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आ के जब ख़्वाब तुम्हारे ने कहा बिस्मिल्लाह

आ के जब ख़्वाब तुम्हारे ने कहा बिस्मिल्लाह
दिल मुसाफ़िर थके हारे ने कहा बिस्मिल्लाह

हिज्र की रात में जब दर्द के बिस्तर पे गिरा
शब के बहते हुए धारे ने कहा बिस्मिल्लाह

शाम का वक़्त था और नाव थी साहिल के क़रीब
पाँव छूते ही किनारे ने कहा बिस्मिल्लाह

अजनबी शहर में था पहला पड़ाव मेरा
बाम से झुक के सितारे ने कहा बिस्मिल्लाह

लड़खड़ाए जो ज़रा पाँव तो इक शोर हुआ
क़ाफिले सारे के सारे ने कहा बिस्मिल्लाह

ना-ख़ुदा छोड़ गए भँवर में तो ‘ज़फर’
एक तिनके के सहारे ने कहा बिस्मिल्लाह

बदन से रूह तलक हम लहू लहू हुए हैं

बदन से रूह तलक हम लहू लहू हुए हैं
तुम्हारे इश्क़ में अब जा के सुर्ख़-रू हुए हैं

हवा के साथ उड़ी है मोहब्बतों की महक
ये तजि़्करे जो मेरी जान कू-ब-कू हुए हैं

वो शब तो कट गई जो प्यास की थी आख़िरी शब
शरीक-ए-गिर्या-ए-शबनम में अब सभू हुए हैं

तुम्हारे हुस्न की तश्बी भी कही है अभी
चराग़ जलने लगे फूल मुश्क-बू हुए हैं

अजीब लुत्फ़ है इस टूटने बिखरने में
हम एक मुश्त-ए-ग़ुबार अब चहार-सू हुए हैं

बजा है ज़िंदगी से हम बहुत रहे नाराज़
मगर बताओ ख़फ़ा तुम से भी कभू हुए हैं

मैं तार-तार ‘ज़फर’ हो गया हूँ जिस के सबब
फ़लक के चाक उसी फ़िक्र से रफ़ू हुए हैं

हर सम्त शोर-ए-बंद-ओ-साहिब है शहर में

हर सम्त शोर-ए-बंद-ओ-साहिब है शहर में
क्या अहद-ए-तल्ख़ हिफ़्ज़-ए-मरातिब है शहर में

हर ना-रवा रवा है ब-ईं नाम मस्लहत
इक कार-ए-इश्क़ ग़ैर मुनासिब है शहर में

किस हुस्न पर तजल्ली की हर चीज़ है असीर
हैबत ये किस के हुक्म की ग़ालिब है शहर में

इक ख़ौफ़-ए-दुश्मनी जो तआक़ुब में सब के है
इक हर्फ़-ए-लुत्फ़ जो कहीं ग़ाएब है शहर में

मैं तन्हा बीना-शख़्स हूँ अम्बोह ख़ल्क़ में
सब आइनों का रूख़ मेरी जानिब है शहर में

उस ख़ाक-ए-मुर्दा पर किसे आवाज़ दें ‘जफ़र’
हिजरत हम ऐसे लोगों पे वाजिब है शहर में

जान-ए-बे-ताब अजब तेरे ठिकाने निकले

जान-ए-बे-ताब अजब तेरे ठिकाने निकले
बारिश-ए-संग में सब आइना-ख़ाने निकले

सब बड़े ज़ोम से आए थे नए सूरत-गर
सब के दामन से वही ख़्वाब पुराने निकले

रात हर वादा-ओ-पैमान अमर लगता था
सुब्ह के साथ कई उज़्र बहाने निकले

ऐ किसी आते हुए ज़िंदा ज़माने के ख़याल
हम तेरे रास्ते में पलकें बिछाने निकले

कास-ए-दर्द लिए कब से खड़े सोचते हैं
दस्त-ए-इम्काने से क्या चीज़ न जाने निकले

हर्फ़-ए-इनकार सर-ए-बज़्म कहा मैं ने ‘जफ़र’
लाख अँदेशे मेरे दिल को डराने निकले

ख़ोशा ऐ ज़ख़्म की सूरत नई निकलती है

ख़ोशा ऐ ज़ख़्म की सूरत नई निकलती है
बजाए ख़ून के अब रौशनी निकलती है

निगाह-ए-लुत्फ़ हो इस दिल पे भी ओ शीशा ब-दस्त
इस आईने से भी सूरत तेरी निकलती है

मेरे हरीफ़ हैं मसरूफ़ हर्फ़-साज़ी में
यहाँ तो सौत-ए-यक़ीं आप ही निकलती है

ज़ुबाँ-बुरीदा शिकस्ता-बदन सही फिर भी
खड़े हुए हैं और आवाज़ भी निकलती है

तमाम शहर है इक मीठे बोल का साएल
हमारी जेब से हाँ ये ख़ुशी निकलती है

इक ऐसा वक़्त भी सैर-ए-चमन में देखा है
कली के सीने से जब बे-कली निकलती है

किसी के रास्ते की ख़ाक में पड़े हैं ‘ज़फर’
मता-ए-उम्र यही आज्ज़ी निकलती है

तू ने क्यूँ हम से तवक़्क़ो न मुसाफ़िर रक्खी

तू ने क्यूँ हम से तवक़्क़ो न मुसाफ़िर रक्खी
हम ने तो जाँ भी तेरे वास्ते हाज़िर रक्खी

हाँ अब उस सम्त नहीं जाना पर ऐ दिल ऐ दिल
बाम पर उस ने कोई शम्मा अगर फिर रक्खी

ये अलग बात की वो दिल से किसी और का था
बात तो उस ने हमारी भी ब-ज़ाहिर रक्खी

अब किसी ख़्वाब की ज़ंजीर नहीं पाँव में
ताक़ पर वस्ल की उम्मीद भी आख़िर रक्खी

जब भी जी चाहता मरने को हज़ारों थे जवाज़
ज़िंदगी हम ने सलामत तेरी ख़ातिर रक्खी

हिज्र की शब कोई वादा न कोई याद ‘ज़फर’
तू ने क्या चीज़ बचा कर मेरे शाएर रक्खी

 

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