बाघ
जंगल पहाड़ी के इस ओर है और
बाघ पहाड़ी के उस पार
पहाड़ी के उस पार महानगर है,
उसने अपने नाख़ून बढ़ा लिए हैं
उसकी आँखें
पहले से ज़्यादा लाल और प्यासी हैं
वह एक साथ
कई गाँवों में हमला कर सकता है
उसके हमलों ने
समूची पृथ्वी को दो हिस्सों में बाँट दिया है,
जहाँ से वह छलाँग लगाता है
वहाँ के लोगों को लगता है
यह उचित और आवश्यक है
जहाँ पर वह छलाँग लगाता है
वहाँ के लोगों को लगता है
यह उन पर हमला है
और वे तुरन्त खड़े हो जाते हैं
तीर-धनुष, भाले-बरछी और गीतों के साथ,
जहाँ से वह छलाँग लगाता है
वहाँ के लोगों को लगता है
उसके ख़िलाफ़ खड़े लोग
असभ्य, जंगली और हत्यारे हैं
सभ्यता की उद्घोषणा के साथ
वे प्रतिरोध में खड़े लोगों पर बौद्धिक हमले करते हैं
उनकी भाषा को पिछड़ा हुआ और
इतिहास को दानवों की दावत मानते हैं
उनके एक हाथ में दया का सुनहला कटोरा होता है
तो दूसरे हाथ में ख़ून से लथपथ कूटनीतिक खंजर,
युद्ध की संधि रिश्तों से और
रिश्तों से युद्ध करनेवाले
श्रम को युद्ध से और
युद्ध से श्रम का शोषण करने वाले
स्व-घोषित सभ्यता के कूप जन
गुप्तचरी कर और कराकर
किसी की भी आत्मा में प्रवेश कर सकते हैं,
उस दिन जब
सुगना मुण्डा की बेटी ने
उनकी वासनामयी
दैहिक माँग को खारिज़ कर दिया
तो वे ‘चानर-बानर’ बन कर
उसके समाज के अन्दर ही घुस आए
अब वे दैहिक सुख के लिए
सुगना मुण्डा की बेटी के
वंशजों की आत्मा में भी प्रवेश कर
बाघ का रूप धर रहे हैं
सुगना मुण्डा की बेटी हैरान है कि वह
उस बाघ की पहचान कैसे करे…?
कुछ कहते हैं
वह सभ्यता का उद्घोषक है
सत्ता का अहं है
कुछ कहते हैं
वह आदमी ही है
तो कुछ यह भी कहते हैं कि
बात बाघ के बाघपन की होनी चाहिए
जो हमारे अन्दर भी है और बाहर भी,
उस दिन से
सुगना मुण्डा की बेटी
बाघ के सामने तन कर खड़ी है…
सुगना मुण्डा
सुगना मुण्डा जंगल का पूर्वज है
और जंगल सुगना मुण्डा का
कभी एक लतर था तो दूसरा पेड़
कभी एक पेड़ था तो दूसरा लतर
यहाँ संघर्ष का सच भी था
और सौन्दर्य का आत्मिक स्पर्श भी
दोनों सहजीवी थे
दोनों के लिए मृत्यु का कारण था
एक दूसरे से विलगाव,
यहाँ हत्यारा कोई नहीं था
जैविक वनस्पतियों में
युद्ध के बीज कहीं नहीं थे
मान्दर और नगाड़े
छऊ जदुर और खेमटा
करम और सरहुल
पेड़ की फुनगियों पर
तीतरों की तीरयानी पर
बच्चों की तोतली बोली की तरह थे
सम्वाद गीत थे
और गीतों की भाषा
गुन्गु की तरह बुनी होती थी
यहाँ बाघ उतना ही अनुशासित था
जितना कि भूख
और यह सब एक दिन
सुगना मुण्डा ने
अपनी प्रियतमा के जूड़े में खोंस दिया था
उसकी प्रियतमा के जूड़े
इतने सुन्दर थे कि
उसकी महक पूरे जंगल में
जड़ों की तरह फैल गई
और उससे उगने लगे वंशबीज
पहले से ज़्यादा उर्वर
पहले से ज़्यादा साहसी
पहले से ज़्यादा चेतना सम्पन्न
हर बार ऐसा होता रहा
हर बार उम्मीद
बसन्त के गीत गाती रही,
कविता के लिपिबद्ध होने से पहले तक
सुगना मुण्डा गीत गाता रहा
उसे अलिखित करार
ज़्यादा सहज और सम्वेदनशील लगता था
अबोले सहमति पर उसकी साख थी
मितभाषी उसका अनुवांशिक गुण था
उसे लिखने से ज़्यादा
अपने साथ खड़े पेड़ों पर विश्वास था
उस पत्थर पर भरोसा था
जिसे वह अपने पुरखों के सम्मान में
क़ब्र पर उनके सिरहाने गाड़ आता था
उसे पृथ्वी पर भरोसा था कि
चेतना और विचार
उसी के उपादानों से आते हैं,
और इसी बीच
कविता के साथ-साथ
इतिहास, दर्शन, विज्ञान और
यहाँ तक कि
रिश्ते भी लिपिबद्ध होने लगे
अब लिखित ही सबकुछ था
लिखित ही प्रामाणिक था,
सुगना मुण्डा के सामने
जो दुनिया बन रही थी
उसमें वही वैध था
वही सभ्य और सांस्कारिक था
और लिखा वही जा रहा था
जो विजेता चाह रहा था
जो विजित थे
वे उनके लेखन के अयोग्य थे
तब सुगना मुण्डा ने जाना कि
पृथ्वी पर चेतना और विचार
हर जगह बिलकुल वैसे नहीं हैं
जैसे कि उसका देश है,
उसने यह भी जाना कि
उसके साथी
उसके सहजीवी
उसकी ज़मीन
उसके जंगल
उसकी नदियाँ
उसकी आज़ादी
उसका सम्मान
सब ख़तरे में हैं
उसे सूअरों ने
शब्दों के जंगल में इतना छकाया
कि वह छापामार बन गया
तब भी उसने गीत ही गाए
उसके गीत अलिखित, आरूढ़
और सौन्दर्य के संघर्षरत प्रतिमान बने,
चूँकि सैकड़ों साल पहले
सुगना मुण्डा ने
हण्डिया बनाने की कला से मुग्ध होकर
अपनी सुगनी के जूड़े में
रक्त-बीज का फूल खोंस दिया था
इसलिए फूल खिलते रहे
कभी बसन्त में, तो कभी बरसात में
यहाँ तक कि पतझड़ में
सबसे ज़्यादा लालायित होते थे
फूल खिलने के लिए
(बारहमासा फूल थे),
फूल के रंग अनगिनत थे
और आचीन्हें भी
(क्योंकि कभी भी
सुगना मुण्डा के फूलों के रंग को
ग्रन्थों और पोथियों में लिखा नहीं गया),
फूल खिलते रहे हैं सृष्टि के आरम्भ से
आरम्भ से ही जीवन के प्रश्न को लेकर
खिलते रहे हैं लाल-लाल रक्त-बीज के फूल
बाहर की दुनिया में अज्ञात थे सुगना के खिले फूल
जो ज्ञात थे वे अर्द्ध-ज्ञात थे वैदिक सदी में
और जितने ज्ञात फूल थे
वे फूल नहीं, उनके इतिहास का उपहास था,
फूल खिलते रहे —
वैदिक ग्रन्थों में खिले,
धर्म ग्रन्थों में खिले,
महाकाव्यों में खिले
ब्राह्मणों में खिले
लेकिन सुगना के लिए इनमें नहीं थी सुगन्ध
कहीं नहीं थे पराग
ऐसे ही फूल खिले थे
आर्यों के आगमन से
कोलम्बस के दम्भ से
वास्कोडिगामा की दुनियादारी से,
फूल खिले 1764 ई. में
1830 ई. में, 1832 ई. में, 1855 ई. में
उलगुलान में, भूमकाल में, मानगढ़ में
हर बार फूल खिलते रहे कि
दुनिया पहले से और ज़्यादा सुन्दर हो
हर बार सुगनी के जूड़े से ही
छीन लिया जाता रहा उसके हिस्से का फूल
उसकी देह से गन्ध और अखड़ा से गीत,
और एक दिन फूल खिला
सुगना मुण्डा के घर में
और लिखने वालों ने लिखा कि —
‘सुगना मुण्डा का बेटा था बिरसा मुण्डा’
लिपिबद्ध करने वालों ने लिपिबद्ध किया कि —
‘बिरसा मुण्डा धरती आबा हैं’
उन्होंने नहीं लिखा कि
‘सुगना मुण्डा की बेटी थी बिरसी’
उन्होंने नहीं बताया कि
‘सुगना मुण्डा की कोई बेटी थी या नहीं’
उन्होंने जानने नहीं दिया कि
‘सुगना मुण्डा की बेटियाँ घूँघट के नीचे
सहम कर नहीं जीती हैं
वे तो फरसे और धनुष के साथ बलिदानी हैं’
उन्होंने नहीं सुनाया कि
‘सुगना मुण्डा अपनी बेटियों को
बेटों से अलग नहीं करता है’
उन्होंने कचहरियों में दर्ज नहीं कराया कि
‘सुगना मुण्डा की बेटियाँ
अपने पिता के घर में उसकी पैतृकता की समान भागीदार हैं’
उन्होंने नहीं सुनाया सुगना मुण्डा का यह गीत कि
‘‘बेटियों के जन्मने से गोहर घर भर उठता है’’
उन्होंने गवाही नहीं दी कि
‘बिरसा मुण्डा के साथ डूम्बारी बुरु में
बड़ी संख्या में सुगना मुण्डा की बेटियों ने कुर्बानी दी
और मृत माँ से चिपक कर दूध पीते बच्चे को देखकर
गोरे कप्तान की पत्नी की आँखों में आँसू आ गए थे’
और यह गीत आज भी मुण्डा गाते हैं
सुगना मुण्डा की सुगनी ने
खिलाए थे फूल
उन फूलों ने अपनी कोमलता से नहीं
अपने रंगों से बाघों को चुनौती दी थी
और यह बात उस डाकिये ने नहीं सुनी
जो सुगना और सुगनी की दुनिया में
अपने पैतृक वंशावली के साथ आया था
और इस तरह अधूरे ही रहे प्रतिमान
उनके विश्लेषण के
पूरी बात यहाँ से नहीं पहुँची
कि बिरसा मुण्डा के साथ बिरसी भी रही है
कि बिरसी और बिरसा ने
सम्मिलित चुनौती दी है आदमख़ोरों को
कि कभी नहीं एक ध्रुवीय रही है उनकी दुनिया,
हमेशा दफ़न किया गया है
जनवादी संघर्ष को
जनता के गीतों को
एक ‘सम्भ्रान्त’, ‘सवर्ण’ और ‘पैतृक’
फ़्रेम रहा है उनके पास अपना
और उसी मानक में कसते रहे हैं
वे सभ्यता की परिभाषा
उसी परिभाषा में, उसी फ़्रेम के अन्दर
जबरन घसीटा गया सुगना मुण्डा के बच्चों को
इतना गहरा और इतना अधिक दार्शनिक प्रलोभन देकर कि
आज वे उनकी भाषा को अपनी भाषा में अनूदित करने लगे हैं
समसत्ता का पितृसत्तात्मक भाष्य ही प्रस्तुत किया जाता रहा है उनके सामने
अनूदित भाषा के व्यवहार का ही प्रचलन किया जा रहा है उनमें,
और तब सुगना मुण्डा की बेटी को
यक़ीन होने लगा कि
चानर-बानर होते हैं
उलट्बग्घा होते हैं
आदमी ही बाघ बनते हैं
कुनुईल होते हैं
जो हमेशा शिकार की खोज में होते हैं
उनके लिए न कोई अपना है
न कोई पराया है
उनका अपना सिर्फ़ उनकी भौतिक भूख है,
शिकार की खोज में
गलियों में, घाटों में, बाज़ारों में
घूमते हिंसक बाघों को देखकर भी
आज सुगना मुण्डा ने अपनी बेटी से नहीं कहा कि
‘बिरसी! घर में छुप जाओ’
नहीं कहा कि
‘तुम एक लड़की हो’
उसने कहा —
‘बिरसी! आज भी जंगल हमारा पूर्वज है
और हम जंगल के पूर्वज हैं
हमारे पूर्वजों से विच्छेद करा कर
हमारे अस्तित्व की रीढ़ तोड़ी जा रही है
हमें अपने पूर्वजों की सहजीविता से जबरन दूर रख कर
हमारे अन्दर वर्चस्वकारी संस्कार आरोपित किए जा रहे हैं
कि हम एक ही दिखें, एक ही रंग में रंगे
हम भी सभ्यता के भ्रम में करने लगे हैं
बेटियों की पहचान बेटों से अलग’
उसने पहाड़ी के उस पार से उभर कर आती
आकृतियों को देख कर
गहरी साँस छोड़ते हुए चिन्ता के स्वर में कहा — बिरसी!
यह बाघ के हमले की साजिश है
वह समूह पर हमला नहीं कर सकता
इसके लिए वह पहले शिकार को खदेड़ कर अलग-अलग करता है,
यह बाघ का ही हमला है कि
हम बिखर रहे हैं
हम भूल रहे हैं अपनी ही सहजीविता
लैंगिकता के साथ
पितृसत्ता का स्वीकार
हमारे ख़ून में ज़हर भरेगा
और आन्तरिक संरचना में कमज़ोर होकर
मुक्ति की परिकल्पना सम्भव नहीं है
सदियों से बाघ
हमें अपने ख़ूनी पंजों में
जकड़ने की कोशिश करता रहा है
हर बार हमारी सहजीविता ने उसे पराजित किया है
हमारी सहजीविता ही बनाती है
भेदरहित मज़बूत रिश्ते
सत्ता और वर्चस्व
अपने बाघपन से ही जीवित रहती है
आदमी ही बाघ हो जाते हैं
‘चानर-बानर’ होते हैं
‘उलट्बग्घा’ होते हैं
भले ही जंगल ख़त्म हो जाए
भले ही प्राकृत बाघ विलुप्त हो जाएँ,
बिरसी! जंगल के पूर्वज
कभी भी प्राकृत बाघ के दुश्मन नहीं रहे हैं
हम जंगल के पूर्वज रहे हैं
और जंगल हमारा पूर्वज है
जंगल केवल जंगल नहीं है
नहीं है वह केवल दृश्य
वह तो एक दर्शन है
पक्षधर है वह सहजीविता का
दुनिया भर की सत्ताओं का प्रतिपक्ष है वह।’’
गुरिल्ले का आत्मकथन
1.
मैं एक कविता की
खोज में हूँ
जो दूँढ़ निकाले
युद्ध के मैदान में
लैंड-माईन्स,बारूदी सुरंग
और छुपे हुए हमलावारों को
एक बच्चे की तरह
जो अपने मृत माँ-पिता
और स्वजनों के साथ ही
उस कविता के लिए रो रहा है
जो उसे वहाँ से बाहर निकाले।
2.
क्या युद्ध
हवाई जहाज़ों, युद्ध-पोतों, टैंकों
और अंततः दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच
उनके हस्ताक्षर से लड़ा जाता है ?
मैं सोचता हूँ –
अगर ‘हाँ’ तो
हम कौन सी परिस्थितियों में जी रहे हैं…?
मैं अपनी बात मीडिया
और पत्रकार बंधुओं से कहता हूँ
वे हँसते हैं कि – ‘यह मेरी मूर्खता है’
इससे हास्यास्पद
और क्या हो सकता है कि
मेरे घर की मुर्गियाँ खो गईं
सूअर दड़बों सहित गायब हैं
हल जोतते बैल या तो
खेत में समा गए हैं
या, खेत दब गए होंगे गोबर से
नदी अपना रास्ता बदलकर
गाँव में घुस गई होगी या, पूरा गाँव
गाँव सहित नदी में डूब गया है
मैं अपने स्वजनों को खोजते हुए
भटकता हूँ और अखबार वालों को
विज्ञापन मिलने लगते हैं पहले से कई गुना ज्यादा
मैं किसी राष्ट्राध्यक्ष को पत्र नहीं लिखूँगा
वह मेरा दोस्त नहीं है और न ही
वह मेरी प्रेम कहानी के बारे में कुछ जानता है
यह उसके लिए भी एक चुटकुला ही होगा
कि मुझे अपनी मुर्गियों से प्रेम है
जंगली लतरों, फलों और पहाड़ों से प्रेम है
मैं सूअरों, बैलों, भैसों और गिलहरियों के
अचानक खो जाने से सदमें में हूँ
वह इन सबको अलग-अलग कर देखेगा
वह गाय के जीवन को अलग बाँट देगा
और वह हिंसा का कारण बन जाएगी
वह ‘गंगा’ कहेगा और दूसरी नदियाँ सड़ जाएँगी
गिलहरी, जंगली भैंसे, हाथियों और हमें
बाँट कर बताएगा जीवन की परिभाषा
जबकि हम इनके साथ ही
बेहतर दुनिया बसाना चाहते हैं
मेरे ऐसे पत्र पर वह हँसेगा और कहेगा कि
हमारी दुनिया आदिमता की काली दुनिया है
मैं अपने स्वजनों, साथियों को
मिलने के लिए कहता हूँ जंगल में
राष्ट्राध्यक्षों के शिखर सम्मलेन वाले दिन
उनसे कहता हूँ कि अब
कोई जंगल, नदी, पहाड़ और जमीन नहीं
पीछे हटने के लिए
कि एक हिस्से में आग लगे
तो दूसरे हिस्से में दाना चुगने चले जाएँ
हमारे बच्चे, हमारी बहनें
हमारे बूढ़े और हमारी औरतें
उसी जलती आग में रोज तपते हैं
आधुनिकता की घोर आदिम पाशविक संधि-पत्रों के खिलाफ।
3.
रोज कोई हमें धकेलता है
युद्ध भूमि की तरफ
जो हमें धकेलता है
हम उसी से
लड़ने को तैयार हो जाते हैं
वह कहता है कि
हम युद्ध कर रहे हैं
हम जानते हैं कि
हम युद्ध में जाने से खुद को रोक रहे हैं।
4.
एक चिड़ी जंगल की
पगडंडियों से गुजरती है
और वहीं कहीं
होता है तिलिस्म सुरंग
चिड़ीमार उसके पदचिह्नों का पीछा करते हुए
उसके गाँव तक पहुँचते हैं
और जब तक
उसके गाँव को नहीं जलाया जाता
तिलिस्म सुरंग बारूदी सुरंग नहीं होता है।
5.
चिड़ीमार मेरी बूढ़ी माँ से पूछते हैं
मेरे जंगल का ठिकाना
मेरी माँ उनसे पूछती है कि
क्या उनके बंदूक से
कोई चिड़ा मर सकता है…?
वे कहते हैं – ‘हाँ’
तो फिर मेरी माँ कहती है
उसे कुछ भी नहीं पता है।
6.
एक दिन एक चिड़ी
मुझसे आकर पूछी –
‘तुम अपने कंधे पर बंदूक टाँगे
रात-दिन, भूखे-प्यासे
जंगली पगडंडियों में भटकते हो
क्या तुम्हें इस तरह खुशी मिलती है
जैसे मैं खुश रहती हूँ गीत गाते हुए’
तब मैंने उसे हल्की मुस्कान दी
और कहा –
‘मैं तुम्हारा ही तो गीत गाता हूँ।’
7.
कुछ यूँ ही बैठा हूँ
शाम के धुंधलके में
घर की चौखट पर अकेले
सभी अपने अपने घरों को लौट रहे हैं
मुर्गी अपने चूजों के साथ
अभी तुरंत ही दड़बे के अंदर घुसी है
बैल, बकरी भी पागुर करते हुए
अपना-अपना स्थान ले चुके हैं
सूअर घों-घों कर सुस्त हो चुके हैं
मैं भी खेत से अभी-अभी लौटा हूँ
यहाँ सुदूर जंगल के बीच सब कुछ स्थिर होने को है
सिवाय रात के जो लगातार गतिमान है
कभी पुरखे डर कर दुबक जाते थे जिसे काला दैत्य जानकर
वह मालगाड़ी अभी-अभी ही इस आदिवासी गाँव से होकर गुजरी है
लोहे का कचरा ढोए रात को हार्न देते हुए और रातभर जारी रहेगा यह सिलसिला…
उन दिनों की तरह अब पहर का होना
और रात का होना दो अलग-अलग बातें नहीं रहीं
जब रात के दूसरे पहर चाँदनी में
हाथियों का झुंड और जंगली भैंसे चरती थी
चाँद उन दिनों रात का स्थगन प्रस्ताव लेकर नहीं आता था,
हम जानते हैं चाँदनी कुछ देर के लिए
अँधेरे को स्थगित कर सकती है
लेकिन रात को पहर भर करने के लिए सूरज ही अंतिम विकल्प है
और इस बात को जानते हुए उसके उगने की प्रतीक्षा करना
अपने ही पैरों में खुद बेड़ियाँ डालने जैसा है, बेड़ियों को तोड़ते हुए सोचता हूँ
क्या पागुर करती हुई बकरियों और बैलों को भी पता होता है हमारा दुख
क्या वे जानते हैं कि हम इस वक्त समान दुख और संकट के दौर से गुजर रहे हैं
कि इस गाँव से बेदखल हो जाने के बाद
न उनके लिए और न हमारे लिए रह जाएगा कोई चारागाह
और उन जंगली भैंसों का क्या होगा जो हमारे टोटेम हैं …केरकेट्टा …ढेचुवा …और होरल …?
एक रात रुक कर, या एक डिजिटल फ्लैश चमकाकर
नहीं लिया जा सकता है नाभिनाल सहजीवियों के साथ हमारा फोटो
पत्रकारों और पर्यटक लेखकों को यह बात ठीक से समझ लेनी चाहिए
कि हमारी भाषाओँ की अपनी अर्थ ध्वनियाँ हैं
जिसको वे आज तक अनुवाद के जरिये भी समझ नहीं सके हैं
कि किस चिड़ी को किस बकरी के दुख ने छापामार बना दिया है
कि समान दुख के लिए समान समाधान जरुरी है के तर्ज पर संयुक्त कारवाई की बात हो सकती है
यह बात उन पत्रकारों से पूछा जाना चाहिए जो बार-बार एक लाश पर अपने कैमरे को टिकाए हुए
व्यवस्था की पोल खोलने का दावा कर रहे हैं, और कह रहे हैं कि
कविता में पक्षधरता और प्रतिरोध बेमानी, कृत्रिम और अनावश्यक चीज है
हत्याओं से सबसे ज्यादा काँपता है मानव मन
और हत्याओं के खिलाफ उसके पास सबसे ज्यादा तर्क होते हैं
हम नहीं चाहते ऐसा कोई तर्क बावजूद इसके
कि उन्हीं तर्कों से की गई है हमारे स्वजनों और सहजीवियों की हत्या
कविता में भी आलोचक यही तर्क लाते है सजाने, चमकाने और परोसने का तर्क
कैसे मैं लाऊँ कविता में शिल्प, सौष्ठव और सौंदर्य…(?)
ओह…! कितना सुंदर है हमारा गाँव …हमारा देस
हमारे साथी… हमारे जंगल… ईचा बाहा और …सिंबुआ बुरू।
रात जारी है, फैल रहा है अँधेरा
चाँद बहुत देर तक स्थगित नहीं कर सकता रात को
हमारे बैल, बकरियों और मुर्गियों को पता है हमारा दुख समान है
हम दुखी हैं कि हमारी पत्नी और बच्चे फर्जी मुठभेड़ में मारे गए हैं
और दुख इससे भी ज्यादा यह है कि
यह बात पड़ोस के गाँव तक सही-सही पहुँचने नहीं दी जा रही
हमारी पहचान द्वीप में भटके-अटके नाविक की तरह हो रही है
बातें तो फैल रही हैं लेकिन कानून के उन अनुच्छेदों की तरह
जिसकी पुष्टि के लिए बार-बार न्यायाधीशों की जरूरत होती है
न्यायाधीशों के रास्ते थकाऊ, घुमावदार और अंतहीन…
कई पीढ़ियों से जारी है उनके यहाँ चक्कर काटने का हमारा सिलसिला…
और मैं बैठ जाता हूँ सदियों की लंबी थकान के बाद घर की चौखट पर ही
कुछ देर में साथी जुगनू आनेवाले हैं और मैं उनके साथ हो जाऊँगा
ओ मेरे पुरखों ! ये जुगनू तुम्हारी ही आत्मा के जीवित रूप हैं
मुझे देखो मैं जुगनुओं के साथ अपनी हथेली में भर रहा हूँ सहजीविता के गीत।
8.
मैं हर वक्त
घिरा होता हूँ मृत्यु से
तब भी गीत गाता हूँ
मुझे गीत गाता देख
उलझन में पड़ जाती है मृत्यु
वह सोचने लगती है कि
मुझे निशाना बनाए या मेरे गीत को,
वहाँ उस घाट पर
जब मृत्यु ने हमला किया था हम पर
तो वह हतप्रभ होकर देखने लगी थी कि
हम क्यों लड़ते हैं इतने साहस से
और क्यों नहीं उसे
अपनी इस करनी पर शर्मिंदा होना चाहिए
वह लौट गई थी यह सोचते हुए कि
अगर इस धरती पर बो दी जाय
पके धान की खुशबू वाली गेंद
तो सभी बच्चे गोल मारते हुए जश्न मनाएँगे
और वह युद्ध में मोर्चेबंदी करने से मुक्त हो जाएगी
बच्चे अपनी गठरी में बटोरेंगे गेंद
और यह धरती गेंद खेलते
बच्चों के हरे मैदान में तब्दील हो जाएगी
उस दिन मृत्यु ने हमसे यही गीत सुना था
और वह लौट गई थी हमारे सवालों के साथ,
हम जानते हैं हमारी कविता शब्दों की मरुभूमि से नहीं उगती
और न ही हम रेत के टीले पर घर बनाने के हिमायती हैं
यहाँ हमारे पुरखों के साथ खड़े ‘ससन दिरी’ जानते हैं
‘जीवित होने’ का एहसास
साल के वृक्षों को पता है जन्म का उत्सव
हरवैये बैल समझते हैं खेती के दिनों की बोली
हम यहाँ इस चट्टानी टीले के पास
या, वहाँ उस घाट के पास
बैठे हुए अपनी धरती के बारे सोचते हैं
हमें अपने बच्चों की नादानी पसंद हैं
और उनकी तोतली बोली हमें चाहती है
हम उन्हें अपनी आखों से आश्वासन देते हैं
उनके गीतों, जुगनुओं, तितलियों और सपनों के बारे में,
कितनी शांति होती है यहाँ इस टीले पर…
पहाड़ की तराई पर, नदी के तट पर,
गीत साझा करते हुए हम सहजीवी होते हैं
कि एक पेड़ से टिकी लतर अपनी देह पर
गिलहरी को उठा कर उसे खिलाती है कोई पका फल
और नदी उकेरती है यह चित्र अपने सीने में
और पहाड़…, क्या झुकते नहीं नदी की आँखों में यह सब झाँकने
ओ ! फूलों पर लोटती हुई तितली
ओ ! जुगनूओं की दादी
देखो, एक छोटी चिड़ी
अभी-अभी बच्चे को जन्म दी है
क्या हमें उसके लिए गीत नहीं गाना चाहिए…?
जुगनू, तितली, फूल, पेड़, नदी, जंगल
सभी सहजीवी जानते हैं हमारी उम्र इसी तरह बढ़ती है।
ससन दिरी : मुंडाओं की सांस्कृतिक विरासत वाला पत्थर। अपने पुरखों की स्मृति में उनके सम्मान में उनके कब्र पर गाड़ा जाने वाला यह पत्थर मुंडाओं के गाँव का मालिकाना चिह्न है। कहा जाता है कि अंग्रेजी समय में जब मुंडाओं से उनके गाँव का मालिकाना पट्टा माँगा गया था तो वे इसी पत्थर को ढोकर कलकत्ता की अदालत में पहुँच गए थे।
अख़बार
मेरे कमरे में पुराना अख़बार
हवा के झोंके से फड़फड़ा रहा है
शायद वह कह रहा है
कि उसे पहुँचा दिया जाए
विज्ञापन कम्पनियों के यहाँ
जिन्होंने उसके चेहरे पर
झूठ का रंगपोत दिया है
या, वह कह रहा है
कि उसे पहुँचा दिया जाए
उन विद्रोहियों के यहाँ जंगल में
जिनसे मुठभेड़ की ख़बर छपी है
मैं चुपके से उठता हूँ
और धीरे से अख़बार को
काठ की तख़्ती से दबा देता हूँ ।
ऑक्सीजन
ऑक्सीजन के बिना
सब कुछ थमने लगता है
मसलन, रेल
जहाज़
यहाँ तक कि राज-पाट भी
और जब दम घुटता है तो
सबसे पहले बच्चे ही मरते हैं
जब बच्चे मरने लगें
तो उस समय के
रसायनों को परख लेना चाहिए
हो सकता है कि
वहाँ बच्चों की मौत संक्रामक हो
ऐसा भी हो सकता है कि
बड़े भी उसकी चपेट में पहले से हों
और घुट रहे हों समय के समीकरणों में
ख़बरें छपती हैं बच्चों के मरने की
सड़कों पर
गड्ढ़ों में
स्कूलों में
यहाँ तक कि अस्पतालों में
उनकी सामूहिक मौत
नृशंस हत्या नहीं कहलाती
न ही उस देश के प्रधान सेवक को
इस बात का अफ़सोस होता है कि
बच्चे मर रहे हैं
इसका मतलब है कि
कहीं न कहीं
उसके समय में जीवन की संभवनाएँ घट रही हैं
ऑक्सीजन की सप्लाई बन्द है
ऑक्सीजन ख़त्म हो रहा है
ऑक्सीजन न होने से बच्चे मर रहे हैं
ये ऐसे कथन हैं जो किसी समय में
हमारे होने को
कोई दूसरे तय करते हैं
जैसे कि इस ग्रह में
यह दुर्लभ है
उनके लिए जो जीना चाहते हैं
हमें बताया जाता है कि ऑक्सीजन जीवनदायिनी है
हमें सिखाया जाता है कि ऑक्सीजन संजीवनी है
हमसे छुपा लिया जाता है कि ऑक्सीजन शासन की कहानी है
एक कविता सहारनपुर
जिन्हें पेड़ होना था वे आतताई हुए
जिन्हें छाँव होना था वे बंजर हुए
और जो दलित हुए
उन्हें गुठलियों की तरह रोपा जाता रहा संसदीय खेत में
मजदूरी अब विषय नहीं जाति का उत्सव है
अब हत्याओं की होड़ कारीगरी है
मरे हुए तालाब में लाशें नहीं
विचारधाराएँ तैर रही हैं
जिन्हें विमर्श रुचिकर नहीं लगा
प्रति विमर्श को उन्होंने खंजर की जगह दी
यह साहित्य में है, यह चिन्तन में है
यह राजनीति में है, यही सहारनपुर है
जिनकी सन्तानों को पेड़ होना था
जिनकी सन्तानों को हरा होना था
वे समाजशास्त्र के विषय में फेल हुए
और वे उठा लाए अपने पुरखों की हिंसक क़ब्रें
झूठी शान और स्वाभिमान का जातीय दम्भ
इतना क्रूर और इतना ज़हरकारी कि बौद्धिक तक उससे मुक्त नहीं
ख़ून वहीं से रिस रहा है
गोली वहीं से चल रही है
सबको होना तो पेड़ ही था
हरे होते, फूल होते, साँसे होती
लेकिन छूटता कैसे उनका अहंकार
और भूलते कैसे हम यातनाएँ
कब तक भंगी कहलाते
कब तक आदमी न कहलाते
होना था ही इतिहास में, जो हुआ सहारनपुर में
क्या कुछ नहीं हुआ हाल ही में गढ़चिरौली में?
मुक्त नहीं हैं हम विभाजन से
तटस्थ नहीं हैं हम सवालों से
हम पहचाने जाएँगे आख़िर
गोली चलेगी जब
तब किधर होगा हमारा सीना
यहाँ वर्ग है, विमर्श नहीं
यहाँ वर्ण है, बहस नहीं
‘यह गोली दागो पोस्टर है’ विज्ञापन नहीं
शुक्र होगा सब यह जान जाएँ
कौन बकरी चरावे जेठ में
कौन कलेजा सेंके ग़ुलामी में
कौन लिखे लाल इतिहास
साँवले चेहरों के नीले कन्धों पर.?
यह विमर्श है यातनाओं का
जिन्हें न रुचे वह लौटें अपने जातीय खोल में
और हमें ललकारें
यह युग हमारा है,यह इतिहास हमारा है
चलेंगे साथ वे जो मानुख होंगे, खरे होंगे।
(15/05/18)
आदिवासी
वे जो सुविधाभोगी हैं
या मौक़ा परस्त हैं
या जिन्हें आरक्षण चाहिए
कहते हैं हम आदिवासी हैं,
वे जो वोट चाहते हैं
कहते हैं तुम आदिवासी हो,
वे जो धर्म प्रचारक हैं
कहते हैं
तुम आदिवासी जंगली हो ।
वे जिनकी मानसिकता यह है
कि हम ही आदि निवासी हैं
कहते हैं तुम वनवासी हो,
और वे जो नंगे पैर
चुपचाप चले जाते हैं जंगली पगडंडियों में
कभी नहीं कहते कि
हम आदिवासी हैं
वे जानते हैं जंगली जड़ी-बूटियों से
अपना इलाज करना
वे जानते हैं जंतुओं की हरकतों से
मौसम का मिजाज समझना
सारे पेड़-पौधे, पर्वत-पहाड़
नदी-झरने जानते हैं
कि वे कौन हैं ।
औरत की प्रतीक्षा में चाँद
उस रात आसमान को एकटक ताकते हुए
वह ज़मीन पर अपने बच्चों और पति के साथ लेटी हुई थी
उसने देखा आसमान
स्थिर, शान्त और सूनेपन से भरा था
तब वह कुछ सोचकर
अपनी चूडिय़ाँ, बालियाँ, बिन्दी और थोड़ा-सा काजल
उसके बदन पर टाँक आई
और आसमान
पहले से ज़्यादा सुन्दर हो गया,
रात के आधे पहर जंगल के बीच
जब सब कुछ पसर गया था
छोटी-छोटी पहाडिय़ों की तलहटी में बसे
इस गाँव से होकर गुज़रती हवाओं को
वह अपने बच्चों और पति के लिए तलाश रही थी
उसी समय चाँद उसके पास चुपके से आया
और बोला —
सुनो ! हज़ार साल से ज़्यादा हो गए
एक ही तरह से उठते-बैठते, चलते,
खाते-पीते और बतियाते हुए
तुम्हारा हुनर मुझे नए तरीके से
सुन्दर और जीवन्त करेगा
तुम मुझे तराश दो,
वह औरत अपने बच्चों और पति की ओर देख कर बोली —
मैं कुछ देर पहले ही पति के साथ
खेत में काम कर लौटी हूँ और
अभी-अभी अपने बच्चों और पति को सुलाई हूँ
सब सो रहे हैं अब मुझे घर की पहरेदारी करनी है
इसलिए जब मैं खाली हो जाऊँगी
तब तुम्हारा काम कर दूँगी
अभी तुम जाओ
और चाँद चला गया उस औरत की प्रतीक्षा में,
चाँद आज भी उस औरत की प्रतीक्षा में है ।
रचनाकाल : 21-22 मार्च 2013
चिडिय़ाघर में ज़ेबरा की मौत
चिडिय़ाघर में ज़ेबरे की मौत पर
रोने के लिए कोई और नहीं था
सिवाय उसके एक और साथी जेब्रा के
जिसे रखा गया था उसके साथ
केवल प्रजनन के उद्देश्य से,
वह डर कर दुबका हुआ था एक कोने में
भयानक अकेलेपन और अजनबीपन में
उसकी आँखें देख रही थी फ्लैश-बैक में वह दृश्य
जब वह झुण्ड के झुण्ड अपने दल के साथ
दिन भर चौकड़ी भरा करता था
जहाँ चरने के लिए खुला मैदान था
प्यास मिटाने के लिए उन्मुक्त नदी थी
और एक जंगल था आत्मिक विश्रान्ति के लिए,
अब कुछ भी नहीं रह गया
उनके हिस्से के लिए
उनका हिस्सा भी नहीं रहा
वह जो कभी उनका पूरा होता था
अगर यह सब होता तो शायद
यह न होता जो आज हुआ
अगर होता भी समय के चक्र में
तो ऐसा न होता जो आज हुआ
आज होता सामूहिक शोक
सारा गाँव आख़िरी बार फिर उसके साथ होता
उसके सम्मान में होता एक आख़िरी गीत
कोई उसकी ज़िद से उसे अन्तिम बार पहचानता
कोई उसकी नृत्य शैली से
कोई कहता करमा नाचने में उसका कोई जोड़ नहीं था
तो कोई उसे उसके पुरखों के इतिहास से पहचानता,
यहाँ जुटी भीड़ उसे नहीं पहचानती है
और न ही वह उसके साथी के लिए
शोकगीत में शामिल होगी
यह भीड़ केवल तब तक बेचैन है
जब तक कि वह उसकी तस्वीर न ले ले
मेरा दु:ख ज़ेबरे की मौत से है
और डर चिडिय़ाघर से
चिडिय़ाघर की जमीन फैल रही है और दीवार ऊँची
पिंजरों की संख्या बढ़ाई जा रही है
और वहाँ जंगल में
आदिम जनसंख्या उसके लिए तैयार की जा रही है
म्यूजियम में उसकी खाल, हड्डियाँ
वाद्य यन्त्र, भाषा और उसके गीत सुरक्षित किए जा रहे हैं
चिडिय़ाघर में ज़ेबरे की मौत
केवल ज़ेबरे की मौत नहीं,
हमारी सम्भावित आगामी मौत है ।
बाँस की गुड़िया
(अनगिनत उन दादी माँओं के लिए जिन्होंने अपनी पीठ पर पोतों को बेतरा कर जंगल के हर फूल में अपनी गुमनाम खुशबू भरी है।)
हेलता तीयन राँधते हुए 1
अक्सर तुम कहा करती थी कि
मैं नहीं झुकता तुम्हारे सामने
तुम्हारी बातों को
अपनी बातों से काट देता हूँ
तब खीझती हुई
अनजाने ही तुम्हारी अँगुली कट जाती थी
और बार-बार
मेरे जिद करने पर भी
रुआँसी होती हुई तुम
अपनी अँगुली छुपा लेती थी,
रात को ढिबरी की रोशनी में
मुझे खाना खिलाते हुए
तुम्हारा मन
उसकी लौ की तरह
हिलता-डुलता रहता था
तुम्हें डर होता था कि
मेरी कोई स्वाद की बात
उस लौ को बुझा न दे
डरती हुई तुम मुझे
और अधिक प्यार करती थी,
रात जब चाँद उतर आता था
हमारे आँगन में
तुम उसके जूट से बुन लेती थी
मेरे लिए नींद की बोरियाँ
लोरियों की गठरी में लेटा हुआ
मैं ओस की बूँदों में घुलता था
खरगोश की नरम छुअन
पंडुकों के गीत
हाथियों की चिंघाड़
सिंह की दहाड़
मेरे अंदर सहजता और साहस को
और अधिक हरा करती थी, और
रात जब थक जाती थी
हमारी नींद में सपने बोते-बोते
मुर्गे की पहली बाँग में
मेरे हाथों आ जाती थी
दादाजी की कुदाल
कुदाल चलाते हुए
मैं झुका होता था खेत पर
तब भी तुम्हें शिकायत थी कि
मैं नहीं झुकता तुम्हारी बातों के सामने,
झुकना जबकि
सबसे कायरतापूर्ण क्रिया मानी गई है
हमारे गीतों में
तुम चाहती थी कि
मैं झुकूँ
तुम्हारी बातों के सामने
लेकिन तुम्हारी गुहार में नहीं थी
वह कायरता की माँग
जिसमें हमारे ही बीच के कुछ लोगों ने
झुकना स्वीकार किया था चंद सिक्कों के लिए
और आबा बिरसा को
दबोच लिया था गोरे दीकुओं ने
तुम्हारी गुहार में थी
हेलता के स्वाद को स्वीकारने की जिद
उसकी महक को प्रेम में रूपांतरित करने की जिद
और उसके लिए
अपने को होम कर देने की माँग
जो तुमने सीखा था बचपन के दिनों में
हरे पेड़-पौधों, जंतुओं
और वनस्पतियों के साथ
लुका-छिपी का खेल खेलते हुए,
उन दिनों जब कहीं नहीं था
हमारे शब्द-कोश में ‘स्कूल’
तुमने पढ़ लिया था
जीने की गरिमा का पाठ
मेरी हर बात के सामने झुकने वाली
तुम कभी नहीं झुकी
हमारे पुरखों की अनगिनत शहादतों के बावजूद
दादाजी के शहीद हो जाने के बाद भी
तुम पिताजी को पीठ पर बेतराए हुए
अपनी जमीन पर कुदाल चलाती रही
ओ जियाईंग!
ओ मेरी बाँस की गुड़िया!
तुम्हारे गुजर जाने के दशकों बाद भी
वही कुदाल लिए हुए
पिताजी के साथ
खेत पर झुका हुआ हूँ
तुम्हें पता है
यह कायरतापूर्ण कारवाई नहीं
तन कर खड़े रहने की जिद है
उन लोगों के सामने
जो हमसे छीन लेना चाहते हैं
हमारी भाषा
हमारे गीत
और बाजुओं की गूँथी हुई
अखाड़े की
हमारी लयबद्ध प्रतिबद्धता।
1. हेलता तीयन राँधते हुए – बाँस की सब्जी बनाते हुए।
हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती
हमारे सपनों में रहा है
एक जोड़ी बैल से हल जोतते हुए
खेतों के सम्मान को बनाए रखना
हमारे सपनों में रहा है
कोइल नदी के किनारे एक घर
जहाँ हमसे ज़्यादा हमारे सपने हों
हमारे सपनों में रही है
कारो नदी की एक छुअन
जो हमारे आलिंगनबद्ध बाजुओं को और गाढ़ा करे
हमारे सपनों में रहा है
मान्दर और नगाड़ों की ताल में उन्मत्त बियाह
हमने कभी सल्तनत की कामना नहीं की
हमने नहीं चाहा कि हमारा राज्याभिषेक हो
हमारे शाही होने की कामना में रहा है
अंजुरी भर सपनों का सच होना
दम तोड़ते वक़्त बाहों की अटूट जकड़न
और रक्तिम होंठों की अंतिम प्रगाढ़ मुहर।
हमने चाहा कि
पंडुकों की नींद गिलहरियों की धमा-चौकड़ी से टूट भी जाए
तो उनके सपने न टूटें
हमने चाहा कि
फ़सलों की नस्ल बची रहे
खेतों के आसमान के साथ
हमने चाहा कि जंगल बचा रहे
अपने कुल-गोत्र के साथ
पृथ्वी को हम पृथ्वी की तरह ही देखें
पेड़ की जगह पेड़ ही देखें
नदी की जगह नदी
समुद्र की जगह समुद्र और
पहाड़ की जगह पहाड़
हमारी चाह और उसके होने के बीच एक खाई है
उतनी ही गहरी
उतनी ही लम्बी
जितनी गहरी खाई दिल्ली और सारण्डा जंगल के बीच है
जितनी दूरी राँची और जलडेगा के बीच है
इसके बीच हैं-
खड़े होने की ज़िद में
बार-बार कूड़े के ढेर में गिरते बच्चे
अनचाहे प्रसव के ख़िलाफ़ सवाल जन्माती औरतें
खेत की बिवाइयों को
अपने चेहरे से उधेड़ते किसान
और अपने गलन के ख़िलाफ़
आग के भट्ठों में लोहा गलाते मज़दूर
इनके इरादों को आग़ से ज़्यादा गर्म बनाने के लिए
अपनी ’चाह’ के ’होने‘ के लिए
ओ मेरी प्रणरत दोस्त!
हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती।
हमारी मौत पर
शोकगीत के धुनें सुनाई नहीं देंगी
हमारी मौत से कहीं कोई अवकाश नहीं होगा
अख़बारी परिचर्चाओं से बाहर
हमारी अर्थी पर केवल सफ़ेद चादर होगी
धरती, आकाश
हवा, पानी और आग के रंगों से रंगी
हम केवल याद किए जाएँगे
उन लोगों के क़िस्सों में
जो हमारे साथ घायल हुए थे
जब भी उनकी आँखें ढुलकेंगी
शाही अर्थी के मायने बेमानी होगें
लोग उनके शोकगीतों पर ध्यान नहीं देंगे
वे केवल हमारे क़िस्से सुनेंगे
हमारी अंतिम-क्रिया पर रचे जाएँगे संघर्ष के गीत
गीतों में कहा जाएगा
क्यों धरती का रंग हमारे बदन-सा है
क्यों आकाश हमारी आँखों से छोटा है
क्यों हवा की गति हमारे क़दमों से धीमी है
क्यों पानी से ज़्यादा रास्ते हमने बनाए
क्यों आग की तपिश हमारी बातों से कम है
ओ मेरी युद्धरत दोस्त !
तुम कभी हारना मत
हम लड़ते हुए मारे जाएँगे
उन जंगली पगडंडियों में
उन चौराहों में
उन घाटों में
जहाँ जीवन सबसे अधिक संभव होगा।
महुवाई गंध
कामगारों एवं मज़दूरों की ओर से उनकी पत्नियों के नाम भेजा गया प्रेम-संदेश
ओ मेरी सुरमई पत्नी !
तुम्हारे बालों से झरते हैं महुए ।
तुम्हारे बालों की महुवाई गंध
मुझे ले आती है
अपने गाँव में, और
शहर की धूल-गर्दों के बीच
मेरे बदन से पसीने का टपटपाना
तुम्हे ले जाता है
महुए के छाँव में
ओ मेरी सुरमई पत्नी !
तुम्हारी सखियाँ तुमसे झगड़ती हैं कि
महुवाई गंध महुए में है ।
मुझे तुम्हारे बालों में
आती है महुवाई गंध
और तुम्हें
मेरे पसीनों में
ओ मेरी महुवाई पत्नी !
सखियों का बुरा न मानना
वे सब जानती हैं कि
महुवाई गंध हमारे प्रेम में है ।
राँग नंबर
(लिंगाराम के लिए)
उस दिन
जब तुम्हें फोन आया था
दरअस्ल वह जंगलों का एक प्रस्ताव था कि
तुम उन्हें अपने स्पर्श से भर दो
उनकी सूनी आँखों को रोशनी दो
तुम्हें एक महान कदम उठाना था
प्रेम की ओर,
तुम यह कर सकते थे
उससे प्रेम करके
जो अपनी जंगली पगडंडियों से होकर
आ पहुँचा था तुम्हारी सड़कों तक
यह कदम था उसका तुम्हारी ओर
लेकिन शायद
वह राँग नंबर था तुम्हारे लिए
तुम्हारी बेरुखी ने उसे याद दिलाया होगा कि
अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी
तुमने उसके पैरों में बेड़ियाँ डाल दी होंगी
लेकिन जेल की सलाखों के पीछे
वह अपनी मुट्ठियाँ भींच रहा होगा।
मैं घायल शिकारी हूँ
मैं घायल शिकारी हूँ
मेरे साथी मारे जा चुके हैं
हमने छापामारी की थी
जब हमारी फ़सलों पर जानवरों ने धावा बोला था
…हमने कार्रवाई की उनके ख़िलाफ़
जब उन्होंने मानने से इनकार कर दिया कि
फ़सल हमारी है और हमने ही उसे जोत–कोड कर उपजाया है
हमने उन्हें बताया कि
कैसे मुश्किल होता है बंजर ज़मीन को उपजाऊ बनाना
किसी बीज को अंकुरित करने मे कितना ख़ून जलता है
हमने हाथ जोड़े, गुहार की
लेकिन वे अपनी ज़िद पर अड़े रहे कि
फ़सल उनकी है,
फ़सल जिस ज़मीन पर खड़ी है वह उनकी है
और हमें उनकी दया पर रहना चाहिए
हमें गुरिल्ले और छापामार तरीके ख़ूब आते हैं
लेकिन हमने पहले गीत गाए
माँदर और नगाड़े बजाते हुए उन्हें बताया कि देखो
फ़सल की जड़ें हमारी रगों को पहचानती हैं ,
फिर हमने सिंगबोंगा से कहा कि
वह उनकी मति शुद्ध कर दे
उन्हें बताए कि फ़सलें ख़ून से सिंचित हैं ,
और जब हम उनकी सबसे बडी अदालत में पहुँचे
तब तक हमारी फ़सलें रौंदी जा चुकी थीं
मेरा बेटा जिसका ब्याह पिछली ही पूरणिमा को हुआ था
वह अपने साथियों के साथ सेंदेरा के लिए निकल पडा
यह टूट्ता हुआ समय है
पुरखों की आत्माएँ ,देवताओं की शक्ति छीन होती जा रही हैं
हमारी सिद्धियाँ समाप्त हो रही हैं
सेंदेरा से पहले हमने
शिकारी देवता का आह्वान किया था लेकिन
हम पर काली छायाएँ हावी रहीं
हमारे साथी शहीद होते गए
मैं यहाँ चट्टान के एक टीले पर बैठा
फ़सलों को देख रहा हूँ
फ़सलें रौन्दी जा चुकी हैं
मेरे बदन से लहू रिस रहा है
रात होने को है और
मेरे बच्चे, मेरी औरत
घर पर मेरा इंतज़ार कर रही है
मैं अपने शहीद साथियों को देखता हूँ
अपने भूखे बच्चे और औरतों को देखता हूँ
पर मुझे अफ़सोस नहीं होता
मुझे विश्वास है कि
वे भी मेरी खोज में इस टीले तक एक दिन ज़रूर पहुँचेंगे
मैं उस फ़सल का सम्मान लौटाना चाहता हूँ
जिसकी जड़ों में हमारी जड़ें हैं
उसकी टहनियों में लोटते पंछियों को घोंसला लौटाना चाहता हूँ
जिनके तिंनकों में हमारा घर है
उस धरती के लिये बलिदान चाहता हूँ
जिसने अपनी देह पर पेड़ों के उगने पर कभी आपत्ति नहीं की
नदियों को कभी दुखी नहीं किया
और जिसने हमें सिखाया कि
गीत चाहे पंछियों के हों या जंगल के
किसी के दुश्मन नहीं होते
मैं एक बूढ़ा शिकारी
घायल और आहत
लेकिन हौसला मेरी मुट्ठियों में है और
उम्मीद हर हमले में
मैं एक आख़िरी गीत अपनी धरती के लिए गाना चाहता हूँ ..
18/11/12