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कुछ शब्दों की लौ सी

सृष्टि का एक भाग
अंधकारमय करता हुआ,
विधि के प्रवर्तन से बंधा
जब डूबता है सूरज
सागर की अतल गहराइयों में
सत्य का अस्तित्व बोध लिए,
कुछ शब्दों की लौ सी,
वह अटल आशा संचारित रही
मोह-पटल की मौन तन्हाइयों में…!!

तब… कुछ शब्द रचना
और रचते ही जाना
जिससे पहुँच सके तुम तक
अंतस की वो पीड़ा मेरी
क्यूंकि शब्द शब्द व्यथा गहराती है
टेर हृदय की क्षीण सी पड़ती
पल पल बीतती ज़िंदगी
मुट्ठी भर रेत सी फिसलती जाती है…!

भेद अभेद ही रह जाये 

विस्मृत नहीं होती छवि
पुनः प्रकाशवान रवि
एक स्मृति है
सुख की अनुभूति है ….!!
स्वप्न की पृष्ठभूमि में
प्रखर हुआ जीवन …!!
कनक प्रभात उदय हुई
कंचन मन आरोचन ………!!

अतीत एक आशातीत स्वप्न सा प्रतीत होता है

पीत कमल सा खिलता
निसर्ग की रग-रग में रचा बसा
वो शाश्वत प्रेम का सत्य
उत्स संजात(उत्पन्न) करता
अंतस भाव सृजित करता
प्रभाव तरंगित करता है…!!

तब शब्दों में
प्रकृति की प्रेम पातियाँ झर झर झरें
मन ले उड़ान उड़े
जब स्वप्न कमल
प्रभास से पंखुड़ी-पंखुड़ी खिलें…!!

स्वप्न में खोयी सी
किस विध समझूँ
कौन समझाये
एक हिस्सा जीवन का
एक किस्सा मेरे मन का
स्वप्न जीवन है या
जीवन ही स्वप्न है
कौन बतलाए…?
भेद अभेद ही रह जाये …!!

हाँ… कई बार

सूर्य से विमुख हो
ठहरे हुए पानी मे
स्वयं से करती हूँ साक्षात्कार
और यूं देखती हूँ अपनी ही परछायीं
तब, घिर जाती हूँ नैराश्य से
और… घिरता है मन
एक घुप्प अंधकार से
कई बार डरता है मन
उस मौन सत्यकार से…!!

सच और झूठ का परिपेक्ष
अच्छे और बुरे का उद्देश्य
गरल और अमिय का सापेक्ष
या तम से ज्योति का अपेक्ष
ठहरे हुए पानी मे
खोजता ही रह जाता
जान नहीं पाता
कभी जान कर भी
गतिहीन…रुका सा
हठी सा…ज़िद छोड़ ही नहीं पाता

बीत जाते हैं
बीतते ही जाते हैं क्षण…इस तरह
स्थिर…अकर्मठ…!!
पर…रहो अगर सूर्य से विमुख
और ठहरे हुए पानी मे
यूँ… देखो अपनी परछायीं
घिरता है… एक घुप्प अंधकार से मन…!!
छिपता है अपनी ही परछाईं में…जब मन
कई बार

हाँ…कई बार…!!

स्वप्न न बुनूँ… तो क्या करूँ 

ताना बाना है जीवन का
भुवन की कलाकृति
आँखें टकटकी लगाए ताक रही हैं
अनंत स्मिति
घड़ी की टिक टिक चलती

समय जैसे चलता चलता भी …रुका हुआ

शिशिर की अलसाई हुई सी प्रात
झीनी झीनी सी धूप खिलती शनैः शनैः
शीतल अनिल संग संदेसवाहक आए हैं
सँदेसा लाये हैं
उदीप्त हुई आकांक्षाएँ हैं
…ले आए हैं मधुमालती की सुरभि से भरे
कुछ कोमल शब्द मुझ तक
…अनिंद्य आनंद दिगंतर
तरंगित भाव शिराएँ हैं…!!

गुनगुनी सी धूप और ये कोमल शब्द-
सुरभित अंतर
कल्पना दिगंतर
भाव झरते निरंतर
स्वप्न न बुनूँ… तो क्या करूँ…??

चलते ही रहना होगा

जो तेरा है वो तुझ तक
इक दिन आएगा ही आएगा

जीवन की विपदाएँ कभी ,
घेरे रहतीं जब निज मन को ,
तब चीर हृदय के सघन तम,
विस्तार लिए अरुणिमा सम ,

अनुप्राण जगा,अनुरीति सजा ,
उत्थान को ही अनुष्ठान बना ,
ज्योति पुंज ,अनुमिति लिए
उठाना होगा ,बढ़ना होगा ……. !!

रे मन तुझको काँटों पर भी ,
जीवन रहते चलना होगा ,
खिलना होगा ,मुस्कान लिए,
चलते ही रहना होगा…….!!

कंटीली सी हो पगडण्डी अगर ,
बना तब अपनी स्वयं डगर,
बढ़ता ही जा न थम मगर ,
अपने क़दमों का दिशा बोध
चुनना होगा चलना होगा

रे मन तुझको काँटों पर भी
जीवन रहते चलना होगा !!

अब नींद कहाँ अब चैन कहाँ
क्यों सपनो में खोया है तू ,
जब मुश्किल घड़ियाँ बीत गयीं,
किस उलझन में रोया है तू ,

उठ जाग के मौन भी व्याकुल है ,
गाती है भोर भी रागिनी ,
चहके पंछी फिर बन बन में,
अमुवा कोयलिया कूक रही ,

रजनीगंधा फिर सुरभिमय ,
फिर से ही आस घिरी मन में,
फिर गुड़हल की रक्तिम आभा ,
व्याप्त हुई है प्रांगण में

उठ जाग के वंदन की बेला
झर झर अमृत बरसाय रही ,
उजले शब्दों में यूँ खिलकर
भावों का घूंघट खोल रही

अब समय है परचम तू लहरा ,
गुण देश के गा ले गीतों में ,
सत्कर्मो का साक्षी तू बन जा ,
तब गर्व बसे यूँ सीने में !!

जग में तेरे ही गुंजन से
नाद खिलेगी वन उपवन
भवरों की साँसों में फिर से
पहुंचेगी सुरभि बन सुमन

फिर तेरे ही अभिक्रम से ,
अभंजित रहेगा मन का कोना
अभिकांक्षित शोभा पायेगी
रत्नजटित स्वर्णिम अब्जा !!

जो तेरा है वो तुझ तक
इक दिन आएगा ही आएगा

अपने क़दमों का दिशा बोध
चुनना होगा चलना होगा

रे मन तुझको संघर्षों के पार
पुनः खिलाना होगा !!

रे मन तुझको संघर्षों के पार
पुनः खिलाना होगा !!

इसी विप्लव में

इसी
विप्लव में
कुछ पल को
मौन का स्पर्श
अनहद
साकार
जब होता है

पत्तों सी
सिहरन लिए
छाया बन
आकृति तुम्हारी
अनुभूति मेरी
सगन बन
अलंकृत मन
आलाप बन ,
मेरे साथ साथ रहती है !!

4-यही यात्रा तो जीवन है …!!

अविराम श्वासों की लय,
स्पर्श …सिहरन
मौन के
नाद की अविरति ,
अनुभूति की
अभिव्यंजना

अनुक्रम तारतम्य का ,
चंचलता मन की …
आरोह ,
मुझ से तुम तक का
और अवरोह
तुम से मुझ तक का …..
सम्पूर्णता
राग के अनुराग की
यही यात्रा तो जीवन है  !!

चन्द्र तुम मौन हो 

मैं विकारी … तुम निर्विकार …!!
निराकार मुझमे लेते हो आकार ,
रजनी के ललाट पर उज्ज्वल
यूं मिटाते हो हृदय कलुष ,
मैं आधेय तुम आधार ….!!

मेरे मन के एकाकी क्षणो को
तुम ही तो भर रहे हो,

बताओ तो –
क्यूँ लगता है मुझे

मेरे हृदय के असंख्य अनुनाद,
वो अनहद नाद ,
सुन रहे हो
समझ रहे हो …!!
तभी तो ..
भीगी हुई चाँदनी सरस बरस रही है
चन्द्र तुम मौन हो,
और ….मेरे निभृत क्षणों को
झर झर भर रहा है
अविदित मधुरता सरसाता हुआ,
बरसता हुआ अविरल,
शुभ्र ज्योत्स्ना- सा
तुम्हारा हृदयामृत …..!!

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