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अकड़ गया रमजानी

रात अन्धेरी,
भूड़[1] और ज़ालिम बम्बा का पानी ।

इत मून्दे, उत फूटे
किरिया-भरा न दीखे
फरुआ चले न खड़ी फ़सल में
खीझे-झींके
पहली सींच
ठण्ड में भीगा
अकड़ गया रमजानी ।

लालटेन अलसेट दे गई
शीशा टूटा
उड़ी शायरी
‘पत्ता पत्ता-बूटा बूटा’
हाल न उसका
कोई जाने
कैसी अकथ कहानी ।

मिट्टी में लिथड़े
पाजामा-पहुँचे धोए
कोट न फतुही थर-थर काँपे
खोए-खोए
रोक मुहारा
आस्तीन से
पोंछ रहा पेशानी ।

बगीचिया से बीन जलावन
आग जलाई
देह सिंकी, बीड़ी
सुलगी
कुछ गरमी आई
बदली सूरत का
सच जाना
बढ़ी और हैरानी ।

अपनी टेंट

तें अपनी टेंट देख कानी
कस मानी हम
होते सोलह दूनी आठ ।

अथ-इति का फ़र्क घुला
शुरू कहाँ ख़त्म कहाँ
अपनी सँघर्ष कथायात्रा के सारे सोपानों की
है इतनी गड्डमड्ड भाषा ।
खदर-बदर मची हुई
चढ़ी हुई हाण्डी में
जासूसी कुत्तों की अगल-बगल सूँघ-सांग जारी है
प्लॉट हँसी का अच्छा ख़ासा ।

हाथों की एक-एक उभरी नस बता रही
पजर रहा पोखर का पानी
ज़िस्मानी रँग
काई के बेतरह उचाट ।

तें अपनी टेंट देख कानी
कस मानी हम
होते सोलह दूनी आठ ।

गरिया-गरिया ख़ुद को
पूरी निर्ममता से
जनपथ पर हुदियाए साँड़ की सधी गति से आते हैं
दृश्यों को जग्ग-बग्ग तकते ।
अपनी औक़ात के
हमीं गूँगे साक्षी हैं
ज़हर में बताशे के खिर-खिर कर घुलने की किसे कहें
बाज़ आ गए बकते -झकते ।

अँतड़ी की हर मरोड़ पर तिहरे हो-हो कर
काटी हैं रातें तूफ़ानी
बर्फानी है
खटिया पर बिछी हुई टाट ।

तें अपनी टेंट देख कानी
कस मानी हम
होते सोलह दूनी आठ ।

अपनी पारी

हम-से हम-ही
बात ज़रा-सी
भले नहीं कुछ पास हमारे ।

कुछ तो करम किए ही होंगे
तब तो हैं पड़तालें जारी ।
जोख़िम लेकर सच कहने की
खेल रहे हैं अपनी पारी ।
जोगीड़ा गाएँ
या कजरी
तार जुड़े हैं स्वर से सारे ।

कोशिश थी मानुष बनने की
कविता तो थी एक बहाना।
कुछ शऊर आए जीने का
ढब टूटे यह ऐंचक-ताना ।
फुन्दनों की तरतीब भरोसे
खिले-अनखिले रँग सँवारे ।

पृष्ठभूमियाँ देखे कोई
सिला न देखे, जो भी पाया ।
उठे सतह से कैसे-कैसे
आग रही अपना सरमाया ।
ज़िल्लत की
सब हदें पार कीं
थे न पहलुओं पर बेचारे ।

हम से हम ही
बात ज़रा-सी
भले नहीं कुछ पास हमारे ।

अम्मा

जीने की जिद-सी है आई
अम्मा लेश नहीं डरती है।
है तहजीब बदल की कैसी
कहते-कहते फट-सी पड़ती
घटनाओं की लिए थरथरी
पीछे लौटे-आगे बढ़ती
दिनचर्या पर चीलें उड़तीं
झोंक स्वयं को कठिन समय में
लड़ने का वह दम भरती है।
चौलँग तमक अराजकता की
कुछ भी करो, खौफ काहे का
इस दर्शन ने रह-रह तोड़ा
नर-नारी का अकलुष एका
कामुक, क्रूर, नजर की कुंठा
चीरेगा अब यही त्रियाधन
हाथ होंस का सिर धरती है।
आहत हैं, स्वर-मूल्य-भावना
तो भी हम में समझ जगाए
मुर्दा तंत्र, समाज निकम्मा
असुरक्षा पर होंठ चबाए
है महफूज न औरत कोई
शहतूती विधान को लेकर
प्रबल विरोध खड़ा करती हैं
अम्मा लेश नहीं डरती हैं।

आखर

कविता में — हम में
या हम में — कविता में
कुछ भेद नहीं है ।

गति-अनगति अपनी या ऊकी ।
रार नहीं सास औ’ बहू की ।
सम्वेदन और वाग्धारा की फिरकी ले
अनुभव का रँगिल विस्तार लिए निकले है
इकले हैं
इसका कुछ खेद नहीं है ।

अतिरेकों से मिली तितिक्षा ।
जीने की एक नई शिक्षा ।
आग-मोम की हार्दिकता के इन पन्नों पर
खीझ और तड़प के उजास भरा हर आखर

आखर है
गीता या वेद नहीं है ।

कविता में — हम में
या हम में — कविता में
कुछ भेद नहीं है ।

 

 

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