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बाबा नागार्जुन की एक याद

दिल्ली में रहते हुए भी
बाबा
कभी नहीं तुम आए बंगाली मार्केट

गीता मन्दिर के सामने वाली गली में
तुमने नहीं देखा-
बच्चा गुलमोहर

कश्मीर के निशात, शालीमार और हर्मन गार्डन में
तुम उछल पड़ते थे बच्चा चिनार
और मैगनोलिया देखकर

अब वे वृक्ष ज़रूर बुजुर्ग हो गए होंगे
उन्हें तो पता भी नहीं होगा कि
कभी हिन्दी के एक बड़े कवि ने प्यार से उन्हें सहलाया था

अब बच्चा गुलमोहर
अमलतास को कौन सहलाए
वे कर रहे हैं तुम्हारा इन्तज़ार
शायद कभी तुम आओ

बाबर का पड़ोस

यदि बाबर का पड़ोस
इतिहास सम्मत नहीं लगता
तो आप कुछ नहीं कर सकते

नई दिल्ली नगर-निगम के लोग
इतिहास नहीं जानते

बाबर रोड तो ठीक
लेकिन आसपास तानसेन, टोडरमल
बाबर की वंश परम्परा
हुमायूँ, अकबर, औरंगज़ेब
कितनी दूर
क्या करेंगे आप?

इतिहास तो बदलेगा नहीं
और नई दिल्ली नगर-निगम के इतिहास-बोध को
बदलना सम्भव नहीं

रहने दीजिए बाबर को गलियों में
कूचे में
मुगलवंश के निर्माता की
ऎसी स्थिति
हैरानी की बात नहीं
कि उसके पास-पड़ोस में बाज़ार लेन, सेन्ट्रल लेन,
स्कूल लेन के बीच बाबर लेन भी है
बंगाली मार्केट में
उजड़ा हुआ पड़ोस नहीं
जीवन्त और धड़कता हुआ
पड़ोस है बाबर का।

घर का टूटना

भले सरकारी मकान हो

लेकिन जिस घर में
आप रह रहे हों
दस साल से

जिस घर से
जुड़ा रहा है आपका सुख-दुख
कमरे से, दीवारों से, खिड़कियों से
आँगन से, छत से

उस घर को
टूटते हुए देखना
अपने अतीत को मिटाना है
वर्तमान में अकेला होना है।

आज से ठीक पचपन वर्ष पहले

आज से ठीक पचपन वर्ष पहले
युवा कवि कुंवर नारायण
नाज़िम हिक़मत के साथ थे
वारसा में

ठीक उसी वर्ष वहीं उनकी भेंट हुई थी पाब्लो नेरूदा से
१९५५ में
तब क्या उम्र रही होगी कुंवर नारायण की?
जन्म १९ सितंबर १९२७
तब वे अट्ठाईस वर्ष के रहे होंगे
बिल्कुल युवा कवि
कविताएँ वे लिख रहे थे निरंतर
लेकिन तब तक उनकी कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई थी
और न कविता की दुनिया में उनका नाम था

‘युगचेतना’ के संपादन से वे जुड़े थे
साहित्यिक हलचल तो जरूर रही होगी उनके भीतर
‘तीसरा सप्तक’ तो निकला चार वर्षों बाद १९५९ में
अलबत्ता उनका पहला कविता संग्रह ‘चक्रव्यूह’ निकला १९५६ में
मुझे नहीं मालूम क्यों और कैसे पहुँचे थे कुंवर नारायण वारसा १९५५ में
लेकिन विश्व के दो महान कवियों-नाज़िम हिक़मत और पाब्लो नेरूदा से मिलने का उन्हें सौभाग्य मिला
वारसा में
१९५५ में

और उन्होंने उन ऐतिहासिक क्षणों को याद किया
ठीक पचपन वर्षों बाद
कितनी बदली होगी इस बीच कवि की आंतरिक दुनिया
कितनी बदल गई इस बीच दुनिया
हिन्दी के शीर्षस्थ कवि हो गए कुंवर नारायण
समाज ने उन्हें मान-सम्मान दिया
दिया भारतीय साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ

तिरासी के हुए कुंवर नारायण
लेकिन नहीं भूले १९५५ को
वारसा को
नाज़िम हिक़मत के साथ के क्षणों को
पचपन वर्षों बाद
‘वे मास्को से वारसा आए थे
तुर्की के कठोर जेल-जीवन की थकान
अभी ताज़ा थी उनके चेहरे पर’

नाज़िम हिकमत के संग-साथ ने
वारसा के एक रेस्त्राँ में
बार-बार की मुलाक़ातों से
किस तरह भर दिया था तब
एक युवा कवि का शुरूआती जीवन
अपनी अदम्य जिजीविषा से
अब भी अच्छी तरह याद है
तिरासी वर्षीय कवि कुंवर नारायण को

पाब्लो नेरूदा से
वारसा के ही एक होटल में उनकी भेंट हुई थी १९५५ में
वारसा का ब्रिस्टल होटल
‘जो एक तबाह नगर का
बचा-खुचा वैभव था ।’
गाँधी के देश का एक युवा कवि
चाय पी रहा था पाब्लो नेरूदा के साथ
वारसा में
और चाय का वाष्प उठ रही थी भारत में
१९५५ में

यहाँ मुझे याद आ रही है राजकमल चौधरी की लंबी कविता
‘मुक्ति-प्रसंग’ की पंक्तियाँ-
‘क्यों एक ही दर्द मेरी कमर की हड्डियों में होता है/और वियतनाम में ।
तब इक्यावन वर्ष थे पाब्लो नेरूदा
और अट्ठाईस वर्ष के थे कुंवर नारायण

लेकिन अलग-अलग दिशाओं में वायुयान से उड़ते हुए
दोनों एक साथ देख रहे थे ऊँचाई से पृथ्वी को
दूर-दूर तक फैले यथार्थ को-‘माच्चू-पिच्चू के शिखर’
मनुष्य की नियति को

दोनों के सामने पसरे थे
द्वितीय विश्वयुद्ध की त्रासदी के अवशेष
एक युद्ध-आहत नगर में
तेज़ी से लौटता जीवन
जीवन का स्पंदन
बची-खुची मानवता

आचार्य शुक्ल ने ‘कविता क्या है?’ लेख को तीन बार ड्राफ्रट किया
लेकिन कभी भी ठीक से पता नहीं चलता
कहाँ से उगती है कविता?
जीवन के भीतर से या बाहर से
समय के अंतराल से या
बची-खुची स्मृतियों से

मैं कृतज्ञ हूँ कवि कुंवर नारायण का
पचपन वर्षों बाद एक साथ इन दोनों महाकवियों से मिलने-जैसा सुख मुझे मिला
कृतज्ञता में उठे हैं मेरे हाथ
मैं एक साथ मिल रहा हूँ नाज़िम हिक़मत से, पाब्लो नेरूदा से और कुंवर नारायण से
पचपन वर्षों बाद
वारसा में
मिला रहा हूँ इनसे हाथ
वारसा में
१९५५ में
ठीक आज से पचपन वर्ष पहले ।

स्मृति में वसन्त

वर्षों बाद कौन्धा है आज स्मृति में वसन्त
आसपास ज़रूर कहीं खिले होंगे फूल
इस वसन्त में झमाझम बरसी हैं बारिश की बून्दें
कितना भीगे हम ?
कहीं दूर समुद्र में उठी होंगी
उत्ताल तरंगें भी
समुद्र में कितना डूबे हम ?
इस महानगर में कौन आज हमें बताएगा
कहीं शारदीय पूर्णिमा तो नहीं आज ?

यह कैसे हुआ
अचानक खुली खिड़की से
सहसा प्रवेश किया वसन्त ने
हिला गया मेरे पूरे तन-मन को
नहीं, मेरे पूरे अस्तित्त्व को

नहीं भाई, यह सपना नहीं है
न फ़ैण्टेसी
लेकिन वसन्त चुपचाप शान्त
पूरी उत्तेजना के साथ
हमारे भीतर से गुज़र गया
अब तक काँप रहे हैं
थरथरा रहे हैं
मेरे कमरे के सोफ़ा सेट,
बेड, कुरसी, टेबल

लेकिन अब कहीं नहीं है वसन्त
बस, उसकी एक स्मृति है
पीछे छूटी एक अनुगूँज !

असहज शब्द

शब्दों की शक्ति से ही नहीं
उसके सम्प्रेषण की अदा से भी मैं परिचित था
लेकिन शब्द नहीं काम आए इस बार

ख़ुद आँख शब्द बन गईं
और वसन्त की उस साँझ को
मैंने अपने सपनों में पूरा का पूरा उतार लिया
सुख, सुख और सुख

अभी-अभी स्पर्श कर मुझे
गुज़र गया वसन्त
लेकिन कहीं भीतर झकझोर गया मुझे
वसन्त ।

गाँव की स्मृति

गरमी के दिनों में
बचपन में
माँ पंखा झलती थी

राजा-महाराओं
और परियों की कहानियाँ
सुनाया करती थी
तब गाँव में बिजली नहीं थी

अब शहर में मैं ख़ुद पंखा झलता हूँ
संघर्ष से जूझते लोगों की कहानियाँ पढ़ता हूँ
पंखा झलती माँ बराबर याद आती है
और शहर में बिजली है

समारम्भ

हमने कभी नहीं कहा था
दूसरी आज़ादी आई है
हमने कभी नहीं शपथ खाई थी
गाँधी की समाधि पर राजघाट में
न हमने तुम्हें झूठा आश्वासन दिया था
हम ग़रीबी मिटाएँगे
तुम्हें जीने की सहूलियतें देंगे ।

हम तो तुम्हें तैयार कर रहे थे
एक असरदार लड़ाई के लिए
लेकिन तुम बहकावे में आ गए
अपने लोगों के
जिन्होंने तुम्हें बदली के दिन भी
सूरज दिखाया था
और तुम उनके पीछे हो लिए थे
यह कहते हुए कि सूरज कितना चमक रहा है
अब न रहेगी ग़रीबी
और न अब मरेगा कोई भूख से ।

मृत्यु

मरने के बाद
आदमी अचानक नहीं गायब हो जाता है
घर से

धीरे-धीरे मिटता है उसका वजूद
घर के कोने-अन्तरे से
एक रोज़ उठाकर
कोई पहन लेता है
उसकी कमीज़
किसी के पाँव में फ़िट बैठ जाता है
उसका जूता
फालतू चीज़ समझकर
कोई ले जाता है उसकी क़लम
और एक दिन उसका बिस्तरा भी
खिसक जाता है
उसके बिस्तर पर सोने वाला
क्या उसी तरह सपना देखता है
उसे भी डर लगता है सपने में ?

मरने के बाद
आदमी
अचानक नहीं गायब हो जाता है
घर से

लेकिन धीरे-धीरे एक दिन
घर से
गायब हो जाती है
उसकी पार्श्व-छाया भी ।

फिर वह देखने के लिए
नहीं लौटता है
किसके हिस्से लगी उसकी आदमियत
उसके जीवन-भर की कमाई जमा-पूँजी !

लेकिन सचमुच मर जाता है
आदमी उसी दिन
जिस दिन अपने लोगों की स्मृतियों से
निकल जा

नौकरी

बॉस ने कहा  :
सोचना तुम्हारा काम नहीं
हम हैं सोचने के लिए

बॉस ने कहा  :
देखना तुम्हारा काम नहीं
हम हैं देखने के लिए

बॉस ने कहा  :
तुम जो सोचते हो
वह सही नहीं है
आख़िर मेरा भी तो अनुभव है
क्या ठीक है, क्या ग़लत है ?
किसमें सरकार का फ़ायदा है,
किसमें नुक़सान है

हम सरकार हैं,
हम निर्णय करेंगे
क्या सही है, क्या ग़लत है ।

ता है ।

 

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