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डायन सरकार

डायन है सरकार फिरंगी, चबा रही हैं दाँतों से,
छीन-गरीबों के मुँह का है, कौर दुरंगी घातों से ।

हरियाली में आग लगी है, नदी-नदी है खौल उठी,
भीग सपूतों के लहू से अब धरती है बोल उठी,

इस झूठे सौदागर का यह काला चोर-बाज़ार उठे,
परदेशी का राज न हो बस यही एक हुंकार उठे ।।

फ़िर उठा तलवार

एक नंगा वृद्ध
जिसका नाम लेकर मुक्त होने को उठा मिल हिंद
कांपते थे सिंधु औ साम्राज्य
सिर झुकाते थे सितमगर त्रस्त
आज वह है बंद
मेरे देश हिन्दुस्तान
बर्बर आ रहा है जापान, जागो जिन्दगी की शान ।

अरे हिन्दी ! कौन कहता हा की तू है रुद्ध
कर न पाएगा भयंकर युद्ध
युद्ध ही है आज सत्ता, आज जीवन ।

देश,
संगठन कर ,जातियों की लहर मिलकर
तू भयानक सिंधु
राष्ट्र रक्षा के लिए जो धीर
फ़िर उठा ले आज
संस्कृति की पुरानी लाज से
भीगी हुई तलवार ।

खुला रहने दो

गगन निविड़ घाटी
मुझे मिली भूमि
सघन माटी;
उगी कली बंद,
जीवन का छंद
रस-लहरी साकार,
गंध निराधार,
बहता है
अनदेखा समीर,
काल-कुहर स्पर्श,
पर अधीर,
खुलो अब पंखुरी,
रागिणी मृदु-सुरी,
माधुरी !!
सब कुछ खो जाए,
मेरे पास रह जाए—
दूब पर झलकती
ललकती
ओस-सी
रूप की धुरी !!

अर्धचेतन अवस्था में कविता

ओ ज्योतिर्मयि ! क्यों फेंका है,
मुझको इस संसार में ।
जलते रहने को कहते हैं,
इस गीली मँझधार में ।

मैं चिर जीवन का प्रतीक हूँ
निरीह पग पर काल झुके हैं,
क्योंकि जी रहा हूँ मैं
अब तक प्यार-भरों के प्यार में…

नास्तिक

तुम सीमाओं के प्रेमी हो, मुझको वही अकथ्य है,
मुझको वह विश्वास चाहिए जो औरों का सत्य है ।
मेरी व्यापक स्वानुभूति में क्या जानो, क्या बात है
सब-कुछ ज्यों कोरा काग़ज़ है, यहाँ कोई न घात है ।

तर्कों में न सिद्धि रहती है, क्योंकि ज्ञान सापेक्ष्य है,
श्रद्धा में गति रुक जाती है, क्योंकि अन्त स्वीकार है,
मुझे एक ऐसा पथ दो जो दोनों में आपेक्ष्य है,
जीत वही है असली, जिसमें नहीं किसी की हार है ।

श्रमिक

वे लौट रहे
काले बादल
अंधियाले-से भारिल बादल
यमुना की लहरों में कुल-कुल
सुनते-से लौट चले बादल

‘हम शस्य उगाने आए थे
छाया करते नीले-नीले
झुक झूम-झूम हम चूम उठे
पृथ्वी के गालों को गीले

‘हम दूर सिंधु से घट भर-भर
विहगों के पर दुलराते-से
मलयांचल थिरका गरज-गरज
हम आए थे मदमाते से

‘लो लौट चले हम खिसल रहे
नभ में पर्वत-से मूक विजन
मानव था देख रहा हमको
अरमानों के ले मृदुल सुमन

जीवन-जगती रस-प्लावित कर
हम अपना कर अभिलाष काम
इस भेद-भरे जग पर रोकर
अब लौट चले लो स्वयं धाम

तन्द्रिल-से, स्वप्निल-से बादल
यौवन के स्पन्दन-से चंचल
लो, लौट चले मा~म्सल बादल
अँधियाली टीसों-से बादल

अन्तिम कविता

जब मयकदे से निकला मैं राह के किनारे
मुझसे पुकार बोला प्याला वहाँ पड़ा था,
है कुछ दिनों की गर्दिश, धोखा नहीं है लेकिन
इस धूल से न डरना, इसमें सदा सहारा ।

मैं हार देखता था वीरान आस्माँ को
बोला तभी नजूमी मुझसे : भटक नहीं तू
है कुछ दिनों की गर्दिश, धोखा नहीं है लेकिन
जो आँधियों ने फिर से अपना जुनूँ उभारा ।

मैं पूछता हूँ सबसे — गर्दिश कहाँ थमेगी
जब मौत आज की है दि कल हैं ज़िन्दगी के
धोखे का डर करूँ क्या रूकना न जब कहीं है—
कोई मुझे बता दो, मुझको मिले सहारा !

पिया चली फगनौटी कैसी गंध उमंग भरी

पिया चली फगनौटी कैसी गंध उमंग भरी
ढफ पर बजते नये बोल, ज्यों मचकीं नई फरी।

चन्दा की रुपहली ज्योति है रस से भींग गई
कोयल की मदभरी तान है टीसें सींच गई।

दूर-दूर की हवा ला रही हलचल के जो बीज
ममाखियों में भरती गुनगुन करती बड़ी किलोल।

मेरे मन में आती है बस एक बात सुन कन्त
क्यों उठती है खेतों में अब भला सुहागिनि बोल?

सी-सी-सी कर चली बड़ी हचकोले भरके डीठ
पल्ला मैंने सांधा अपना हाय जतन कर नींठ।

ढफ के बोल सुनूँ यों कब तक सारी रैन ढरी
पिया चली फगनौटी अब तो अँखिया नींद भरी।

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