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उम्मीदों की एक नदी आँखों में रेगिस्तान हुई

उम्मीदों की एक नदी आँखों में रेगिस्तान हुई
चमकीली सड़कों से मिलकर पगडंडी सुनसान हुई

मुस्कानों का क़र्ज़ लिए हम चहरा जोड़े बैठे हैं
अंदर अंदर सब कुछ टूटा ये बस्ती वीरान हुई

चंदा जैसी हंसमुख लड़की जब देखो घर आती थी
माथे पर सूरज चमका है, उस दिन से अनजान हुई

सड़कें चौराहे तो हमको, सर आँखों पे रखते हैं
घर का कोना कोना रूठा परछाई अपमान हुई

उनकी हाँ में हाँ कहते हैं सब कुछ अच्छा अच्छा है
जब भी हमने सच बोला तो फिर आफ़त में जान हुई

जब सूरज ने बेमन से ये पूछा कौन कहाँ के हो
इक जुगनू को अपने कद की तब जाकर पहचान हुई

मिट्टी का अपने ख्वाबों से जन्मों से नाता ‘हलधर’
ग़र मिट्टी के भाव बिके तो दुनिया क्यूँ हैरान हुई

कोई पाजेब सी बजी छत पर

कोई पाजेब सी बजी छत पर
रात भर चाँदनी हंसी छत पर

नींद ने आँख से बग़ावत की
मोगरे की कली खिली छत पर

लाख तारे हज़ार जुगनू हैं
बस मेरे चाँद की कमी छत पर

मोर के पाँव में बंधे घुंघरू
आपकी ज़ुल्फ़ जब खुली छत पर

रात क्या बारिशें थीं बेमौसम
गुल के रुखसार पे नमी छत पर

धड़कनें ‘कहरवा’ हुई दिल की
नैन की बांसुरी बजी छत पर

आइना भी कमाल करता है

आइना भी कमाल करता है
जान लेवा सवाल करता है

रोज़ पकड़ा हमें रँगे हाथों
रोज़ हँसकर बहाल करता है

इश्क़ में हूँ कोई मरीज़ नहीं
क्यूँ मिरी देखभाल करता है

अब मकां बेचकर कहाँ जाएँ
हर पड़ौसी बवाल करता है

कौन जादू है उसके चहरे में
हाथ मेरे गुलाल करता है

यूँ दिवाना करे हंसी उनकी
जैसे ठुमरी -ख़याल करता है

इश्क़ पे ज़ुल्म, हुस्न का जैसे
हलधरों पे अकाल करता है

प्यार की बस्ती बसाना चाहते हैं

प्यार की बस्ती बसाना चाहते हैं
नफ़रतों के घर जलाना चाहते हैं

लोग कहते हैं हमें वो हो गया है
बेवज़ह भी मुस्कुराना चाहते हैं

चंद पन्ने क्यों जले हैं डायरी के
कौनसे शोले छुपाना चाहते हैं

दो घड़ी मिल बैठ कर क्या हँस लिए हम
लोग सदियों तक रुलाना चाहते हैं

आपसे नज़रें मिलाकर मिल सकें कल
इसलिए नज़रें बचाना चाहते हैं

शहर में कर्फ़्यू का डर है जी वगरना
हम पतंगे भी लड़ाना चाहते हैं

काश मिल जाती वफ़ा बाज़ार में तो
लोग धन-दौलत लुटाना चाहते हैं

ज़मीं के बेतहाशा भाव बढ़ते जा रहे हैं

ज़मीं के बेतहाशा भाव बढ़ते जा रहे हैं
घरों में रंजिशें-अलगाव बढ़ते जा रहे हैं

उधर इक मेड़ की है दुश्मनी दो भाइयों में
इधर अँगनाई में टकराव बढ़ते जा रहे हैं

ससुरऔ’जेठ के वे बोल कड़वे कौन कम थे
उसे संतान से भी घाव बढ़ते जा रहे हैं

तुम्हारी राह में हर बार हमने गुल बिछाए
हमारे सर पे अब पथराव बढ़ते जा रहे हैं

हमारे द्वार पे हर दौड़ता रस्ता रुकेगा
तेरे क़दमों के अब ठहराव बढ़ते जा रहे हैं

मेरी उम्मीद के मुरझाय पौधे जी उठेंगे
तुम्हारी जुल्फ़ के छिड़काव बढ़ते जा रहे हैं

शिलाओं पे लिखी सच्चाइयाँ दम तोड़ती सी
किताबों में नए बदलाव बढ़ते जा रहे हैं

उसे किस बात की चिंता, उसे किस बात का डर है

उसे किस बात की चिंता, उसे किस बात का डर है
अब उसका पाँच-साला, देवता के पांवों पे सर है

तुम्हारे झूठ की इस कागज़ी कश्ती का क्या होगा
हमारे गाँव की सरहद पे, शोलों का समंदर है

हमें अब ज़लज़लों तूफान से भी, डर नहीं लगता
गगनचुम्बी इमारत है, न अपने पास छप्पर है

मैं किससे रास्ता पूछूँ, नया है शहर डरता हूँ
न जाने कौन रहजन है, न जाने कौन रहबर है

संभल के चल गली में रोज़ हमने हादसा देखा
इस अंधे मोड़ पे ही तो मेरे महबूब का घर है

तेरे दीवान में लफ्ज़-ए-अना शोभा नहीं देता
बड़ा शाइर है पर सरकार का छोटा सा नोकर है

हमारा बादलों से भी, भरोसा उठ गया ‘हलधर’
मरुस्थल ही मरुस्थल है, यही अपना मुक़द्दर है

कोई ऐसा बयान मत दीजे

कोई ऐसा बयान मत दीजे
मुल्क़ की आन-बान मत दीजे

फूल के हाथ में खिलौने हैं
इसको तीर-ओ-कमान मत दीजे

जिसने क़ुर्बानियाँ नहीं देखी
वो हमे खानदान मत दीजे

हर किसी से निभा न पाओगे
हर किसी को ज़बान मत दीजे

जो हमें इस ज़मीं से बिछड़ा दे
आरज़ू- आसमान मत दीजे

मोतिया-बिंद का सहारा हो
हुस्न-ए-बिजली पे जान मत दीजे

क़र्ज़ में पीढ़ियाँ गुज़र जाए
हमको ऐसा मकान मत दीजे

अपने पुरखों के खेत हैं ‘हलधर’
कोई इनका लगान मत दीजे

मेरी तक़दीर का सहरा युगों से राह तकता है

मेरी तक़दीर का सहरा युगों से राह तकता है
न जाने किस जगह उम्मीद का बादल बरसता है

कभी आकाश में गरजा, कभी अखबार में बरसा
हमारी सूखती फसलों की चिंता कौन करता है

पुरानी सायकल की हम मरम्मत को तरसते हैं
हमारे गाँव का सरपंच नित कारें बदलता है

पड़ौसी का जलाके घर तमाशा देखने वालों
हवा का रुख़ बदलने में ज़रा सा वक़्त लगता है

हमारी बस्तियाँ बारूद का गोदाम हों जैसे
यहाँ अफ़वाह की चिंगारियों का ख़ौफ़ रहता है

सियासत में उसे कुछ तो अलग से फायद होगा
वगरना दलदलों में कौन यूँ गहरे उतरता है

अँधेरों से ज़रा भी हिम्मतों को डर नही लगता
हमारी आँख में उम्मीद का जुगनू चमकता है

खुदाई कर यहीं पर क़ीमती बेशक खदानें हैं
यहीं पर हलधरों के जिस्म का सोना पिघलता है

भिगोकर आँसुओं से क़ीमती,इक चीज़ लाया हूँ

भिगोकर आंसुओं से क़ीमती, इक चीज़ लाया हूँ
मैं अपने खेत की मिटटी, ग़ज़ल के बीज लाया हूँ

मेरे अशआर को छूकर, हथेली रच गई उसकी
कभी गणगौर लाया हूँ, कभी मैं तीज लाया हूँ

ज़माने की नज़र से उम्र भर, तुमको बचाएगा
गले में बांधकर कर देखो हमें, ताबीज़ लाया हूँ

घड़ी भर के लिए वाचाल तारों, शोरगुल कर लो
मैं इक खामोश सूरज ढूंढ कर, नाचीज़ लाया हूँ

किसी की याद के चलचित्र से, दिन रात चलते हैं
बिछड़ते वक़्त उनसे आँख में, टाकीज़ लाया हूँ

मुझे वो हर बुराई, हर बला से दूर रखती है
मैं अपने गाँव से परदेस में, दहलीज़ लाया हूँ

किसी भी ज़लज़ले तूफ़ान में, बिखरा नहीं है घर
मैं अपने गाँव से परदेस में, दहलीज़ लाया हूँ

प्यार के दो बोल सुनकर अज़नबी खुलने लगा

प्यार के दो बोल सुनकर अज़नबी खुलने लगा
आंसुओं का एक दरिया आँख से बहने लगा

एक सूरज की सगाई चाँद से क्या हो गई
अब सितारों की गली से फ़ासला रखने लगा

दर्द घुटनों का मेरा ये देखकर जाता रहा
थामकर उंगली नवासा सीढियाँ चढ़ने लगा

एक लमहा भी ख़ुशी ठहरी नहीं नज़दीक की
दूर का पर्वत दुखों में हमसफ़र बनने लगा

अम्न की इन बस्तियों को ऐ ख़ुदा ये क्या हुआ
अब मैं बच्चों को झगड़ता देखकर डरने लगा

पर्वतों की चोटियाँ शोले उगलने लग गईं
आग का दरिया किनारे तोड़कर बहने लगा

सूद के अवशेष बिखरे हैं अभी खलिहान में
क़र्ज़ लेकर फिर बुवाई खेत में करने लगा

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