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ग़ज़लें

चलो ज़िन्दगी को मुहब्बत बना दें

चलो ज़िन्दगी को मुहब्बत बना दें
जहां से ज़ुलम औ’ सितम हम मिटा दें

अहम की दिवारें नहीं मीत अच्छी
बनाई हमीं ने हमीं अब गिरा दें

दिलों में अदावत जो पाली है हम ने
गले मिल चलो अब उसे हम भुला दें

न हिन्दू , मुस्लिम, न सिख, ना इसाई
नया धर्म अपना मुहब्बत चला दें

अमीरी गरीबी में दुनियां बँटी है
ये कैसी लकीरें इन्हें हम मिटा दें

जहाँ खिल न पाये कभी फूल कोई
बहारों को अब उस चमन का पता दें

चलें डाल कर हम तो’ बाहों में’ बाहें
सभी खार नफ़रत के’ चुन-चुन हटा दें

खुले नफरतों के ठिकाने जहाँ पर
वहाँ न्याय की बस्तियाँ हम बना दें

मुहब्बत ख़ुदा की नियामत अगर है
शमा प्रेम की ‘हीर’ दिल में जला दें

कौन कहता ज़िन्दगी तेरा हसीं भी रंग है 

कौन कहता ज़िन्दगी तेरा हसीं भी रंग है
हर बशर[1] दिखता मुझे तुझसे यहाँ तो तंग है

मुश्किलें भी हैं कठिन, तेरे सभी रस्ते मग़र,
ज़िन्दगी की, ज़िन्दगी से, इक सुहानी जंग है

रूप नित देखे बदलते,आज़ हमने प्यार के,
बन गया व्यापार अब ये देख हम तो दंग है

प्यार हमने भी किया था,बेपना तुम से कभी ;
आपकी इस बेरुख़ी से शाम अब बेरंग है

मुस्कुरा देती तुमहारे प्यार में मैं जब कभी;
क्यों मुआ छिप छिप तभी ये देखता सारंग[2] है

कौन है जो आज नारे दे रहा कशमीर में?
मार दो गोली उसे पागल दिखे मातंग[3] है

कल मुझे जो कह रहा था ‘हीर’ तुझसे प्यार है
आज़ देखो जा रहा वो गैर बाँहों संग है

शब्द के हार से दी बिदाई तुम्हें 

देख लो हमने दे दी रिहाई तुम्हें
अब देंगे कभी हम दिखाई तुम्हें

हो गये अज़नबी इक-दूजे से हम
प्रीत मेरी नहीं मीत भाई तुम्हे

तोड़ देना अजी दिल लगाकर कहीं
ये अदा मीत किसने सिखाई तुम्हें

है न कोई गिला और शिकवा कहीं
अश्क़ देंगे नहीं अब दिखाई तुम्हें

दूँ तड़पकर सदा जो कभी मीत मैं
ख़्वाब में भी नहीं दे सुनाई तुम्हें

यश फ़लक तक चले ख़ूब गुणगान हो
हर जगह में मिले रोशनाई तुम्हें

जा रही छोड़कर ‘हीर’ ख़त आख़िरी
शब्द के हार से दी बिदाई तुम्हें

बहुत है रुलाया हँसाना पड़ेगा

बहुत है रुलाया हँसाना पड़ेगा
तुझे ऐ मुहब्बत मनाना पड़ेगा

चलो फ़िर सजा लें वही ख़्वाब अपने
शिकायत, गिला सब भुलाना पड़ेगा

कभी राज़ दिल के छुपाओ न हमसे
अग़र है मुहब्बत बताना पड़ेगा

नहीं चाहती ता उमर साथ तेरा
चलूँ कुछ क़दम ये सिखाना पड़ेगा

सदा दूँ कभी जो तड़पकर तुझे मैं
वो नग्मा सबा को सुनाना पड़ेगा

बड़ी पाक है ये ख़ुदा की इबादत
दिलों में इसे फ़िर बसाना पड़ेगा

अग़र हीर से है जो सच्ची मुहब्बत
तुझे ख़ुद को राँझा बनाना पड़ेगा

ख़्वाब इन आँखों ने तो अक़्सर सजाये हैं

ख़्वाब इन आँखों ने तो अक़्सर सजाये हैं
पर कहाँ ये हो मुकम्मल यार पाये हैं

दूरियाँ रखते रहे हैं यह उजाले भी
दीप हमने आंसुओं से ही जलाये हैं

ज़िन्दगी थी लेके बैठी फूल झोली में
फूल हमने दर्द के हँसकर उठाये हैं

अब न कोई ख्याल तेरा,ख़्वाब आँखों में
लाश तेरी हम मुहब्बत दाह आये हैं

पास आके रूठ जाती है मुझीसे तू
ख़ूब नख़रे ज़िन्दगी तूने दिखाये हैं

हो गए वीरान नादाँ हैं मग़र कितने
याद उनकी आज़ भी सीने लगाये हैं

टूटकर यूँ तो उन्हें था ‘हीर’ ने चाहा
आज़ वो जो हो गए उससे पराये हैं

जाने क्यूं यूं बेबसी होने लगी

जाने क्यूं यूं बेबसी होने लगी
ख़ुश्क आंखों में नमी होने लगी

दर्द की नगरी में जब से बस गए
हर नए ग़म से ख़ुशी होने लगी

चिड़ियाँ अब चहकती घर में नहीं
क़तल क्या ये भी कोख में होने लगी?

जब चले हम इश्क़ का दीया जला
ज़िंदगी में रौशनी होने लगी

फूल तुमने जब हथेली पर रखा
ग़ज़लें पूरी प्यार की होने लगी

दिल धड़कने लग गया है बेवजह
जब से’ है बिटिया बड़ी होने लगी

ज़िक्र रांझे का मेरे जब-जब हुआ
हीर दिल में गुदगुदी होने लगी

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