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‘फ़ज़ा’ इब्न-ए-फ़ैज़ी की रचनाएँ

बहुत जुमूद था बे-हौसलों में क्या करता

बहुत जुमूद था बे-हौसलों में क्या करता
न लगती आग तो मैं जंगलों में क्या करता

इक इम्तिहान-ए-वफ़ा है ये उम्र भर का अज़ाब
खड़ा न रहता अगर ज़लज़लों में क्या करता

हो चोब गीली तो आख़िर जलाए कौन उस को
मैं तुझ को याद बुझे वलवलों में क्या करता

मेरी तमाम हरारत ज़मीं का वरसा है
ये आफ़ताब तेरे बादलों में क्या करता है

अब इस क़दर भी तरफ़-दार मैं नहीं उस का
हिमायत उस की ग़लत-फै़सलों में क्या करता

ये लोग वो हैं जो बे-जुर्म संग-सार हुए
हरीफ़ रह के तेरे मनचलों में क्या करता

मैं उस के चेहरे की रंगत नहीं जो उड़ न सकूँ
समेट कर वो मुझे आँचलों में क्या करता

अदब से राबता दानिश का जानता ही नहीं
उलझ के वो भी मेरे मसअलों में क्या करता

न रास आई कभी मुझ को बज़्म-ए-कम-नज़राँ
‘फ़जा’ भी बैठ के न पागलों में क्या करता

हाथ फैलाओं तो सूरज भी सियाही देगा

हाथ फैलाओं तो सूरज भी सियाही देगा
कौन इस दौर में सच्चों की गवाही देगा

सोज़-ए-अहसास बहुत है इसे कम-तर मत जान
यही शोला तुझे बालीदा-निगाही देगा

यूँ तो हर शख़्स ये कहता है खरा सोना हूँ
कौन किस रूप में है वक़्त बता ही देगा

हूँ पुर-उम्मीद के सब आस्तीं रखते हैं यहाँ
कोई ख़ंजर तो मेरी प्यास बुझा ही देगा

शब गुज़ीदा को तेरे इस की ख़बर ही कब थी
दिन जो आएगा ग़म-ए-ला-मुतनाही देगा

आईना साफ़ दिल इतना भी नहीं अब कि तुम्हें
अस्ल चेहरे के ख़त ओ ख़ाल दिखा ही देगा

तेरे हाथों का क़लम है जो असा-ए-दरवेश
यही एक दिन मुझे ख़ुर्शीद-कुलाही देगा

हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला

हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
किताब का न कोई दर्स मोअतबर निकला

नफ़स तमाम हुआ दास्तान ख़त्म हुई
जो था तवील वही हर्फ़ मुख़्तसर निकला

जो गर्द साथ न उड़ती सफ़र न यूँ कटता
ग़ुबार-ए-राह-गुज़र मौज-ए-बाल-ओ-पर निकला

मुझे भी कुछ नए तीशे सँभालने ही पड़े
पुराने ख़ोल को जब वो भी तोड़ कर निकला

फ़ज़ा कुशादा नहीं क़त्ल-गाह की ये कहाँ
मेरे लहू का परिंदा उड़ान पर निकला

वो आदमी के जो महमिल था आफ़ताबों का
ब-क़द्र यक दो कफ़-ए-ख़ाक-रह-गुज़र निकला

ये रात जिस के लिए मैं ने जाग कर काटी
मिला वो शख़्स तो ख़्वाबों का हम-सफ़र निकला

उढ़ा दी चादर-ए-इस्मत उसे ख़यालों ने
हर एक लफ़्ज़ ज़बाँ से बरहना सर निकला

‘फज़ा’ तुम उलझे रहे फ़िक्र ओ फ़लसफ़ें में यहाँ
ब-नाम-ए-इश्क़ वहाँ क़ुरअ-ए-हुनर निकला

ज़बीं पे गर्द है चेहरा ख़राश में डूबा

ज़बीं पे गर्द है चेहरा ख़राश में डूबा
हुआ ख़राब जो अपनी तलाश में डूबा

क़लम उठाया तो सर पर कुलाह-ए-कज न रही
ये शहर-यार भी फ़िक्र-ए-मआश में डूबा

झले है पंखा ये ज़ख़्मों पे कौन आठ पहर
मिला है मुझ को नफ़स इर्तआश में डूबा

इसे न क्यूँ तेरी दिलदारी-ए-नज़र कहिये
वो नीश्तर जो दिल-ए-पाश-पाश में डूबा

‘फ़ज़ा’ है ख़ालिक-ए-सुब्ह-ए-हयात फिर भी ग़रीब
कहाँ कहाँ न उफ़ुक़ की तलाश में डूबा

खुला न मुझ से तबीअत का था बहुत गहरा

खुला न मुझ से तबीअत का था बहुत गहरा
हज़ार उस से रहा राबता बहुत गहरा

बस इस क़दर के ये हिजरत की उम्र कट जाए
न मुझ ग़रीब से रख सिलसिला बहुत गहरा

सब अपने आईने उस ने मुझी को सौंप दिए
उसे शिकस्त का एहसास था बहुत गहरा

मुझे तिलिस्मि समझता था वो सराबों का
बढ़ा जो आगे समुंदर मिला बहुत गहरा

शदीद प्यास के आलम में डूबने से बचा
क़दह तो क्या मुझे क़तरा लगा बहुत गहरा

तु उस की ज़द में जो आया तो डूब जाएगा
ब-क़द्र-ए-आब है हर आइना बहुत गहरा

मिलेंगे राह में तुझ को चराग़ जलते हुए
कहीं कहीं है मेरा नक़्श-ए-पा बहुत गहरा

तलाश-ए-मानी-ए-मक़सूद इतनी सहल न थी
मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ उतरता गया बहुत गहरा

जो बात जान-ए-सुख़न थी वही रही ओझल
लिया तो उस ने मेरा जाएज़ा बहुत गहरा

क़दीम होते हुए मुझ से भी जदीद है वो
असर है उस पे मेरे दौर का बहुत गहरा

‘फज़ा’ हमें तो है काफ़ी यही ख़ुमार-ए-वजूद
है बे-शराब भी हासिल नशा बहुत गहरा

लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा

लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा
यहाँ भी काम न अर्ज़-ए-हुनर से निकलेगा

हर एक शख़्स है बे-सम्तियों की धुँद में गुम
बताए कौन के सूरज किधर से निकलेगा

करो जो कर सको बिखरे हुए वजूद को जमा,
के कुछ न कुछ तो ग़ुबार-ए-सफ़र से निकलेगा

मैं अपने आप से मिल कर हुआ बहुत मायूस
ख़बर थी गर्म के वो आज घर से निकलेगा

है बर्फ़ बर्फ़ अभी मेरे अहद की रातें
उफ़क़ जलेंगे तो शोला सहर से निकलेगा

ये क्या खबर थी के ऐ रंज-ए-राएगाँ-नफ़सी
धुआँ भी सीना-ए-अल-ए-नज़र से निकलेगा

मेरी ज़मीं ने ख़ला में भी खींच दी दीवार
तू आसमाँ सही किस रह-गुज़र से निकलेगा

तमाम लोग इसी हसरत में धूप धूप जले
कभी तो साया घनेरे शजर से निकलेगा

समो न तारों में मुझ को के हूँ वो सैल-ए-नवा
जो ज़िंदगी के लब-ए-मोतबर से निकलेगा

फिरा हूँ कासा लिए लफ़्ज लफ़्ज के पीछे
तमाम उम्र ये सौदा न सर से निकलेगा

‘फ़जा’ मता-ए-क़लम को सँभाल कर रक्खो
के आफ़ताब इसी दुर्ज-ए-गोहर से निकलेगा

मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कोहन में ऐसा

मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कोहन में ऐसा
कौन आवारर फिरा कूचा-ए-फ़न में ऐसा

हम भी जब तक जिए सर-सब्ज़ ही सर-सब्ज़ रहे
वक़्त ने ज़हर उतारा था बदन में ऐसा

ज़िंदगी ख़ुद को न इस रूप में पहचान सकी
आदमी लिपटा है ख़्वाबों के कफ़न में ऐसा

हर ख़िजाँ में जो बहारों की गवाही देगा
हम भी छोड़ आए हैं इक शोला चमन में ऐसा

लोग मुझ को मेरे आहंग से पहचान गए
कौन बद-नाम रहा शहर-ए-सुख़न में ऐसा

अपने मंसूरो को इस दौर ने पूछा भी नहीं
पड़ गया रख़ना सफ़-ए-दार-ओ-रसन में ऐसा

है तज़ादों भारी दुनिया भी हम-आहंग बहुत
फ़ासला तो नहीं कुछ संग ओ समन में ऐसा

वक़्त की धूप को माथे का पसीना समझा
मैं शराबोर रहा दिल की जलन में ऐसा

तुम भी देखो मुझे शायद तो न पहचान सको
ऐ मेरी रातों में डूबा हूँ गहन में ऐसा

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