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कविता मुझ में

कविता
उन उदास दिनों में भी
उत्साहित करती है
जब गिर चुके होते हैं
पेड़ के सारे पत्ते
नंगा खड़ा पेड़
नीचे धूप तापती धरती

रंगीन बाज़ार महंगी वस्तुओं
अनावश्यक ख़रीददारी के बीच
ठकठकाती है
सम्वेदनाओं को
पलटकर दिखाती है
सड़क किनारे खेलते
नंग-धड़ंग बच्चे
और भीख मांगती माँएँ

बोझिल आँखें टूटते शरीर के
बावजूद कविता
जगाती है देर रात तक
भुलाती है दिन भर की
उथल-पुथल
फिर
छोटी-सी झपकी भी
कई घंटों की निष्क्रिय नींद के
बराबर होती है

पुराने तवे-सी हो चुकी मैं
जल्दी गर्म हो
नियंत्रण खो उठती हूँ
भावनाओं एवं स्थितियों पर
तो कभी पाले-सी
देर तक हो जाती हूँ उदासीन
ऎसे में कविता तुम
मन के किसी कोने में
धीरे-धीरे सुलगती रहती हो
बचाए रखती हो
रिश्तों की गर्माहट व मिठास
मुझे करती हो तैयार
उनका साथ देने को
जो अपनी लड़ाई में
अलग-थलग से खड़े हैं।

प्रेम

प्रेम में
चट्टानों पर उग आती है घास

किसी टहनी का
पेड़ से कटकर
दूर मिट्टी में फिर से
फलना-फूलना
प्रेम ही तो है
प्रेम में पलटती हैं ऋतुएँ

प्रेम में उत्पन्न संतान को
अपनाने से
करता है इन्कार
कायर पिता
बेबस माँ फेंक देती

चिरांती

तीन मकानों के बीच
आँगन के कोने में उगे
बूढ़े, सूखे, विशाल तुन के पेड़ को
काटने के लिए
ज़रूरत है
अनुभवी चिरांती की
उसकी कुशल अँगुलियाँ
मजबूत पकड़
पैनी नज़र
काट गिराएँगी सावधानी से पेड़
किसी दीवार, घर या लोगों को
बिना नुकसान पहुँचाए
और यह भी कि
कोई टूटन या दरार
पेड़ की कीमत कम न कर दे

आदमी भले ही विवश हो
मशीन की तरह काम करने को
मशीन होने को
पर आदमी की जगह
लगभग भर चुकी मशीने
कहीं-कहीं हार भी जाती हैं ।

है
नदी किनारे
जहाँ नोच खाते हैं उसे
आवारा कुत्ते।

 

 

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