Skip to content

अपने सच में झूठ की मिक्दार थोड़ी कम रही

अपने सच में झूठ की मिक्दार थोड़ी कम रही ।
कितनी कोशिश की, मगर, हर बार थोड़ी कम रही ।

कुछ अना भी बिकने को तैयार थोड़ी कम रही,
और कुछ दीनार की झनकार थोड़ी कम रही ।

ज़िन्दगी ! तेरे क़दम भी हर बुलन्दी चूमती,
तू ही झुकने के लिए तैयार थोड़ी कम रही ।

सुनते आए हैं कि पानी से भी कट जाते हैं संग,
शायद अपने आँसुओं की धार थोड़ी कम रही ।

या तो इस दुनिया के मनवाने में कोई बात थी,
या हमारी नीयत-ए-इनकार थोड़ी कम रही ।

रंग और ख़ुशबू का जादू अबके पहले सा न था,
मौसम-ए-गुल में बहार इस बार थोड़ी कम रही ।

आज दिल को अक़्ल ने जल्दी ही राज़ी कर लिया
रोज़ से कुछ आज की तकरार थोड़ी कम रही ।

लोग सुन कर दास्ताँ चुप रह गए, रोए नहीं,
शायद अपनी शिद्दत-ए-इज़हार थोड़ी कम रही ।

 

इक ज़हर के दरिया को दिन-रात बरतता हूँ

इक ज़हर के दरिया को दिन-रात बरतता हूँ ।
हर साँस को मैं, बनकर सुक़रात, बरतता हूँ ।

खुलते भी भला कैसे आँसू मेरे औरों पर,
हँस-हँस के जो मैं अपने हालात बरतता हूँ ।

कंजूस कोई जैसे गिनता रहे सिक्कों को,
ऐसे ही मैं यादों के लम्हात बरतता हूँ ।

मिलते रहे दुनिया से जो ज़ख्म मेरे दिल को,
उनको भी समझकर मैं सौग़ात, बरतता हूँ ।

कुछ और बरतना तो आता नहीं शे’रों में,
सदमात बरतता था, सदमात बरतता हूँ ।

सब लोग न जाने क्यों हँसते चले जाते हैं,
गुफ़्तार में जब अपनी जज़्बात बरतता हूँ ।

उस रात महक जाते हैं चाँद-सितारे भी,
मैं नींद में ख़्वाबों को जिस रात बरतता हूँ ।

बस के हैं कहाँ मेरी, ये फ़िक्र ये फ़न यारब !,
ये सब तो मैं तेरी ही ख़ैरात बरतता हूँ ।

दम साध के पढ़ते हैं सब ताज़ा ग़ज़ल मेरी,
किस लहजे में

अब क्या बताएँ टूटे हैं कितने कहाँ से हम

अब क्या बताएँ टूटे हैं कितने कहाँ से हम
ख़ुद को समेटते हैं यहाँ से वहाँ से हम

क्या जाने किस जहाँ में मिलेगा हमें सुकून
नाराज़ हैं ज़मीं से ख़फ़ा आसमाँ से हम

अब तो सराब[1] ही से बुझाने लगे हैं प्यास
लेने लगें हैं काम यक़ीं का गुमाँ[2] से हम

लेकिन हमारी आँखों ने कुछ और कह दिया
कुछ और कहते रह गए अपनी ज़बाँ से हम

आईने से उलझता है जब भी हमारा अक्स
हट जाते हैं बचा के नज़र दरमियाँ से हम

मिलते नहीं हैं अपनी कहानी में हम कहीं
गायब हुए हैं जब से तेरी दास्ताँ से हम

क्या जाने किस निशाने पे जाकर लगेंगे कब
छोड़े तो जा चुके हैं किसी के कमां से हम

ग़म बिक रहे थे मेले में ख़ुशियों के नाम पर
मायूस होक लौटे हैं हर इक दुकाँ से हम

कुछ रोज़ मंज़रों से जब उट्ठा नहीं धुआं
गुज़रे हैं सांस रोक के अम्न-ओ-अमां से हम

अबके मैं क्या बात बरतता हूँ ।

कब खुला आना जहाँ में और कब जाना खुला

कब खुला आना जहाँ में और कब जाना खुला ।
कब किसी किरदार पर आख़िर ये अफसाना खुला ।

पहले दर की चुप खुली फिर ख़ामुशी दीवारों की,
खुलते-खुलते ही हमारे घर का वीराना खुला ।

जब तलक ज़िन्दा रहे समझे कहाँ जीने को हम,
वक़्त जब खोने का आ पहुँचा है तो पाना खुला ।

जानने के सब मआनी ही बदल कर रह गए,
हमपे जिस दिन वो हमारा जाना-पहचाना खुला ।

हर किसी के आगे यूँ खुलता कहाँ है अपना दिल,
सामने दीवानों को देखा तो दीवाना खुला ।

थरथराती लौ में उसकी इक नमी-सी आ गई,
जलते-जलते शम्अ पर जब उसका परवाना खुला ।

होंटों ने चाहे तबस्सुम से निभाई दोस्ती,
शायरी में लेकिन अपनी ग़म से याराना खुला ।

मोड़ कर अपने अंदर की दुनिया से मुँह

मोड़ कर अपने अन्दर की दुनिया से मुँह, हम भी दुनिया-ए-फ़ानी के हो जाएँ क्या ।
जान कर भी कि ये सब हक़ीक़त नहीं, झूटी-मूटी कहानी के हो जाएँ क्या ।

कब तलक बैठे दरिया किनारे यूँ ही, फ़िक्र दरिया के बारे में करते रहें,
डाल कर अपनी कश्ती किसी मौज पर, हम भी उसकी रवानी के हो जाएँ क्या ।

सोचते हैं कि हम अपने हालात से, कब तलक यूँ ही तकरार करते रहें,
हँसके सह जाएँ क्या वक़्त का हर सितम, वक़्त की मेहरबानी के हो जाएँ क्या ।

ज़िन्दगी वो जो ख़्वाबों-ख़्यालों में है, वो तो शायद मयस्सर न होगी कभी,
ये जो लिक्खी हुई इन लकीरों में है, अब इसी ज़िन्दगानी के हो जाएँ क्या ।

हमने ख़ुद के मआनी निकाले वही, जो समझती रही है ये दुनिया हमें,
आईने में मआनी मगर और हैं, आईने के मआनी के हो जाएँ क्या ।

हमने सारे समुन्दर तो सर कर लिए, उनके सारे ख़ज़ाने भी हाथ आ चुके,
अब ज़रा अपने अन्दर का रुख़ करके हम, दूर तक गहरे पानी के हो जाएँ क्या ।

हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं

हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं ।
अबके किरदार किसी और कहानी में हूँ मैं ।

जैसे सब होते हैं वैसे ही हुआ हूँ मैं भी,
अब कहाँ अपनी किसी ख़ास निशानी में हूँ मैं ।

ख़ुद को जब देखूँ तो साहिल पे कहीं बैठा मिलूँ,
ख़ुद को जब सोचूँ तो दरिया की रवानी में हूँ मैं ।

ज़िन्दगी! तू कोई दरिया है कि सागर है कोई,
मुझको मालूम तो हो कौन से पानी में हूँ मैं ।

जिस्म तो जा भी चुका उम्र के उस पार मेरा,
फ़िक्र कहती है मगर अब भी जवानी में हूँ मैं ।

आप तो पहले ही मिसरे में उलझ कर रह गए,
मुंतिज़र कब से यहाँ मिना-ए-सानी में हूँ मैं ।

पढ़के अशआर मेरे बारहा कहती है ग़ज़ल,
कितनी महफ़ूज़ तेरी जादू-बयानी में हूँ मैं ।

गीता हूँ कुरआन हूँ मैं

गीता हूँ कुरआन हूँ मैं
मुझको पढ़ इंसान हूँ मैं

ज़िन्दा हूँ सच बोल के भी
देख के ख़ुद हैरान हूँ मैं

इतनी मुश्किल दुनिया में
क्यूँ इतना आसान हूँ मैं

चेहरों के इस जंगल में
खोई हुई पहचान हूँ मैं

खूब हूँ वाकिफ़ दुनिया से
बस खुद से अनजान हूँ मैं

इस अहद के इन्साँ मे वफ़ा ढूँढ रहे हैं

इस अहद के इन्साँ मे वफ़ा ढूँढ रहे हैं
हम ज़हर की शीशी मे दवा ढूँढ रहे हैं

दुनिया को समझ लेने की कोशिश में लगे हम
उलझे हुए धागों का सिरा ढूँढ रहे हैं

पूजा में, नमाज़ों में, अज़ानों में, भजन में
ये लोग कहाँ अपना ख़ुदा ढूँढ रहे हैं

पहले तो ज़माने में कहीं खो दिया ख़ुद् को
आईने में अब अपना पता ढूँढ रहे हैं

ईमाँ की तिजारत के लिए इन दिनों हम भी
बाज़ार में अच्छी-सी जगह ढूँढ रहे हैं

 

यहाँ हर शख़्स हर पल हादिसा होने से डरता है

यहाँ हर शख़्स हर पल हादिसा होने से डरता है
खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है

मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम-सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है

न बस में ज़िन्दगी इसके न क़ाबू मौत पर इसका
मगर इन्सान फिर भी कब ख़ुदा होने से डरता है

अज़ब ये ज़िन्दगी की क़ैद है, दुनिया का हर इन्सां
रिहाई मांगता है और रिहा होने से डरता है

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.