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फ़र्रुख़ ज़ोहरा गीलानी की रचनाएँ

बीते लम्हे कशीद करती हूँ

बीते लम्हे कशीद करती हूँ
इस तरह जश्न-ए-ईद करती हूँ

जब भी जाती हूँ शहर-ए-शीशागराँ
कुछ मनाज़िर ख़रीद करती हूँ

मैं हवाओं से दुश्मनी ले कर
कितने तूफ़ाँ मुरीद करती हूँ

मेरी आँखें मिरा हवाला हैं
अपनी आँखों की दीद करती हूँ

मिरे जज़्बे मिरी शहादत हैं
बहते आँसू शहीद करती हूँ

सुब्ह तारे को देख कर ‘फ़र्रूख़’
अपनी सुब्हें सईद करती हूँ

दयार-ए-फ़िक्र-ओ-हुनर को निखारने वाला

दयार-ए-फ़िक्र-ओ-हुनर को निखारने वाला
कहाँ गया मिरी दुनिया सँवारने वाला

फिर उस के बाद कभी लौट कर नहीं आया
वफ़ा के रंग नज़र में उतारने वाला

मुझे यक़ीं है कि ख़ुशबू का हम-सफ़र होगा
गुलाब हुस्न-ए-मोहब्बत के वारने वाला

हमारी दीद को रक़्स-ए-शरार छोड़ गया
जुदाइयों की शब-ए-ग़म गुज़ारने वाला

अभी तलक है सदा पानियों पे ठहरी हुई
अगरचे डूब चुका है पुकारने वाला

होश-ओ-ख़िरद गँवा के तिरे इंतिज़ार में

होश-ओ-ख़िरद गँवा के तिरे इंतिज़ार में
गुम कर दिया है ख़ुद को ग़मों के ग़ुबार में

मैं उस के साथ साथ बहुत दूर तक गई
अब उस को छोड़ना भी नहीं इख़्तियार में

रंग-ए-हिना है आज भी मम्नून इस लिए
मेरे लहू का रंग था जश्न-ए-बहार में

इक वस्ल की घड़ी का तरसती रही सदा
इक तिश्नगी सदा रही दिल के दयार में

हर शख़्स को फ़रेब-ए-नज़र ने किया शिकार
हर शख़्स गुम है गुम्बद-ए-जाँ के हिसार में

तन्हा छोड़ के जाने वाले इक दिन पछताओगे

तन्हा छोड़ के जाने वाले इक दिन पछताओगे
आस का सूरज डूब रहा है लौट के घर कब आओगे

नफ़रत का महसूर किया है उल्फ़त की दीवारों में
जिन राहों से गुज़रोगे तुम प्यार की ख़ुशबू पाओगे

दिल की वीराँ नगरी पे अब ग़म के बादल छाए हैं
दुख की काली रात में बोलो कब तक साथ निभाओगे

कोयल तो पत्थर के डर से आख़िर को उड़ जाएगी
बादल तो पागल है उस को कैसे तुम समझाओगे

तुम तो ख़ुद सहरा की सूरत बिखरे बिखरे लगते हो
‘फ़र्रूख़’ से ‘फ़र्रूख़’ को सोचो कैसे तुम मिलवाओगे

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