जोगी
1.
मैंने हाथ से कहा मिला लो हाथ
आँख से कहा देख लो धरती आसमान
कान से कहा सुन लो सारे सुर-ताल
रोम-रोम से कहा छू लो कुल जहान
मैंने दिमाग से कहा जरा ध्यान से भाई
हाँ हाँ बोला दिमाग
मिला लिए हाथ धरती आसमान देख लिया
सुर-ताल सुन लिए छू लिए सारे जहान
सपना नहीं सब अपना है सच
पीपल की छाँह मे बैठा जोगी
तन-मन अँतर ब्रह्मांड विस्तार
खिला खुला अपरम्पार
पीपल के चार चफेरे जातरा का लोभी जग आया
खेल खिलँदड़ अँगड़-बँगड़
बोले खोल फेंक दे
तन-मन अँतर है भरा कबाड़
नदी थमे क्यों तेरे पास पहाड़ झुके क्यों बतलाओ
चलो-चलो जी रमते जोगी
नहीं रुकेगा कुदरत का खेल
जाहिल जग ने फसल उगाई
उसकी मनमर्ज़ी का ऐसा मँतर फला
कि फिर लाख कहा बहुतेरा सहा
सारे जहाँ में किसी का हाथ हिला नहीं
आँख टिटहरी टिकी रही
कान कुप्पा चुप्पा रोम खूब मोटे सोठे
दिमाग भक्क फट गया फक्क
चला गया जोगी
कल सूरज के बाद
2.
तना था तिरपाल बादामी दूर तलक
धूसर अँधड़ छितर चला नीचे
अलख जगाए जोगी चला जा रहा
हरकत में घुटने
बढ़े जा रहे पैरों पर पैर अपने आप
बादामी था लकदक
भूरा दिखने लगा उसका भी अब चोगा
रुकता था टुक गिनता था चँद्रकलाएँ
पदचिह्यनों पर पंख पसारे
आ सजती थीं नभ गँगाएँ
अस्ताचल से उदयाचल का जोड़नहारा
मगन गगन सा फिरता था कल तक बादामी चोगे में जोगी
सिमट सरक के दुनिया का गोला
उकड़ूँ बैठा है संग निसँग
जुड़ जाए तो कँचा चमकीला
भिड़ जाए तो मिट्टी का ढेला
धेला किस करवट बैठेगा रब जाने
बादामी चोगे में सूरज चला गया हिचकोले खाता
मटमैला दुनिया का गोला भी बिखर चला धूसर
बढ़े जा रहे पेरों पर पैर
छाया माया दूर सुदूर
भूरा चोगा ओझल होता चला गया
3.
ऊपर नीचे आगे पीछे क्या रखा है
भागों से भरी भरोसे के
काँधे पर झोली लादे
स्याह चोगे में भी जोगी ने
अँतर्मन के बाहिर्जग के नुस्खे ढूँढे नक्शे काढ़े
अँधियारे में बिखर गई जग जातरा
धेले की रेल पेल में मदमाती दुनिया का उकड़ूँ गोला
न कँचा न ढेला
अधजला काठ बुझा चुका
हाय रे ! जोगी की धूनी का ऐसा अँजाम
थम गए पैर रमते जोगी के
रिस गई रेत भरोसे की
धँसा अंधेरा दसों दिसा में
न काँधा न झोली न चोगा बाकी
एहसास बचा बौराया
पैरों पर पैरों के चक्कर मारे
दुनिया जहान में धरती असमान में
हाथ के काम में आँख के अरमान में
डूब गए फक्कड़ पैरों के चक्कर सारे
बौराए एहसास का
किसने देखा किधर रास्ता जाता है चला गया
4.
चलती है कानों से कानों में
कथा अलाव संग जलती है
आया था जोगी एक जमाना भर पहले
हिरण कस्तूरी का
मिल गया अँबर में
अपरंपार जय जोगी अँतर्यामी
मानस जून में फलो सदा
जगते हैं पीपल के पत्ते अब भी सूरज के साथ
जातरा का लोभी जग आता है
कंचों के ढेले में , धेलों के मेले में संग निसंग
किसी को क्या वास्ता
छला गया बावरा चला गया
बस कल ही की है बात
सूरज के बाद।
(1987)
पंख
एक घर था उसको लग गए पँख
गाँव में था
एक कमरा एक रसोई एक बरामदा
एक घुराल एक गोहर
कुछ बूढ़े कुछ जवान कुछ बच्चे
मर्दाना जनाना
जमीन जंगल पानी पत्थर
पसीना गोबर की महक
तंगहाली मस्ती
थोड़ा थोड़ा सब कुछ
जैसा अब भी गांवों में होता है
और गांव में घर होता है
आ गया चौरासी लाख योनियों के चक्कर में
जब लग गए पँख
जब लग गए पंख
आ पँहुचा परदेस
इकहरी ईंट की पर्दी वाले दो अढ़ाई कमरे
सीमेंट की छत वाले हवादार डिब्बे सड़क किनारे
बाजार के पड़ोस में आ बैठा
पंखों को समेट के कुछ देर
गोबर घास डंगरों के पानी सानी से दूर
कमीजों को पेंट के अंदर ठूंसकर
मेजों कुर्सियों में धड़ धंसाए
आदमी औरतें
अखबारी कागजों के लिफाफों में सब्जियां ढोते
दादियां बच्चों को संभालतीं सहतीं
दादे दवाइयों पेंशनों की पर्चियां सहेजते
पड़ोस को पीछे धकेल कर
बाज़ार घर में घुस आया
गाँव से आए अचार के चटखारे लेता
जैसे होता है कस्बों में सोफा सेटों वाला घर
फिर से जब लग गए एक बार पंख
दूर दूर बिखर गया
बहुत लंबी पटड़ियों
बहुत व्यस्त सड़कों से
बहुत व्यस्त बाजारों में
कुछ बूढ़े कुछ जवान कुछ बच्चे
जनाना मर्दाना
बाज़ारों से सपने उठाते
मकड़जाल नौकरियों दसफुट्टा कोठड़ियों
और कंपनियों के लार टपकाते शेयरों के साथ
उनींदे
अपने पँखों में खोंसते
उड़ने लगते
इकसार नहीं है सूरज
सूखे पत्तों की तरह झरते
थोड़े से माई के लाल
ऊँची इमारतों की लिफ्टों में चढ़ने उतरने में माहिर
बहुत सारे माता का माल
घर के पँखों पर सवार होकर निकले थे
घर को कैसे-कैसे उग आए पँख
चौरासी लाख योनियों के चक्कर में।
(1987)
जूते
कई हज़ार साल पहले जब एक दिन
किसी ने खाल खींची होगी इंसान की
उसके कुछ ही दिन बाद जूता पहना होगा
धरती की नंगी पीठ पर जूतों के निशान मिलते हैं
नुची हुई देह नीचे दबी होगी
धरती हरियाली का लेप लगाती है
जूते आसमान पाताल खोज आए
जूते की गंध दिमाग तक चढ़ आई है
कई हज़ार साल हो गए
नंगे पैर से टोह नहीं ली किसी ने धरती की
कुनबा
बाल कटाकर शीशा देखूं
आंखों में आ पिता झांकते
बाल बढ़ा लेता हूं जब
दाढ़ी में नाना मुस्काते हैं
कमीज हो या कुर्ता पहना
पीठ से भैया जाते लगते हैं
नाक पर गुस्सा आवे
लौंग का चटख लश्कारा अम्मा का
चटनी का चटखारा दादी का
पोपले मुंह का हासा नानी का
घिस घिस कर पति पत्नी भी सिलबट्टा हो जाते हैं
वह रोती मैं हंसता हूं
मैं उसके हिस्से में सोता
वह मेरे हिस्से में जगती है
बेटी तो बरसों से तेरी चप्पल खोंस ले जाती है
बेटे की कमीज में देख मुझे
ऐ जी क्यों आज नैन मटकाती है.
ये लोग मिलें तो बतलाना
जैसे घरों को बच्चे आबाद करते हैं
औरतें जीवनदान देती हैं
उसी तरह घर में संजीदगी लाते है बूढ़े
मर्द मैनेजर की तरह अकड़ा हुआ
घूमता और हुकुम चलाता है
घर में कभी करुणा का कोई अंखुआ फूटा होगा
उसे धारा होगा बुजुर्ग ने अपनी कांपती हथेली पर
औरत ने ओट कर रखी होगी अपने आंचल की आंधी तूफान से
बच्चा अगर है तार सप्तक तो बूढ़ा मंद्र
औरत और मर्द इन्हीं की पेंग पर राग छेड़ते हैं
बंदिश मध्यम की
कभी कभी खटराग पर
अहर्निश बजता रहने वाला पक्का राग
बच्चों में भी अगर घर में हो बेटी तो
समझिए घर अमराइयों से घिरा है
गहरा हरा छतनार
झुरमुट
गर्मियों में भी भीतर बसी रहती है
गहरी हरियाली, नमी और ठंडक
बेटी पतझड़ के पत्तों को भी दुलरा के
हवा में छोड़ती है एक एक
जैसे दीप नदी जल में बहाती है
जैसे सूर्य को भिनसारे अर्घ्य देती है
बेटियां बड़ी मोहिली होती हैं
बरसात का मौसम उनका अपना मौसम होता है
एकदम निजी
कहां कहां से सोते फूटते रहते हैं
उमगता है, अगम जल बरसता है धारासार
प्रकृति रूप-सरूपा बेटी में अठखेलियां करती है
बेटियों के लिए घटित अघटित सब कुछ अपना
इतना निजी कि अविभाजित
इतना अविभाजित कि नि:संग
अखिल भुवन इतना अपना कि कुछ भी अपना नहीं
होकर भी न होना बेटी होना है.
बेटे का होना भी कम चमत्कारी नहीं है
फ वैसा ही है जैसे मुरली और तबला
मुरली तन्मय करती है, तबला नाच नचाता
मुरली गहराती भीतर, तबला मुखर मतवाला
बेटा होने का मतलब ही है धमाचौकड़ी
घर को सिर पे उठा रखने वाले शरारती देवदूत
घुटरुन चलत राम रघुराई
मां बाप के घुटने टिकवा दें
बेटे निकल जाते हैं लंबी खोजी यात्राओं पर
माताएं बिसूरती रहतीं जीवन भर
वैसे नहीं कुछ और ही हो के लौटते हैं लला
कृष्ण भी कहां लौटे
प्रत्यंचा की टंकार होते हैं बेटे.
उनकी बहनें न होतीं तो अंतरिक्ष को थरथरा देते
बहन मानो थोड़ी ठंडक थोड़ा छिड़काव
फुहार पड़ते ही ओठों में मुस्काने लग जाते है
यही मुस्कान अंतरिक्ष को बचा लेती है बार बार
देश देशांतर को, राज्य प्रांतर को, घर द्वार को
बेटा तोड़ के सीखना चाहता है
खिलौना हो, वस्तु हो या हो संबंध
बेटी सहेज के जोड़ना जानती है
गुड़िया हो, गृहस्थी हो या हो धरती माता
ये दोनों मुक्त मगन पाखी
आकाश की गहराइयों में खो जाते
अगर घर में बुजुर्ग न होते
ढली उम्र का पका सधा बुजुर्ग जैसे घर का शिवाला
तुलसी का पौधा, नीम का पेड़
जिसके पास है दुनिया जहान का ज्ञान
हर सवाल का जवाब, समस्या का समाधान
आपने पूछ लिया तो गुण गाए
कुछ बताना जरूरी न समझा तो राम राम
जब तक बच्चे उनकी गोद में खेलते हैं
किस्से कहानियां लहलहाती हैं
बेटों की बहादुरी की, बेटियों की मेहनत की
कथा बांच के ताकत पाते हैं बूढ़े
खाते कम गाते ज्यादा हैं
धीरे धीरे सत्ता त्याग करते जाते हैं
तर्पण
यह जेठे बेटे तेरे नाम
यह धीए तू ले जाना
आंख की जोत मंद होती, देह सिकुड़ती जाती
आत्मा का ताना बाना नाती पोतों के हाथ सौंपते जाते
एक चादर बुनना मेरे बच्चो
उस चादर में महकेगा फूल
खंसोटोगे तो झरेगा
सहेजोगे तो फलेगा
माई होगी जिस घर में
गमकता चलेगा चार पीढ़ी
बाबा के बाद अगर
अकेली रही आई होगी बरसों बरस तो
उसका होना गूंजेगा आठ पीढ़ी
तुलसी के चौरे पर दीवे की लौ सी बलती है माई
धन हो कि न धान हो
माई जैसे पीर की मजार है
सब सुख साधन अंतस में गुंजन करने लगता है.
फकत एक मीसल पाव का सवाल है
गुर्राते हुए निकला घर से
गुस्से से तमतमाता
रुका रहता ज्यादा देर तो
सर फटता दर्दे सर से
बर्तन होते दो चार शहीद, सो अलग
लाम को जाते सिपाही की मानिंद चलता चला गया
शब्द भेधी बाण की तरह शब्द सुने बिना
दौड़ना पड़ा बस पकड़ने वालों की भीड़ में
किसी तरह डंडा आया हाथ में
फिसलते फिसलते पैर फंसा पायदान में
लहरा के सारी देह झूल गई
पल भर की उड़ान लेकर मुर्गी की तरह फड़फड़ाती
झनझना गई काया अंतर बाहर से
हरेक अंग के स्प्रिंग मानो फटाक से खुल गए
जबड़ा ढीला पड़ चुका था
सर अभी भारी था
इस लपलपाते झटके के बावजूद
जा के सीधे कैंटीन में बैठा धड़ाम से
ले आया तंबी मीसल पाव बिन बोले
नसें ढीली पड़ने लगीं
अंगुलियां खुद-ब-खुद आगे बढ़ने लगीं
एक चम्मच गया फरसाण का रस भीगा हलक के अंदर
नमकीन चटकीला
दमादम मस्त कलंदर
बोझा जैसे उतर गया हो सर पर से
जाला जेसे हट गया आंख पर से
दृष्टि बड़ी हल्की हो के तैर रही है
बारिश के बाद के मनोहारी ठंडे आकाश में
नमक है या लावण्य
दुनिया अचानक भली सी दिखने लगी है भोली भाली
ख्याल तुम्हारा सताने लगा है
चलो एक मीसल पाव हो जाए साथ साथ.
माई
क्या होता है जहां
बाहुबल सिरा जाता है
बुद्धिबल छीज जाता है
कोई ताकत अनबूझी घर को भर देती है
बेटी सिर पर धारे घर की लाज चलती है
निर्भय
बाबा न बोलेंगे
गहन ध्यान में मुनिवर ज्ञानी
निर्गुण
आसीस ले आगे बढ़ेंगे राजकुंवर
माई की मुस्कान कमजोर की ताकत
निर्लिप्त
ऐसी सूरज किरण खिलेगी सलोनी
दुख ताप बिंध के चरणों में लोटेगा
निर्मल
कब आंसू का अंजन आंज के
माई की आंख में हंसी तिर जाएगी
कौन जाने
घर भर के राग द्वेष को मांज के सजा देती है माई
दिवाले में जैसे तांबे की अरघी चमकीली.
प्रेतबाधा
बड़ी तकलीफ में हूं
आंत मुंह को आती है जी
रह-रह कर ठाकुर पतियाता हूं
समझ कुछ नहीं पाता हूं
किस राह आता किस राह जाता हूं
गली में निकलता हूं
होठों में मनमोहन मिमियाता है
नुक्क्ड़ पर पहुंच पान मुंह में डाला नहीं
येचुरी करात भट्टाचार्य एक साथ भाषण दे जाता है
उठापटक करवाता मेरे भीतर नंबूदरीपाद डांगे पर
यहां तो पिछला सब धुल-पुंछ जाता है
बाजार की तरफ बढ़ता हूं
ईराक अफगानिस्तान पाकिस्तान हो के
कश्मीर पहुंचा देता है बुश का बाप और बच्चा
बराक ओबामा गांधी की अंगुली थामे
नोबल के ठीहे से
माथे पर कबूतर का ठप्पा लगवा लाता है
नदी पोखर की ओर निकलना चाहता हूं
कोपनहेगेन-क्योटो बंजर-बीहड़ गंद-फंद कचरा-पचरा
पैरों से लिथड़ा जाता
मुझमें ओसामा गुर्राता है
बिल गेट्स मुस्काता मर्डक कथा सुनाता
अंबानी नोट दिखाता है
अमर सिंह खींस निपोरे नेहरूजी बेहोशी में
मुक्तिबोध हड्डी से गड़ते
मार्क्स दाढ़ी खुजलाते टालस्टाय की भवों के बीच
अरे! अरे!! ये बापू आसाराम कहां घुसे आते
छिन्न-भिन्न उद्विग्न-खिन्न
तुड़ाकर पगहा पदयात्रा जगयात्रा पर जाना चाहूं
रथ लेकर अडवाणी आ डटते
रामलला को गांधी की धोती देनी थी
उमा भारती सोठी (छड़ी) ले भागी
जागूं भागूं जितना चाहे
वक्त के भंजित चेहरे
चिपके-दुबके लपके-लटके अंदर-बाहर
बौड़म मुहरे जैसा कभी इस खाने कभी उस खाने में
भौंचक-औचक घिरा हुआ पाता हूं
अपनी ही जमीन से खुद को हजार बार गिरा हुआ पाता हूं
जेब में तस्वीरें थीं नरेंद्रनाथ भगत सिंह की
पता नहीं कहां से राम लखन सीता माता
हनुमान चालीसा गाने लग जाते हैं
गिरीश कर्नाड कान में फुसफुस करते
मंच पर गुंजाएमान हो उठता है
खंडित प्रतिमा भंजित प्रतिमा
प्रतिमा बेदी लेकिन किन्नर कैलास गई थी
यह ओशो का चोगा पहने
गांधी जी दोपहर में कहां को निकले हैं
झर गए सूखे पत्तों जैसे
किसने कहा मेरे पंख उगे थे
बड़ी तकलीफ में हूं साहब
आंत मुंह को आती है
कबूतर ने अंडे दे दिए हैं
बीठ के बीच बैठा हूं
करो कुछ करो
मुझ नागरिक की प्रेतबाधा हरो!!
धौलाधार
धौलाधार!
तुझे मैं छोड़ आया हूं
यह सोच नहीं पाता
संस्कारी मन सी धवलधार
तुझे लिए हुए सरकता हूं
मैं धुंआखोर सड़कें
काली कलूटी
तू विचारना मत ज्यादा
मेरे तेरे बीच कुछ सैंकड़ा मील पटड़ियां उग आई हैं
फिर भी हम घूमेंगे सागर तट साथ साथ
कल समुद्र सलेटी रंग का
मुझे सलवट पड़ी चादर सा लगा
आसमान ने उसे काट रखा था पाताल व्यापी
यहां कोई नहीं जानता
समुद्र का ठिकाना
आकाश का पता
देखो न मैं भी कल
बिस्तर की चादर समझ के लौट आया
पर उस तट से लगाव है मुझे
तेरी घाटियों सा
तू सोच मत
जहां तक वह चादर दिखती है
वहां तुझे रख दूंगा अभ्रभेदी
तब यह जो जंगल बिछा है अंधा
धुंएबाज आदमखोर
कुछ तो फाटक पिघलाएगा अपने
फिर भी इस आदमखोर जंगल से मैत्री कर पाऊंगा
यह सोच नहीं पाता
वैसे ही जैसे
धौलाधार!
तुझे मैं छोड़ आया हूं
यह सोच नहीं पाता
(1983)
मौसम
1.
हवा के रास्ते
सूरज वस्त्र वस्त्र जल सोख लेने पर उतारू है
नदी के वास्ते
यह भी एक ऋतु आई है.
2.
पहाड़ों ने रख दिया
कतरा कतरा समुद्र घाटियों के हाथ
नदी उठी
चली पीहर
ले उत्सवी सौगात.
3.
रात भर दहकते रहे हैं बादल
चार पग उतर क्यों नहीं आए तुम
हवा के आंचल ही बांध भेज देते
तनिक सी एक फुहार.
4.
हवा उड़ी ले
विश्वासों के कुछ भीगे हिन्से
युकिलिप्टस झर चला
बस ताकता आकाश.
(1978)
भूमंडलीकरण
अंतरिक्ष से घूर रहे हैं उपग्रह
अदृश्य किरणें गोद रही हैं धरती का माथा
झुरझुरी से अपने में सिकुड़ रही है
धरती की काया
घूम रही है गोल-गोल बहुत तेज़
कुछ लोग टहलने निकल पड़े हैं
आकाशगंगा की अबूझ रोशनी में चमकते
सिर के बालों में अंगुलियाँ फिरा रहे हैं हौले-हौले
कुछ लोग थरथराते हुए भटक रहे हैं
खेतों में कोई नहीं है
दीवारों छतों के अंदर कोई नहीं है
इंसान पशु-पक्षी
हवा-पानी हरियाली को
सूखने डाल दिया गया है
खाल खींच कर
मैदान पहाड़ गङ्ढे
तमाम चमारवाड़ा बने पड़े हैं
फिर भी सुकून से चल रहा है
दुनिया का कारोबार
एक बच्चा बार-बार
धरती को भींचने की कोशिश कर रहा है
उसे पेशाब लगा है
निकल नहीं रहा
एक बूढ़े का कंठ सूख रहा है
कांटे चुभ रहे हैं
पृथ्वी की फिरकी बार-बार फेंकती है उसे
खारे सागर के किनारे
अंतरिक्ष के टहलुए
अंगुलियां चटकाते हैं
अच्छी है दृश्य की शुरुआत
(रचनाकाल : 1993)
हजामत
सैलून की कुर्सी पर बैठे हुए
कान के पीछे उस्तरा चला तो सिहरन हुई
आइने में देखा बाबा ने
साठ-पैंसठ साल पहले भी
कान के पीछे गुदगुदी हुई थी
पिता ने कंधे से थाम लिया था
आइने में देखा बाबा ने
पीछे बैंच पर अधेड़ बेटा पत्रिकाएँ पलटता हुआ बैठा है
चालीस साल पहले यह भी उस्तरे की सरसराहट से बिदका था
बाबा ने देखा आइने में
इकतालीस साल पहले जब पत्नी को पहली बार
ब्याह के बाद गाँव में घास की गड्डी उठाकर लाते देखा था
हरी कोमल झालर मुँह को छूकर गुज़री थी
जैसे नाई ने पानी का फुहारा छोड़ा हो अचानक
तीस साल पहले जब बेटी विदा हुई थी
उसने कूक मारी थी जोर से आँखें भर आईं थीं
और नाई ने पौंछ दीं रौंएदार तौलिए से
पाँच साल पहले पत्नी की देह को आग दी
आँखें सूखी रहीं, गर्दन भीग गई थी
जैसे बालों के टुकड़े चिपके हुए चुभने लगे हैं
बाबा के हाथ नहीं पँहुचे गर्दन तक आँखों पर या कान के पीछे
बेटा पत्रिका में खोया हुआ है
आइने में दुगनी दूर दिखता है
नाई कम्बख़्त देर बहुत लगाता है
हड़बड़ा कर आख़री बार आइने को देखा बाबा ने
उठते हुए सीढ़ी से उतरते वक़्त बेटे ने कंधे को हौले से थामा
बाबा ने खुली हवा में साँस ली
आसमान जरा धुंधला था
आइने बड़ा भरमाते हैं
उस्तरा भी कहाँ से कहाँ चला जाता है
साठ पैंसठ साल से हर बार बाबा सोचते हैं
इस बार दिल जकड़ के जाऊंगा नाई के पास
पाँच के हों या पिचहत्तर बरस के बाबा
बड़ा दुष्कर है हजामत बनवाना
कबाड़
उन्होंने बहुत सी चीज़ें बनाईं
और उनका उपयोग सिखाया
उन्होंने बहुत सी और चीज़ें बनाईं दिलफरेब
और उनका उपभोग सिखाया
उन्होंने हमारा तन मन धन ढाला अपने सांचों में
और हमने लुटाया सर्वस्व
जो हमारे घरों में और समाया हमारे भीतर
जाने किस कूबत से हमने
उसे कबाड़ की तरह फेंकना सीखा
कबाड़ी उसे बेच आए मेहनताना लेकर
उन्होंने उसे फिर फिर दिया नया रूप रंग गंध और स्वाद
हमने फिर फिर लुटाया सर्वस्व
और फिर फिर फेंका कबाड़
इस कारोबार ने दुनिया को फाड़ा भीतर से फांक फांक
बाहर से सिल दिया गेंद की तरह
ठसाठस कबाड़ भरा विस्फोटक है
अंतरिक्ष में लटका हुआ पृथ्वी का नीला संतरा •
(1997)
रुदन का राग
तू मेरे सम्मुख है मौन
शताब्दियां हो गईं
संवाद साधने की तमाम कोशिशें नाकाम हैं
शताब्दियाँ तेरे भीतर समायी हैं
शताब्दियों से सँवाद कायम करने का दँभ मेरे भीतर पसरा है
अजब है रिश्ता
गजब है तू
आँखें झुलसे हुए खाबों की कब्रगाह हैं
देह में हज़ारों सालों के खून पसीने का दाह है
कशीदे काढ़ती आई हैं मेरी पुश्तें
नैनों के बनाके नामालूम कितने नक्शे
देह की दसियों हज़ार दास्तानों के दस्तकार
खाए पीए पगुराए मेरे पुरखे
अधूरी रही आईं अंबर को धरती पर
उतारने की आशाएं सारी
क्या सोच के लादे हुए हो सारी कायनात
झुके कँधों पर मेरे भाई
क्या करूँ क्या कहूँ
महज़ बुत न बने तेरा
घोष हो घनघोर तेरे गले से
शताब्दियाँ पिघला हुआ लावा हो जाएं
अंगुलियां मेरी गल जाएँ कँठ रुँध जाए
तू ओंठ फड़फड़ा भर दे
मैं रुदन का राग गाऊँ
तेरे आख्यान से गुँजाएमान हो उट्ठे अँतरिक्ष।
(1997)
चींटी और दाने का कण
चींटी चली ले अनाज का दाना
दाना तो क्या दाना तो चिड़िया ले उड़ती है
यह था दाने का कण दाने का कोई सौंवा हिस्सा
पक्की टाइलों के चमकीले फर्श में
सुरक्षा और सफाई के कड़े और मुस्तैद इँतजाम में
चली ले चींटी अनाज का कण
किस कोने से निकली कमरे के किस कोने में जाती है
कहाँ से मिला होगा दाने का कण
बच्चे की जूठन या मेहमान की लापरवाही
दाने का कण रोटी का होगा डबलरोटी का
पीजा का या केक का
ताजा होगा या बासा कल या परसों का
या होगा बाजार से आई बनी बनाई किसी और चीज का
होगा अगर गेंहूँ का तो किस दुकान से आया होगा
सुपर बाजार या छोटे बणिए का
राशन का होगा या खुले बाजार का
हरियाणा का या खण्डवा का
बीज किस सँस्थान में पनपा होगा
पुश्तैनी बीज महानगर तो क्या पंहुचेगा
वैज्ञानिक मगर विदेश जा पँहुचा होगा
क्या पता गेंहूँ आयात वाला हो
संसद गूँजी होगी पहले भी बाद में भी
अगर सिर्फ बीज होगा आयातित
तो भी लँबा सफर तय किया होगा गेंहूं ने
न भी तो भी क्या खबर किन किन जहाजों ट्रकों ट्रेक्टरों बोरों में लदा होगा
गोदामों में ठुँसा होगा
हम्मालों मजदूरों के पसीने को
बाबुओं अफसरों नेताओं को नजदीक से निरखा होगा गेंहूं ने
चींटी को नहीं पता दाने का इतिहास
वह तो जिसने खाया उसने भी क्या जाना
हांलांकि अखबार सभी ने पढ़ना सीखा है
यह भी हो सकता है दाने का कण
उनका न हो जो अब इस मकान में रहते हैं
वो हो उनका जो रहते थे साल भर पहले या उससे भी पहले
अखबारें तो वे भी पढ़ते थे
उनका भी न हो उन मजदूरों का हो
जो टाट की टट्टियों में रहते थे
इस आलीशान इमारत को बनाने के वास्ते इसी जगह
सिर्फ कँक्रीट थे रेत बजरी और पत्थर थे और चूल्हा जलता था
विकास की दावानल भड़की है
महानगरों नगरों कस्बों गांवों तक में
चींटी का क्या भरोसा
निकाल लाई हो नींव की गहराइयों से
जितनी छोटी उतनी खोटी
वे अखबार नहीं पढ़ते थे
क्या पता दाने का यह कण गेंहूं के उस
ढेर का हिस्सा हो जो मोहनजोदाड़ो की खुदाई में मिला
और संग्रहालय में रखा है सजाकर काला काला
सभ्यता की निशानी अमर
अगर यह कण गेंहूं का न गुड़ का हो
तो कहां उलझन घट जाएगी
पर यह चींटी जाती है किस कोने में
सोच सोच उलझन और बल खाती है।
(1997)
पानी
कुछ पुरानी सी इमारतों के पिछवाड़े
टूटी पाइपों से
बाथरूमों का पानी रिसता रहता है
नीचे कुछ लोग बाल्टियां अटाकर नहाते हैं
बगल में पटड़ियों पर
धड़धड़ाती रेलगाड़ियाँ गुज़रती रहती हैं
रेलगाड़ियों से हज़ार हज़ार आँखें
नहाते हुए लोगों को
पीछे छूटते दृश्यों की तरह देखती हैं
बँद बाथरूमों की बँद मोरियों से
मैल लेकर
पानी निकलता है
लिसलिस थका हुआ
नीचे खड़े लोग उसे थाम लेते हैं
शर्माते हुए पानी
फिर भी उनको नहलाता है
फिर मैल समेत पानी
इमारतों की नींवों में उतरता है
और पटड़ियों की जड़ों में जा बैठता है।
(1989)
मुम्बाई दर्शन
अचानक कुछ हुआ और बस छोड़ दी
ठोकर मारी फ्रूटी की हरी डिबिया उछली
जहाँ गिरी कबूतर उड़ा वहां से
वहाँ बहुत सारे कबूतर उठते थे बैठते थे
लोग दाना डालते थे
चुँधियाती ग्राहकों को उकसाती
दुकानों में से पैदल चल निकला
बदहवास फलांगा बाजार
रिहायशी शांत सी आबादी आई
शहर में जैसे पहली बार शाम हो रही थी
मकानों के ऊपर निर्लिप्त धूसर चांद था
लोग चले जा रहे थे
किशोर किशोरियां साइकिलें टनटनाते गुजर रहे थे
संकरे से मैदान में छोकरे क्रिकेट खेल रहे थे
फुटपाथ पर गृहस्थियों के चूल्हे जलने लगे थे
ऐसी ही थी पर यह मेरी कालोनी नहीं थी
पसीना आया पैरों में पानी पड़ गया
जैसे ही अपनी बस दिखी
आक्रामक तन गए हाथ पांव
संकरे दरवाजे में
लोगों के सिरों बाहों थैलों के बीच
घुसेड़ दिया सिर नेवले की तरह
कई लोग पीछे थे गिरने से बचाने को
यूँ बीच रास्ते में जोखिम उठाना
बस छोड़ने का दुनिया देखने का
आसान है भला!
(1990)
बड़े भाई के नाम ख़त
मेरा भी स्कूटर डोलने लगा है दाएँ-बाएँ
क्या एक उम्र के बाद ऐसा होता है?
जैसे जरा सा ज्यादा मुड़ गया हैंडल तो लगता है
सारा तूम तमाड़ सड़क पे बिछ जाएगा पलक झपकते
बैठा करते थे बच्चे पहले आगे फिर पीछे
क्या एक उम्र के बाद ऐसा भी होता है?
हम रह गए खड़े के खड़े वहीं
वे यह ले वह ले उड़ गए हवा से बातें करते
मिलेंगे अजनबियों जैसे अपनी ही दुनिया में रमे हुए
पीने लगा है तेल बहुत और ठल ठल करता रहता है
क्या एक उम्र के बाद ऐसा ही होता है?
घुटने अड़ने लगते हैं, चश्मे चढ़ने लगते हैं
बातें जो कहनी हैं, रह जाती हैं
अर्थ समझ में पहले से ज्यादा आने लगते हैं
फूल तोड़ना चाहते थे, अब डाली पर ही भाता है
समझ नहीं कुछ आता पर
जीवन का ऐसा क्या अर्थ हाथ लग जाता है !