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पत्थर

फूल खिलाने की आशा में
मैं पत्थरों को सींचता रहा।
पत्थर पर कब फूल खिले हैं,
जो अब खिलता।
उसे क्या पता जिस पानी ने
उसे सींचा है, वह
बादलों से नहीं बरसा,
बल्कि मेरी आँखों से झरा है।
पत्थर तो और पत्थर बन
हमारी मूर्खता पर हँसता रहा।
अब पत्थर को क्या पता
यह हमारी मूर्खता नहीं
बल्कि बेबसी थी, ढंूढ़ता
रहा, पर फूल खिलाने
वाली मिट्टी मुझे कहीं नहीं मिली।
दर्द, व्यथा धनीभूत हो
अन्तर में बरसे इतने
कि पानी वह आँखों
में उफन गया और
उसे हमारी पलकें रोकती
कैसे, तोड़ बाँध पलकों
का वह बाहर निकल
गया, उफनते पानी को
कौन समझाए, पलकों
को ’भाखड़ा नंगल’ कैसे
बनाएँ कि वह रोके आँसू
को तब तक, जब तक
पत्थर मिट्टी न बन जाए।

पर्वत

पर्वत के उस पार लगा वंसत का मेला है।
इस पार तो पतझड़, सूखे दरख्तों का रेला है।
सालों भर बस वहाँ वसंत का ही मौसम है।
पर्वत के इस पार हरदम परिस्थितियाँ विशम हैं।
कभी ठंड से किकुड़ता तो कभी गर्मी से-
झुलसता तो कभी पतझड़ में उजड़ता जीवन है।
यहाँ तो जीवन में कभी वसंत नहीं खिलता है।
कदम-कदम पर बस उजड़ा उपवन मिलता है।
न जाने वसंती-बयार कहाँ रुक जाती है?
इस पार वह कभी क्यों नहीं आती है?
शायद बीच में खड़ा पर्वत ही राहें रोक देता है।
आना चाहती है जो वसंती हवा इस पार-
उसका मुख मोड़ देता है।
पर्वत दिनों-दिन और ऊँचा होता जा रहा-
एवं पत्थर उसका और ज्यादा कठोर।
अब तो पर्वत आसमान से भी ऊँचा और
पत्थर उसका फौलाद से भी ज्यादा सख्त हो गया है।
उसके श्रृगों पर हवाएँ अब नहीं चढ़ पाती और
उसका शिखर अब बादलों को भी रोकने लगा है।
न जाने काल का चक्र कब घूमेगा और
समय रगड़ कर पत्थरों को इतना मुलायम
कर देगा कि वंसती-बयार उनमें सुराख
बना इस पार अपने साथ वसंत के कुछ
टुकड़े ले आएगी और रेगिस्तान सा
सूख रहे जीवन में नव-प्राण फूँकेगी।

बर्फ

न जाने यह मौसम का कहर है,
या मानवों के कृत्यों का असर है।
सर्द हवाएँ आजकल सब कुछ जमा रही।
चारों तरफ सफेद बर्फ की चादर बिछा रही।
बर्फ के नीचे दबकर पेड़ों की कोमल-
कोमल पत्तियाँ आज दम तोड़ रहीं।
और बच रहा सिर्फ और सिर्फ ठूठ दरख्त।
खिलने की उत्कट आकांक्षा ले
कोमल कलियाँ भी इस बर्फ में
दब अपने प्राणों से हाथ धो रही।
हरी-हरी नन्हीं दूब भी क्रूर
बर्फ के कदमों तले कुचला
कर आज जान दे रही।
अब तो यह बर्फ हमारे घरों
के अन्दर भी जमने लगी है।
देख यह सब हमारी साँसे भी
हलक में अब अटकने लगी है।
हमने अपने आस-पास के वातावरण में
जाने-अनजाने न जाने कितने छेद कर दिए।
यह हमारे ही फैलाये प्रदूशण का प्रतिफल है।
अब तो यह बर्फ हमारे अन्दर के जीवन
को भी जमाने लगी है।
धीरे-धीरे यह इंसानों को जिंदा लाश
बनाने लगी है।
खुली आँखों से अब बस उस सूरज
का इंतजार है।
जो अपने आतप से इस सफेद मौत
सी ठंडी बर्फ को पिघला कर
मर रहे हमारे जीवन में नव-प्राण फूँके।
हरी दूब, कोमल पत्तियों एवं अधखिली
कलियों में भी नव-जीवन का संचार करे।
फिर से सूखे दरख्त को हरे पेड़ और
धरा को एक सुन्दर उपवन बना दे।
बस आज खुली आँखों से उसी
छिपे सूरज के उगने का इंतजार है।

कोहरा

आज आस-पास के वातावरण में
कोहरा ही कोहरा छाया है।
धुंध की ऐसी मोटी चादर लिपटी है,
कि उसके अन्दर अब
जीवन अकुला रहा है।
यह अकुलाहट दिन प्रति दिन
बढ़ती ही जा रही है।
क्योंकि यह धुंध हमारी
साँसों को अपने में घोल रही है।
साँसों के साथ अब वह हमारे
अन्दर प्रविष्ट हो रही है।
और जैसे हवा में नमी घुलती है,
वैसे ही हमारी आत्मा को अपने में घोल,
भाप के रूप में वह बाहर निकल रही है।
और उस भाप ने आस-पास के
वातावरण में फैले कोहरे को
और गाढ़ा कर दिया है।
अब वह धुंध हमारे वजूद को
मिटाकर आदमी के अस्तित्व को
ही निगलना चाह रही है।
इस धुंध में अपना अस्तित्व विलीन
होने से बचाने को, आत्माविहीन इंसान
का आज भी जद्दोजहद जारी है।
क्योंकि कहीं दूर सुदूर हमें सूरज का आभास है।
पर मीलों दूर हमसे अभी उसका प्रकाश है।
जो कोहरे के चक्रव्यूह को तोड़ हम
तक आए।
वर्षों नहीं सदी बीत गयी उस
प्रकाश के इंतजार में।
और अभी सदियों का और लम्बा
इंतजार बाकी है, क्योंकि अब कोहरा
और ज्यादा घना हो गया है।

पड़ाव

चिकनी काली कोलतार की सड़क पर,
जो शायद मुझे मेरी मंजिल तक ले
जाएगी, इस आस में चला जा रहा हूँ।
लेकिन मंजिल पर पहुँचते ही वहाँ से
फिर एक नयी चिकनी काली कोलतार पुती
सड़क निकलती है जो मंजिल को
खिसकाकर और दूर ले जाती है,
हर बार मंजिलों को पड़ाव बनाते हुए।
गर्मी के कारण गर्म हो अब
काली कोलतार की सड़क पिघलने लगी है
अब तो इस पर चलना बहुत मुश्किल हो गया है,
इस पड़ाव से उस पड़ाव तक भी।

पुतला

सज-धज कर पुतला अब
बाहर जाने को तैयार था।
बाहर के वातावरण में
हवा-पानी का मजा लेने।
शायद उसे अपनी सुन्दरता
के साथ दृढ़ता का गुमान था।
पर यह क्या हवा के मंद
झोकें में और पानी की चंद
फुहारों में ही उसका
चमकीला रंग धुलने लगा
और रंगीन कागज जो
सटे थे उस पर चमड़े की
परत बन, वे उखड़ने लगे।
देखते ही देखते अन्दर
की हड्डियाँ अब कागज की
लुगदियों सी गलने लगी।
जिसे दधीची की हड्डियों
सा बज्र होने का गुमान था,
उस पर बरसात की पहली
फुहार ने ही पानी फेर दिया।

अस्तित्व

थकी-थकी सी धूप
तरूवर पर आ टिकी
कर रही है इंतजार साँझ का
दिन भर बाँटती रही
परछाई गैरों को
अस्तित्व निखारती रही गैरों का
ढूंढती रही पहाड़ांे पर, जंगलों में
झरनों में, खेत-खलिहानों में
ऊँची इमारतों में, चिकनी काली
सड़कांे पर या गर्द-गुब्बार उड़ाती गलियों में
खोज न पायी साया अपना
साथ निभाने वाला।
अस्तित्व हमारा भी है
यह जताने वाला।
अब धूप की छाया बन
साँझ उतर आयी है।
पर इस परछाई में अस्तित्व
बचा कहाँ धूप का।
थकी-हारी सी धूप आखिर
अपना अस्तित्व हार गयी।

श्रद्धांजलि

दर्द से भींगे-भींगे शब्द
बिखरा-बिखरा है अर्थ
उजड़े-उजड़े हैं भाव
सूखकर स्याही हो चुकी
काले से अब लाल ।
कलम भी बन चुकी है
सूखकर खंजर सी ।
फिर भी कविता की
लालसा ने कवि-मन
को बना दिया अमानवीय ।
कविता के लिए वह
सूखकर खंजर हो चुकी
कलम से बार-बार
हमला करता है
कोमल कागज के शरीर पर ।
और यह हमला तब तक
जारी रहता है जब तक
क्षत-विक्षत, लहू-लुहान
होकर वह मर नहीं जाता ।
यह हत्या है, सरासर
दिन-दहाड़े हत्या ।
लेकिन कवि-मन बड़ा शातिर है,
वह दर्द से भींगे शब्द से
मिटाकर हत्या की जगह
शहादत लिख देता है
फिर क्या लाल खून
लाल फूल हो जाते हैं श्रद्धांजलि के
और सिलसिला शुरू हो जाता है
श्रद्धांजलियों का सियासत के
तिरंगे में लिपटकर ।

अधूरा सच

दूर आसमान में निकले
सितारे की चमक से
आँखें चौंधिया रही है
कितना तेज ! कितना सुन्दर !
अब मेरे दिलो दिमाग पर
उसका तेज हावी होता जा रहा है
बिल्कुल हीरो के माफिक ।
आँखों से होकर दिमाग के
रास्ते वह जुनून पर सवार हो
हृदय में मेरे प्रवेश कर जाता है
लेकिन यहा क्या !!
अचानक उस सितारे
के पीछे मुझे बड़ा ही
बदसूरत अंधेरा नजर आता है
स्याह काला
बिल्कुल बुझा-बुझा
निस्तेज अंधेरा !!
तभी दिमाग में कौंधता है
इस चमकते सितारे की
यही सच्चाई है क्या?
तभी वह जुनून दिमाग को
झकझोरता है और उसे
मजबूर करता है
अंधेरे की जगह
सितारे की चमक और
सुन्दरता देखने को
फिर उस जुनून के आगे
हृदय हारता है, फिर आँखें
और अंत में दिमाग भी
समर्पण कर देता है
अधूरे सच को पूरा सच
मानने को मजबूर होकर ।

मेरा घर

मेरा घर आज भी मुझे बहुत प्यारा है।
माना, आधुनिक चकाचौंध से दूर थोड़ा पुराना है।
लेकिन पुरखों के खून से एवं उनके
बलिदान के पत्थरों से सजी इसकी
नींव आज भी बहुत मजबूत है।
न जाने कितने महावात और
भूकम्प झेल चुकी है यह इमारत।
आज तक न हिल पायी है इसकी नींव,
और न ही कोई झंझा गिरा पायी इसकी दीवार।
लेकिन इस इमारत को सजाने-संवारने
के नाम पर आए सुधारकों ने इसे छला है।
इसकी खिड़की-दरवाजों को उखाड़ लिया है।
और दीवारों के प्लास्टर तक को नोंच दिया है।
फिर भी पश्चिम से आए प्रभंजन को,
आज भी झेल रहीं इसकी दीवारें।
दीवारों से अवलम्बित इसके मैं खड़ा हूँ।
आज भी बचने को इस झंझा से।
टूटी खिड़कियों और दरवाजों से आती,
हवाएँ उड़ा रही शरीर के कपड़ांे को।
इसकी दीवारों के कोने में छुप आज भी,
बचा रहा हँू अपने को और अपनी इज्जत को।
लेकिन आज बनकर जो आए हैं इसके उद्धारक,
काया-कल्प के नाम पर वो खींच रहे
बलिदान खून से सींचे इसकी नींव के पत्थर।
उन्हें कौन समझाए यदि गिर गयी यह इमारत,
तो फिर नया कहाँ से बनाओगे ?
बलिदान के खून से सींचे इतने पत्थर
कहाँ से लाओगे ?
कैसे बचेगी यह इमारत यहीं सोच रहा।
पानी से मेरे पैरों के नीचे की जमीन
आज गीली है।
न जाने मेरी आँखों से पानी गिरा है,
या कि इमारत की लाल ईटों से वह झरा है।
हे प्रभु! मेरे शरीर का सारा रक्त,
निचोड़ कर एक नींव का पत्थर बना दे।
लगा कर इस इमारत में मजबूत करूँ
इसे इतना कि आगे आने वाली पीढ़ी को
यह बचाए भंुकप और झंझावातों से।

पथरायी हवाएं

पत्थरों के शहर में
पथरीली हवाओं से
केशर की क्यारियों
का दम घुट रहा।
मौसम ही फरेबी
बन बहारों को
यहाँ लूट रहा।
हिमालय का सीना
न जाने आग सा
क्यों उबल रहा
कि बर्फ उसका
लाल-लाल हो
पिघल रहा।
उन्मादी लहरों में
पहाड़ ही टूट कर
बह रहा।
रोके कौन उफनते
दरिया को जो
अपना ही किनारा
आज निगल रहा।
काली स्याह रात
न जाने कब आँखों
से नींद चुरा प्रपंच
भरे सपने भर रही
सुबह की किरणें
उम्मीदों की दहलीज
पर आ बार-बार मर रही।
चिनार के दरख्तांे पर
आज सफेद कबूतरों
के वेश में गिद्धों का
बसेरा है।
अपना बन सफेद
कबूतरों को ही
वे नोंच रहे।
अपने नापाक चोंच
से बार-बार जिस्म
उसका खरोंच रहे।
विश्वास हर मिनट
यहाँ दफन हो रहा
अवनि का ही हरा
दुपट्टा फट-फट
कर कफन हो रहा है।
एक दिन हवा का
वह तेज झोंका आएगा
फिर कोई प्रपंच
उसे न रोक पाएगा।
गिद्धों के नकाब
उतार उसे फिर
नंगा कर जाएगा।
केशर के फूलों से
फिर यह घाटी महकेगी।
लाल-लाल दहकते अंगारों
पर सफेद धवल बर्फ फिर बरसेगी।
चिनार के हरे-भरे
दरख्तों पर फिर
सफेद कबूतरों का जोड़ा चहकेगा।

वहशी हवाएं

इंसानियत की यहाँ कौन
सुन रहा है सिसकियाँ।
खूँटे में बंधा पुरूषार्थ
ले रहा अंतिम हिचकियाँ।
वहशी हवाओं का झोंका
धरती की इज्जत को तार-तार करता रहा।
मानवता का खून से लथ-पथ शरीर
व्याभिचार का तांडव सहता रहा।
बंधा हुआ आकाश आज बस
बेबस हो रोता रहा।
प्रहरी था जो पहाड़ वह भी
न जाने क्यों खामोश सोता रहा।
मिट रही है प्राची की लालिमा
छाई है चारों तरफ खामोश कालिमा।
दाग लगा है गहरा चाँद पर
निस्तेज हुई है आज चाँदनी।
ममता की चीख से
अब तो पत्थर भी पिघल रहा।
पहाड़ सी व्यथा से फिर पहाड़
का सीना क्यों नही उबल रहा।
न फटा बादल और न ही गिरी बिजलियाँ आज।
सागर की उफनती लहरों को भी न आयी लाज।
प्रलय भी दूर से न जाने क्यों
चुप-चाप देखता रहा।
छुई-मुई सी सिमट गयी है
दिशाएँ खामोश सी।
मंजिल भी थम गयी है
होकर बेहोश सी।
लाज को भी आ रही है लाज
फटती धरती तो गड़ जाती वह भी आज।
फूल, कली सब लुटेरों ने लूट लिया
बचे काँटों के इस गुलशन पर कौन करे नाज।

 

औरत की मूरत

आजादी का यह नाटक
आज भी बदस्तूर जारी है ।
वह आज मार रही है
बाहर के दुश्मनों को
लेकिन आज भी हार रही है
अन्दर के दुश्मनों से
वह आज उड़ रही है
हवा को चीरकर ऊपर
आसमान में
लेकिन आज भी उसे
मयस्सर नहीं है स्वछंद सांसें ।
आज भी उसकी सांसें
बंधी हैं मर्यादाओं से
आज जब भी वह खुले में
कुछ सांसें लेने निकलती है
तो टूटती हैं मर्यादाएं
और हवा के साथ घुलकर
भर जाती है उसके फेफड़ों में ।
फिर बाहर की हवाओं को
अन्दर खींचना बहुत
मुश्किल हो जाता है उसके लिए ।
दो मानक वाले मीटर से
आज भी नापा जाता है
यहां मर्यादा और स्वतंत्रता को ।
उसकी पहचान बांध दी गयी है
रिश्तों की जंजीर से ।
बिना उसकी इच्छा जाने
उसे बना दिया जाता है
त्याग और ममता की मूरत ।
लालसा एवं अहं ने तो
मूरत को बना दिया है
पूजनीय देवी ‘‘मां’’
लेकिन बिल्कुल पत्थर की मूरत की तरह
बिना सांसें लेने वाली
संस्कृति एवं शालीनता
के लिबास में लिपटी ।

पेड़ की हड्डियाँ

पेड़ की हड्डियाँ
सड़क किनारे खड़ा वह पेड़
हरा-भरा, सदा मुस्कुराता।
हवा संग कोमल पत्तियाँ जीवन-
संगीत कभी जोर-जोर
से झंकारती, तो कभी धीरे-धीरे
कानों में गुनगुनाती।
न जाने उस पर कितनी ज़िंदगियाँ
महकती, चहकती और फुदकती।
न जाने कितनी साँसों में प्राण
फूँकता वह और खुद धूल फाँकता।
शंकर सा एक बार नहीं,
बार-बार जहर पीता वह,
लेकिन अपना नीलाकंठ
वह नहीं दिखाता।
अन्दर-अन्दर ही वह घुटता है,
तब तक घुटता है, जब तक
अन्दर से वह सूख नहीं जाता।
कल तक दूसरों को प्राण देने वाला,
आज निश्प्राण, निःशब्द खड़ा है।
अब उसकी सूखी पत्तियाँ और
टहनियाँ हवा संग जीवन-
संगीत नहीं, बल्कि मर्मर करती
मौत का चीत्कार सुनाती हैं।
सूरज के असहनीय ताप में,
जो पत्तियाँ और टहनियाँ बचाती
थीं दूसरों को कवच बन, आज
वही सूख कर, टूट कर, जल
कर, उजड़ कर बिखरी हैं,
उसी हवा के कदमों के तले
जिनके संग कभी अठखेलियाँ
करती थीं वह।
बादल गर्जन कर जब डराते थे।
काल बनी काली घटा जब
अनचाहे मेघ बरसाती थी।
बिजलियाँ चमक, जीवन रोशन
करने के बजाए डराती थी।
तब पेड़ की कोमल और मुलायम
पत्तियों की ओट में छुप,
एक मजबूत, कठोर संबल
जो प्राप्त करते थे और
सूरज के असहनीय ताप से
बचने को, जो उसकी शीतल
छाँव के कवच में घुस जाते थे,
वही आज उसे जड़ से काट रहे
और जलाने के लिए उसकी सूखी
टहनियों को, नहीं-नहीं बूढ़ी
हड्डियों को आपस में बाँट रहे।

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