में

उसके अर्थ
तुम्हारे अंगों में
ख़ून की तरह
श्वेत और मौन हैं

बहुरंगी मेघों से
अश्रुबिन्द
बरस
जाते हैं
स्वरों की मुण्डेर पर

तब भी नहीं आती वह
नहीं आती
तब भी

नहीं आती वह
आती नहीं वह

नीलमणि मुख पोखर में खड़ा सूर्य

नीईईईईल—मणि—-मुख
पोखर में खड़ा सूर्य

झलक गया अभी से
बिम्ब भी
साँझ की आमद का

चन्द्रमा
खींच लिये चलता है अपना चित्र

पानी से बहुत दूर दूर वहाँ
और
अनिद्रा में डूबे हुए वे श्वेत से कुछ पंख

उस ओर शायद प्रतीक्षा करती बैठी हो
कागज़ की

वह, रसभरी !

जिस भी सेमल की छीम्बी से उडती है वह

जिस भी सेमल की छीम्बी से उड़ती है वह
जिस भी दूर्वा की ओसभरी लोच में नम
जिस भी हरे साँप के नीचे से रेंग जाती है घास में
जिस भी दुधमुँहे दाँत से काट लेती है कुचाग्र को
जिस भी ईश्वर में घुलनशील है अनास्था की केंचुल में
जिस भी पत्ती से क्षमा माँगती है कि आत्माएँ मर्त्य हैं
जिस भी गर्भ में सुनती है व्यूह में प्रवेश की
जिस भी नक्षत्र पर सवार वह निहारती है पितरों के श्वेत को

वह रहे !

अपने व्योम में स्वच्छ
और पारभासी

आए न आए यहाँ

वह रहे !

भाषा के साथ खेल सकते हो

भाषा के साथ खेल सकते हो
(खेले भी हो ज़ार-ज़ार उसकी ध्वनियों और नुक्तों से)

क्या खेलोगे उससे भी—?

उस परछाईयों के बुने नृत्य से
साँसों की उस अन्यमनस्क माला से
सुगन्ध से बहके हुए उस झोंके से
जिसे सहेज नहीं सकती तुम्हारी पलकें

मालती के वे फीके गुलाबी फूल
नारंगी ग्रीवा से मुरझाते हुए वे पारिजात
जासोन के वे सुर्ख घने बिम्ब जो तुम्हे चूमकर डूब जाते हैं साँझ में
वह मत्स्या जो कन्या के भेस में तुम्हारे ममत्व को टँकार जाती है
वह देही जो तुम्हारी देह में किसी मर्त्य गीत को गुनगुनाती है

क्या खेलोगे उससे भी जिसे कभी-कभी कविता कह देते हो तुम?

भाषा से खेल सकते हो

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