वो नहीं भूलती
अपनी अँगूठी
कहीं रखकर भूल गई
भूल जाती है अक्सर
वो इन दिनों
दराज़ की चाबी कहीं
कभी गैस पर कड़ाही चढ़ाकर
कई बार तो
गाड़ी चलाते वक़्त
चौराहे पर रुककर सोचने लगती है
कि उसे जाना कहाँ था
वो भूलती है
बारिश में अलगनी से कपड़े उतारना
चाय में चीनी डालना
और अख़बार पढ़ना भी
आश्चर्य है
इन दिनों वो भूल गई है
बरसात में भीगना
तितलियों के पीछे भागना
काले मेघों से बतियाना और
पंछियों की मीठी बोली
दुहराना भी
मगर वो नहीं भूली
एक पल भी
वो बातें ,जो उसने की थी उससे
प्रेम में डूबकर
कभी नहीं भूलती वो
उन बातों का दर्द और दंश
जो उसी से मिला है
फ़रेब से उगा आया है
सीने में कोई नागफनी
वो नहीं भूलती
झूठी बातों का सिलसिला
सच सामने आने पर किया गया
घृणित पलटवार भी
घोर आश्चर्य है
कैसे वो भूल जाती है
हीरे की महँगी अँगूठी कहीं भी रखकर
कई बार तो ख़ुद को भी भुला दिया
मगर नहीं भूलती
मन के घाव किसी भी तरह।
जड़ें जमती नहीं
जड़ें कहीं जमती नहीं
तो पीछे कुछ भी नहीं छूटता
ज़िंदगी ख़ानाबदोश सी
रही अब तक
जब तक रहे, वहीं के हुए
फिर कहीं के नहीं हुए
लगता है इस बार
जड़ें जम गईं हैं गहरे तक
कष्ट होता है
निकलने में, बढ़ने में
छूटने का अहसास
लौटा लाता है बार-बार
जंगल सी खामोशी
महसूस होती है
कई बार आसपास
रात विचरते किसी पक्षी
की तरह
कोई चीख़ उठता है
मैं हूँ, रहूँगा, हाँ ….रहूँगा
मोमबत्ती की लौ
थरथरा उठती है कमरे में
फीकी चाँदनी में
सरसराते हैं चीड़ के पत्ते
कोई जाता दिखता है
उसी क्षण लौटता भी
एक दर्द उभरता है
जो आनंद में भी उपजा था
जो पीड़ा में भी है
यह जम जाने का दर्द है
किसी के भीतर
उतरने का आनंद है
कौन बाँध गया खूँटे से
जिसे भुलाना है
वो और याद आता है
जो याद रहता है हर पल
उसे भूल जाने की ख़्वाहिश है
कौन आवाज़ देता है
जाने क्या-क्या छूटता सा लगता है।
क्या करें हम!
हल्की-हल्की-सी बारिश
और तनहा यहाँ हम
ऐसे में तुझको याद न करें
तो और क्या करें हम
पत्तों पर ठहरी शबनम
और बूँदों के नीचे ठहरें हम
इस बयार में तेरा नाम न पुकारें
तो और क्या करें हम
आसमान जब देता है
धरती को बारिश की थपकी
ऐसे में सावन को ना निहारें
तो और क्या करें हम
डाकिया बन बूँदें
पहुँचाती है यादों के ख़त
ऐसे में किवाड़ न खोलें
तो और क्या करें हम
उमड़ते काले बादलों को देख
नाच उठता है मन-मयूर
ऐसे में ख़ुद को ना सवारें
तो और क्या करें हम!
पिता
लोरियों में कभी नहीं होते पिता
पिता होते हैं
आधी रात को नींद में डूबे बच्चों के
सर पर मीठीथपकियों में
कौर-कौर भोजन में
नहीं होता पिता के हाथों का स्वाद
पिता जुटे होते हैं
थाली के व्यंजनों की जुगाड़ में
पिता किस्से नहीं सुनाते
मगर ताड़ लेते हैं
किस ओर चल पड़े हमारे कदम
रोक देते हैं रास्ता चट्टान की तरह
पिता होते हैं मेघ गर्जन जैसे
लगते हैं तानाशाह
दरअसल होते हैं वटवृक्ष
बाजुओं में समेटे पूरा परिवार
जीवन में आने वाली कठिनाइयों को
साफ करते हैं पिता
सारी नादानियों को माफ़ करते
आसमान बन जाते हैं पिता
जीवन भर छद्म आवरण ओढ़े
नारियल से कठोर होते हैं पिता
एक बूँद आँसू भी
कभी नहीं देख पाता कोई
मगर बेटी की विदाई के वक्त
उसे बाहों में भर
कतरा-कतरा पिघल जाते हैं पिता
फूट-फूट कर रोते हुए
आँखों से समंदर बहा देते हैं पिता
फिर खिला अमलतास
घर के बाहर
फिर खिला है
अमलतास
सूनी दोपहर
घर है उदास
पीले गजरे
झूम रहे कंचन वृक्ष में
सूनी देहरी को
किसी के आने की है
आस
घर के बाहर
फिर खिला है
अमलतास
नफरतों के जंगल में
प्रेम राख है या
राख् तले दबी चिंगारी
कुरेदकर देखो
शोला लपकता है या टूटता है बाँध
जैसे बारिश से उफनाती कारो नदी
गुम गया प्रेम भी
स्वर्णरेखा के स्वर्ण की तरह
बस
नाम से इतिहास झाँकता है
जैसे याद से प्रेम
पुरानी बदरंग तस्वीरों में
गया वक्त ठहरा होता है
किसी के जिक्र से
चौंक उठते हैं
पलटते हैं पुराना अलबम
अनजाने कराहते हैं कि
वक्त था एक जब प्रेम
सारंडा के जंगलों की तरह हरा-भरा और
घनघोर था
मगर
नित के छल-प्रपंच से
आहत हुए जज़्बात
और हम भी माथे पर बाँधकर
विरोध का लाल फीता
उपद्रवी बन गए, बस उत्पात करते हैं
कभी शब्दों, कभी कृत्य से
ध्वस्त रिश्ते की सारी सुंदरता
तज एकांत चुन
लाल कंकरीली मिट्टी के ‘रेड कार्पेट’ पर
नंगे पांव चलते हैं
दर्द रिसता है
राख हुए प्रेम में
तलाशते हैं कोई बची-खुची चिंगारी
नफरतों के जंगल में
साल के पत्तों की तरह सड़ते-गलते हैं
लौटते नहीं वापस
प्रेम बचा सकता था सब कुछ
मगर
हर उस चिंगारी के ऊपर
राख तोपते हैं
जिसके लहकने से गाँव का रास्ता
खुल सकता है अब भी
चुनते हैं बीहड़
छुप जाते हैं किसी सारंडा या
पोड़ाहाट के जंगल से घने
मन के घोर अँधेरे में
प्रेम नकार बनते है आत्महंता
करते हैं जंगलों से प्रेम का दिखावा
पालते हैं घाव
किसी एक के बदले में मारते हैं सौ
फिर अतंत: अपनी ही आत्मा
झूठे दंभ में जीते है
वास्तव में
उसी दिन मर जाते हैं हम
जिस दिन से दिल में बसे प्रेम का वध किया था।
प्रेम निष्काषित माना जाएगा
प्रेम, धीरे-धीरे सूखता जाएगा
चाहेगा मन, फिर से सब एक बार
मगर जरूरत नहीं होगी
साथ-साथ रहते, साथ-साथ चलते
सारे सवाल भोथरे हो जाएँगे
जवाब की प्रतीक्षा अपनी उत्सुकतता खो बैठेगी
पाने की आकांक्षा, खोने का दर्द
एकमएक लगने लगेंगे
धूप- छाँव सा मन
एक ही मौसम को सारी ईमानदारी सौंपेगा
मन रेगिस्तान
या किसी हिल स्टेशन की
ठंढ़ी सड़क सा बन जाएगा
आत्मा निर्विकार
भावनाओं का गला घोंटकर
सबको परास्त करने में लग जाएगी
नहीं सोचेगा कोर्इ भी
किसी की पीड़ा, किसी की चाहत
सब दौड़ते नजर आएँगे
एक-दूसरे को कुचलते-धकियाते
वक्त किसी के लिए नहीं रूकेगा
क्रोध के दिल से निकलते ही
सबसे पहले अधिकार झरेगा
फिर प्यार
हम साथ-साथ जीते हुए
अनदेखे फ़ास्ले तय करते जाएँगे
बहुत बड़ी हो जाएगी अपनी-अपनी दुनिया
हम दिखा देंगे खुद को खुशहाल , मगर
हमारी आत्मा में बसी खुश्बू
हमसे ही दूर होगी
वक्त थमेगा नहीं, लोग आक्रामक और
असहनशील होंगे
ह्दय से करुणा विलुप्त होगी
शर्म महसूस होगी
अपनी तकलीफों और आँसुओ को दर्शाने में
मन क्रूर और वाणी विनम्र होगी
चेहरा दर्पण से जीत जाएगा
और बचा प्रेम
धीरे-धीरे बंद मुट्ठियों से निकल जाएगा
दिल
किस्मत को कोसता पत्थर हो जाएगा
सीने पर नहीं ठहरेगा फिर
हरेक इंसान के हाथों में अस्त्र की तरह पाया जाएगा
इस तरह प्रेम
समूची पृथ्वी से निष्काषित माना जाएगा।
कोई छीलता जाता है
मन पेंसिल सा है
इन दिनों
छीलता जाता है कोई
बेरहमी से
उतरती हैं
आत्मा की परतें
मैं तीखी, गहरी लकीर
खींचना चाहती हूँ
उसके वजूद में
इस कोशिश में
टूटती जाती हूँ
लगातार
छिलती जाती हूँ
जानती हूँ अब
वो दिन दूर नहीं
जब मिट जाएगा
मेरा अस्तित्व ही
उसे अंगीकार
किया था
तो तज दिया था स्व
उसके बदन पर
पड़ने वाली हर खरोंच
मेरी आत्मा पर पड़ती है
मन के इस मिलन में
मैंने सौंपी आत्मा
उसने पहले सौंपा
अपना अहंकार
फिर दान किया प्यार
वाणी के चाबुक से
लहूलुहान है सारा बदन
पर अंगों से नहीं
आत्मा से टपकता है लहू
कोई छीलता जाता है
मन अब हो चुका है
बहुत नुकीला
पर इसे ही चुभो कर
दर्द दिया नहीं जाता , उसे
जिसे अपनाया है
चोटिल आत्मा
अब नहीं करती कोई भी
सवाल
हैरत है तो बस इस बात पर
कि बेशुमार दर्द पर
एक शब्द ‘प्यार’ अब भी भारी है।