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रात ढलने लगी, चाँद बुझने लगा

रात ढलने लगी, चाँद बुझने लगा,
तुम न आए, सितारों को नींद आ गई ।

धूप की पालकी पर, किरण की दुल्हन,
आ के उतरी, खिला हर सुमन, हर चमन,
देखो बजती हैं भौरों की शहनाइयाँ,
हर गली, दौड़ कर, न्योत आया पवन,

बस तड़पते रहे, सेज के ही सुमन,
तुम न आए बहारों को नीद आ गई ।

व्यर्थ बहती रही, आँसुओं की नदी,
प्राण आए न तुम, नेह की नाव में,
खोजते-खोजते तुमको लहरें थकीं,
अब तो छाले पड़े, लहर के पाँव में,

करवटें ही बदलती, नदी रह गई,
तुम न आए किनारों को नींद आ गई ।

रात आई, महावर रचे साँझ की,
भर रहा माँग, सिन्दूर सूरज लिए,
दिन हँसा, चूडियाँ लेती अँगडाइयाँ,
छू के आँचल, बुझे आँगनों के दिये,

बिन तुम्हारे बुझा, आस का हर दिया,
तुम न आए सहारों को नीद आ गई ।

बहारों के दिन हैं कि पतझड़ का मौसम

बहारों के दिन है कि पतझड़ का मौसम,
यही प्रश्न फुलवारियों से तो पूछो;
है शबनम में भीगी कि आँसू में डूबी,
ज़रा बाग की क्यारियों से तो पूछो;

अभी भी हज़ारों अधर ऐसे जिन पर,
न मुस्कान के पान अब तक रचे है;
हँसी चीज़ क्या है, ख़ुशी चीज़ क्या है,
यही प्रश्न लाचारियों से तो पूछो ।

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