मिनौती
हर नारी मिनौती है.. यहाँ दृश्य अरुणाचल का है, इसलिए बाँस, धान, सूरज, सीतापुष्प, पहाड़ के बिम्ब भी उसी प्रदेश के हैं। बरई, न्यिओगा वहाँ के लोक जीवन से जुड़े गीत हैं- जैसे हम बन्ना-बन्नी, आला, बिरहा से जुड़े हैं… इस संगीत को बाँसों से जोड़ा है.. जैसे बाँस के खोखल से निसृत होकर ये मिनौती की आत्मा में पैठ गए हैं… नारी के मन और आत्म को समझाते हुए पुरुष से अंतिम प्रश्न पर कविता समाप्त होती है…
मेरे बाँस
पहचानते हो मिनौती[1] को
तुम्हारी और मेरी आत्मा एक सरीखी है-
इस खोखल से
सर्र-सर्र करती हवाओं ने बजना सीखा है
छिल-छिल कर सरकंडों में गुँथी
जीवन की टोकरियाँ
जिनमें वे भर सके
आराम ..
आज भी तुम्हारी बाँसुरी से
गुज़र जाते हैं
बरई, न्यिओगा[2]
मेरी सलवटों में उलझे
कितनी तहों के भीतर
छलकते आँसुओं की तलौंछ के नीचे
दबे-दबे से स्वर
मेरे सीतापुष्प[3]
तुम्हे याद होगा मेरा स्पर्श-
अपने कौमार्य को
सुबनसिरी[4] में धोकर
मलमल किया था
और घने बालों में तुम
टँक गए थे
तब मेरी आत्मा का प्रसार उस सुरभि के साथ
बह चला था
एक वसंत जिया था दोनों ने
मिट्टी तुम क्यों घूर रही हो –
इन झुर्रियों के नीचे
अभी भी सूरज जलता है [5]
जिसके दाह से
तुम प्रसव करती रही हो
क्षिप्र सफ़ेद धान का
जैसे धूप सफ़ेद होती है
तुम्हारे बीज से
मेरी प्रसव पीड़ा से
धैर्य पाया था सृजन का
चीड़-चिनार में खोए पहाड़
तुम्हारी हरी पटरियों पर
मेरे चुप पैर आहट देते रहे हैं
ताकि तुम्हारा खोयापन
अकेला न रह जाए
इस विशाल समृद्धि में
तुम्हारा विस्तार मेरी सीमाओं में बँधता रहा है
अपने होने की मीमांसा करोगे ?
मेरा चुप रहना ही ठीक ।
- ऊपर जायें↑ एक बाला का नाम
- ऊपर जायें↑ अरुणाचल के लोकगीत
- ऊपर जायें↑ ऑर्किड
- ऊपर जायें↑ अरुणाचल की नदी
- ऊपर जायें↑ अरुणाचल में सूरज स्त्री रूप है और चाँद पुरुष
सब भर जाएगा !
रॉबिन तुम एकदम रॉबिन चिड़िया जैसे हो
छल्लेदार बाल, अकसर लाल रहने वाली दो गोल बड़ी आँखें
कभी ऊँघते नहीं देखा तुम्हे
माँ को कभी उठाना नहीं पड़ता
मुर्गे की एक सरल बांग पर उमड़ जाती है सुबह
और तुम नंगे पैर ही दौड़ जाते हो सागर के अंचल पर
अंतहीन बढ़ते क़दम
रेत पर छापती चलती हैं नन्ही इच्छाओं के पैर
तुम चलते कहाँ हो
उछलते हो
रॉबिन तुम्हे अच्छा लगता है
अकसर एक पत्थर उछालकर फेंकना
दूर जितना दूर फेंक सको
चट्टान पर गोह की तरह चिपककर देखते हो अपना खेल
तुम्हारी क्षमता का पत्थर
लहरों को तोड़ देता है
विवर बनते हैं
इस गोलाई में घूमते देखते हो पत्थर
और फिर सब भीतर समाहित होना
तुम्हे अच्छा लगता है इस विवर को भरना
छोटी सीपियाँ, घोंघे, सूखे पत्ते, सफ़ेद रेत और न जाने क्या
समुद्र भर दोगे क्या ?
रॉबिन तुम्हे जाल फेंकना कभी अच्छा नहीं लगा
खाली हो जाता है समुद्र
इस जाल में फँसकर
तुम अल्बर्ट के साथ गोल नाव पर बैठकर दूर तक जाना पसंद करते हो
तुम्हारे इस पिता ने बंजारापन दिया है
जबकि मैं टिकना मांगती रही
जैसे मेरा चरित्र टिक गया है
समुद्र के किनारे
इधर ये अबाबीलें
तुम्हारी नाव के साथ क्षितिज तक जाती हैं
तुम उनकी परछाई हाथ से पकड़ते हो
चप्पू को धप्प-धप्प मारकर
ऊँची उठती लहरों को कितना छोटा करोगे रॉबिन?
ओह! प्रहर कितना बीता ?
रॉबिन तुम्हारी गोल नाव किस किनारे लगी है?
उस बार तुम बहुत दूर गए थे न ..
समुद्र भरने ?
मैं जानती हूँ तुम लौटोगे
अल्बर्ट के साथ
मैं लाल रूमाल लिए हर तूफ़ान पर
आगाह करती हूँ
अरे ! गोल नाव वालों लौट आओ …
तब तुम्हारे हाथ
किसी विवर से पुकारते हैं
माँ …
भरने लगा है समुद्र !
देख दूर ..
कितना नीला आकाश
एकसाथ सागर टूट पड़ा है लहरों पर
मेरे पत्थर की तरह ..
इस बार उछाल में सब भर जाएगा !
जगाना मत !
काँपते हाथों से
वह साफ़ करता है
काँच का गोला
कालिख़ पोंछकर
लगाता है जतन से
लौ टिमटिमाने लगी है
इस पीली झुँसी रोशनी में
उसके माथे पर
लकीरें उभरती हैं
बाहर जोते खेत की तरह
समय ने कितने हल चलाए हैं माथे पर ?
पानी की टिपटिप सुनाई देती है
बादलों की नालियाँ
छप्पर से बह चली हैं
बारह मासा – धूप, पानी ,सर्दी को
अपनी झिर्रियों से आने देती
काला पड़ा पुआल
तिकोना मुँह बना हँसता है
और वह काँप-काँपकर
ज़िन्दगी को लालटेन में जलते देखता है
इस रोशनी में और भी कुछ शामिल है –
कुछ तुड़े-मुड़े ख़त
उसके जाने के बाद के
विस्मृति के बोझिल अक्षर
जिन्हें वह बँचवाता था डाकिये से
आजकल वह भी नहीं आता ।
इस लौ के सामने
खोल देता है अक्षरों के बिम्ब
अनपढ़ मन के रटे पाठ
और सुधियाँ बरस पड़ती हैं
ज्यों बैल की पीठ पर दागे कोड़े ।
गोले की जलन आँखों में भर गई है
एक कलौंस – अकेलेपन की
कँपकँपाती लौ ऊपर उठती है
भक होकर पछाड़ मारती है
धुएँ से भरी एक भोर –
अब उसकी आँख लग गई है
जगाना मत !
सलीब
यहाँ समानांतर दो नारियाँ हैं एक हम स्वयं और दूसरी ये सलीब
जब भी सलीब देखती हूँ
पूछती हूँ
कुछ दुखता है क्या ?
वह चुप रहती है
ओठ काटकर
बस अपनी पीठ पर देखने देती है
मसीहा …
तब जी करता है
उसे झिंझोड़कर पूछूँ
क्यों तेरी औरत
हर बार चुप रह जाती है सलीब ?
तब मूक वह
मेरी निगाहें पकड़ घुमा देती है
और कीलों का स्पर्श
दहला देता है मेरा वजूद
कुछ ठुक जाता है भीतर ।
मेरी आँखें सहसा मिल जाती हैं
मसीहा से ..
वह मेरे गर्भ में रिसता है
और पूरी सलीब जन्म लेती है
मैं उसका बदन टटोलती हूँ
हाथ पैर
मुँह-माथा..
अभी चूमना शेष है
कि ममता पर रख देता है कोई
कंटीला ताज
और मसीहा मुसकराता है..
सलीब की बाहें
मेरा स्पर्श करती हैं
मैं सिहरकर ठोस हो गयी हूँ –
एक सूली
जिस पर छह बार अभियोग चलता है
और एक शरीर सौंप दिया जाता है
जिसने थक्का जमे खून के
बैंगनी कपड़े पहने हैं
कुछ मुझमें भी जम जाता है
ठंडा , बरफ़ , निस्पंद
फिर मैं सुनती हूँ
प्रेक्षागृह में
नेपथ्य से
वह चीख़ता है – “पिता मेरी आत्मा स्वीकार कर”
आकाश तीन घंटे तक मौन है
अँधेरी गुफा में कैद
दिशाएँ निस्तब्ध
कोई मुझे कुचल रहा है..
कुचल रहा है
क्षरण… क्षरण ..
आह ! मेरे प्रेम का मसीहा
सलीब पर टंगा है ।
और मेरी कातरता चुप !
सलीब नारी है, मसीहा प्रेम – यहाँ मसीहा का trial दिखाया गया है । छह बार trial किया गया – तीन बार यहूदियों के सरदार ने और तीन बार रोमनों ने । अंत में मसीहा के चीख़ने का स्वर है और सूली के बिम्ब से कातरता को दर्शाया है । कविता कीलों पर चल रही है, सलीब पर टंगी है और सूली पर झूल रही है – आशा है मर्म समझना कठिन न होगा ।
वॉन गॉग
समय का कैमरा पता नहीं कब किसकी ओर क्या रुख ले?
उसका शटर किसे अपने लैंस में समेटे
कितनी दूरी से वह आपको झांकें?
कितने ज़ूम?
कितना बड़ा फलक?
वह आपको वॉन गॉग बना सकता है –
आप अपनी देह पर रंग मलेंगे
जोर से हसेंगे
जोर से रोयेंगे और रोते चले जायेंगे
तब तक जब तक बाहर एक सचेत स्त्री आपकी शिकायत न कर दे
तब?
समय आपको अभी इतिहास के मर्तबान में डालना चाहता है
मर्तबान में बंद कई तितलियाँ.
अपनी नश्वरता से परे अलग बुनावट लिए
कुलबुलाती हैं अमरत्व को
वॉन गॉग तुम कैनवास पर झुके हो
अपने दुःख का सबसे गहरा बैंगनी रंग उठाये
सैनीटोरियम की बीमार खिड़की से आने देते हो सितारों – भरी रात
तुम्हारे डील -डौल पर झुका है पूरा आसमान
और ज़मीन सरक रही है नीचे से
कुछ लडकियां उतरती हैं तुम्हारी आत्मा के आलोक में
और खो भी जाती हैं रंगों की प्याली में
तुम घोलते हो रंग
अपने ब्रुश को कई बार जोर-जोर से घुमाते हो
उसके लिए ख़ास तौर से
जिसे तुम करते थे प्रेम
ये सूरजमुखी –
हाँ, उसके लिए था, पर उसकी पसंद नहीं थी ये
वॉन गॉग तब?
और तुम्हारी आत्मा ओलिव की तरह हरी होकर
तलाशने लगी थी सच, सच जो सच था ही नहीं.
पर तुम बने रहे उसके साथ
जैसे ओलिव के पीछे उग जाती हैं चट्टानें
झरने की आस में
वॉन गॉग ..
वॉन गॉग ..तुम सूरज की ओर जा रहे हो
सूरज पीछे खिसक रहा है .
फिर धमाका ..
तुम्हारे होने की आवाज़!
दुनिया की देहर हिलती है
दिए की लौ ऊपर उठी
फिर भक!
अब तुम समय के बाहर हो!
वॉन गॉग ..
कब्रगाह पर फैलने लगा है रंग – लाल.
मैं उन्हें जानती हूँ
मैं उन्हें जानती हूँ
उनकी विधवा देह पर
कई रजनीगंधा सरसराते हैं
अपनी सुरभि से लिखती हैं वे
सफ़ेद फूल
और रातभर कोई धूमिल अँधेरा
ढरकता है
चौखट पर जलता रहता है
देह का स्यापा.
एक पुच्छल तारा
करीब से निकलता है सूरज के
अपशकुन से सहमता
देखती हूँ
श्वेत रंग
कुहासे के मैल में
खो बैठा है अपनी मलमल
तब वे ..
वे मुझमें टहलती हैं
और मेरे भीतर एक दूब
कुचल जाती है ..
पीली जड़ों से मैं झांकती हूँ
भीत कदमों से आहत
रजनीगन्धा की पांखें झर गयी हैं
भोर की हवाएं
अब भी हैं उन्मत्त.
आओ देखो
आओ देखो तो
आज जो तारीख काटी है
एक बहुत पुरानी होली की है
तुम्हारे हाथ भरे हैं
गुलाबी अबीर से
मुझे गुलाबी पसंद है
तुम्हें नीला
शायद ये कलेंडर मैं फाड़ना भूल गई थी
काफी कुछ बचा रहा इस तरह तुम्हारे -मेरे बीच
एक बार फिर चाहूँ
इस बचे को उलटो-पलटो तुम
जाओ देखो तो
जाओ, देखो तो
क्या रख आई हूँ तुम्हारी स्टडी -टेबल पर
हल्दी की छींटवाला, एक खत चोरी-भरा
पढ़ लेना समय से
खुली रहती है खिड़की कमरे की
धूप, हवा, चिड़िया से
कहीं उड़ न जाएँ
हल्दी की छींटताज़ी
आज तुम ही आना किचिन में
कॉफ़ी का मग लेने
हम्म
कई दिनों बाद उबाले हैं ढेर टेसू केसरिया
तुम्हें पुरानी फाग याद है न
मैं कुछ भूल -सी गई हूँ
कई दिनों से कुछ गुनगुनाया ही नहीं
साफ़ करती रही शीशे घर के
मुक्तिबोध
कल मैं पढ़ रही थी नेरुदा
और ज़ख़्मी हो गई थीं मेरी आँखें
आँसू के साथ घुल गया था लाल रंग
और रात घिर गई थी इस कदर मेरे इर्द-गिर्द
कि छलनी आकाश चमक रहा था
चमकीले घावों से ..
सिमटे -सिमटे से तारे
न जाने कितने उभर आये थे उसके माथे पर।
और एक छाला मेरी आत्मा पर जम गया था, जैसे कब्रगाह पर कोई रख आया हो स्मृति का नेह –दीप।
आज मैंने देखा सुबह के उजाले में
कब्बानी कविता के लिबास में बैठा था मेरी चौखट पर
साथ में उकडू था दमिश्क उनके बचपन का
वहीँ मैंने सुनी कातर आवाज़
पुकार रहा था वह बार-बार सुन्दरतम पत्नी का नाम अपनी ज़ुबान में
बलकिस-अल -रवि, बलकिस -अल -रवि
जिसे जाना था बादलों के देश
इन्द्रधनुष की तरह
और बुझ जाना था अपने देश पर साए की तरह मंडराती रातों में।
बारूद में सूंघी इस कवि ने अपनी भाषा और एक स्त्री
जिसे भरपूर किया उसने प्यार।
अभी मैं मायूस देख रही हूँ खिड़की के बाहर
बहुत उदास हूँ मैं, बहुत थकी।
मैंने रख दी है कविता तहा कर
बाहर निखर आई है खासी धूप कि जल जाए आँख और उतर आये मोतियाबिंध जवानी में ..
एक आकृति अधपकी तैरती है आसमान में और लपक कर गिर जाती है
जैसे दिन में टूट गया हो कोई तारा बेआवाज़ दर्द लिए।
मेरी त्वचा उतरने लगी है बीड़ी की आँच में पककर
और आत्मा जल गई है जैसे हो आखिरी कश ओंठ से लगा।
मेरे देश की खिड़की पर वह कोहनी टेके खड़ा है
उसकी भाषा बोलती नहीं ..
गुपचुप दे रही है संकेत मुक्ति के बोध का
बहुत सारे अपरिचय के बाद
मैं फुसफुसाती हूँ, “कौन है मुक्तिबोध ये?”
पतला हो गया है सूरज, फूल गया है उसका पेट,
बची रह गई हैं गिनने को पसलियाँ कविता का दर्द .
तारसप्तक की वीणा कोने में पड़ी है
और एक विदेशी धुन सुनाई देती है रात के गिटार पर।
शायद हो फिर प्लावन
सुनते हो!
सुनते हो!
हाँ, मैं सरस्वती!
एक प्लावन ही तो माँगा था!
तुमने दिया भी था ..
सहर्ष।
अपने पथरीलेपन में एक फिसलन-भर राह
कुछ फेनिल झागों के लिए नुकीली चट्टानें
छन सकूँ … छन सकूँ … छलनी -भर रेत
बंध सकूँ ..बंध सकूँ ..गठजोड़ किनारे
दूर तक दौड़ती दूब के पलक पाँवड़े
ढेर बुद्ध शांत प्रांतर में खड़े पेड़
लहरों पर तिरते चन्द्र -कलाओं के बिम्ब
सूरज की लहरों को छूता शीतल प्रवाह …
अचानक क्या हुआ?
क्या हुआ?
कहीं कोई कुररी चीखीं ..
कोई क्रोंच रोया …
न जाने क्या हुआ ..
तरलता मेरी मैदान बन गयी ..
टी ही हू.. टी ही हू …
प्लावन मेरे तू दरक गया ..
कहीं गहरे
कहीं गहरे ..
दरकी चट्टानों में ..
सुना है मेरा रिसना कुआँ हो गया …
क्रौंच तुम भी चुप हो?
कुररी तुम?
किसी वाल्मीकि की प्रतीक्षा है क्या?
मेरे मुहानों से कई वाल्मीकि गुज़र गए ..
तुमने देखा तो था ..
कोई रामायण?
राम को सागर बाँधने दो ..
कोई तीर इस रिसाव पर लगेगा
शायद हो फिर प्लावन …
मैं हूँ न तथागत
हाँ, मैं ही हूँ ..
देशाटन करता
चला आया हूँ ..
सुन रहे हो न मुझे?
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि!
यूँ ही युगांतर से
नेह-चक्र खींचता
चलता रहा हूँ-
मैं, हाँ मैं
बंजारा फकीर तथागत ..
तब भी जब तुम
हाँ, तुम ..
किसी खोह में
ढूंढ़ रहे थे
एक जंगली में सभ्य इंसान ..
यकायक तुम्हारी खोज
मकड़ी के जालों में बुन बैठी थी
अपने होने के परिधान!
और .. और ..
तुम उसी दिन सीख गए थे
गोपन रखने के कायदे.
एक होड़ ने जन्म लिया था
और खोह-
अचानक भरभरा उठी थी.
बस उस दिन मैं आया था
अपने बोधि वृक्ष को सुरक्षित करने-
हाथ में कमंडल लिए-
सभ्यता का मांगने प्रतिदान!
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि!
एक युग बीत गया-
तुम हलधर हुए…
तब मैं तुम्हारे हल की नोंक में
रोप रहा था रक्त-बीज…
वे पत्थर सूखे
अचानक टूट गए थे
और बह उठी थी सलिला…
शीतल प्रवाह
और उमग कर न जाने कितने उत्पल
शिव बन हुए समाधिस्थ…
इसी समाधि के भीतर
मैं मनु-श्रद्धा का प्रेम प्रसंग बना था
और तब कूर्मा आर्यवर्त होकर सुन उठी थी…
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि!
मैं फिर आया था
तुम इतिहास रच रहे थे…
सिन्धु, मिस्र, सुमेरिया.
और भी कई…
अक्कादियों की लड़ाई
हम सभी लुटेरे हैं.
और तब लूट-पाट में
नोंच-खसोट में
मैंने आगे किया था पात्र!
भिक्षा में मिले थे कई धर्म
बस उनके लिए
हाँ, उनके लिए सुठौर खोजता.
निकल आया था
तुम्हारे रेणु-पथ पर
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि!
तुम्हें शायद न हो सुधि…
पर मैं कैसे भूल जाऊं
तुम्हारी ममता ..!
सुजाता यहीं तो आई थी
खीर का प्याला लिए.
मेरी ठठरी काया को
लेपने ममत्त्व के क्षीर से
मैं नीर हो गया था
मेरे बिखरे तारों को चढ़ा,
वीणा थमा बोली थी-
न ढीला करो इतना
कि साज सजे न
न कसो इतना
कि टूट जाए कर्षण से..
बस उसी दिन
यहीं बोधि के नीचे
सूरज झुककर बोल उठा था –
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि!
तब से मैं पर्यटन पर हूँ ..
तुम साथ चलोगे क्या?
कितने संधान शेष हैं?
हर बार जहां से चलता हूँ
लौट वहीँ आता हूँ ..
पर लगता है सब अनदेखा!
मैं कान लगाये हूँ
अपनी ही प्रतिध्वनि पर-
किसी खाई में
बिखर रही है ..
तुम सुन पा रहे हो ..?
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि!
इस कमंडल में हर युग की
हाँ, हर युग की समायी है-
मुट्ठी-भर रेत
इसे फिसलने न दूंगा…
मैं हूँ न तथागत
हर आगत रेत का…
छुटकारा
दोस्त
छुटकारा कहीं नहीं है
हम जो कभी एक दूसरे से दूर भागते हैं
इसका अर्थ यह नहीं कि कोई ओर नहीं, छोर नहीं हमारा
और हम कहीं भी भाग छूटेंगे
पृथ्वी की परिधियों से आज तक कोई नाविक नहीं गिरा किसी शून्य में
सब चलते रहे
चलने की चाह में हम बार-बार वामन हुए
पृथ्वी भी साथ-साथ चलती रही, उठती रही, बढ़ती रही
कदमताल एक –दो, एक –दो –एक
अंतरिक्ष की गुफ़ा में
धरती एक ठिगना गोरखा.
छोटी सी गौरैया
चीं चीं चीं चीं
साज सजैया
जया की ये
नटखट गौरैया
अक्तूबर में
पाहुन बनकर
बिना सूचना
घर को आती.
कितने चक्कर
पड़तालों पर
उजियाले चौरस कोने पर
रोशनदान की उस चौखट पर
खट-खट
खट-खट
झटपट-झटपट
तिनके-तिनके
लीरी-लीरी
रेशम चीथड़े
रूई सजीली
बुनती कुनबा
मान मनैया
जया की ये चुलबुल गौरैया
शिवलिंग जैसे
छोटे-छोटे ,
हलके भूरे
धवल धौर-से
चिकने कोमल
बौर-बौर से .
रस-रस
रस-रस
बतरस-बतरस
मीठे-मीठे
कई बताशे
पगती ये
मिष्ठी हलवैया
जया की ये चुलबुल गौरैया
(जया की गौरैया के लिए)
ख़त
डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक
वे आ रहे हैं
रवांडा वे आ रहे –
बोस्निया के इतिहास, 1915 के मासूम आर्मीनिया
वे आ गए सूडान- डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक
दुनिया के कुओं-मैं अपने कबीले की सारी बाल्टियाँ और रस्सियाँ तुम्हें सौंपता हूँ
तुम्हारे मीठे जल के लिए कोई सदी फिर लौट आये मिलने तुमसे!
दुनिया के चारागाहों मैं बीजों की पोटली और मन्नत की घंटियाँ तुम्हारे हवाले करता हूँ कि एक दिन जब सुबह को सांझ का इंतज़ार हो
तो वह लौटे हमारे मवेशियों के साथ
मैं अपनी लड़कियां कहीं छिपा नहीं सका. मुझे माफ़ करना सितारों के सरदार!
पर मैंने ख़त भेजे हैं उनकी याद में –
दुनिया की घनी आबादियों को
खार्तूम और दुनिया की ख़ूबसूरत राजधानियों को
हर पार्लियामेंट को, संसद को, कॉंग्रेस, बून्देस्ताग और मजलिस को
मैंने साफ़-साफ़ लिखा है-
कि दुनिया की गलियों में
हमारी स्मृति में रैलियां निकालो, हर बच्चे को मोमबत्ती जलाना सिखाओ
हर युवा को मैंने छोटे-छोटे झंडे भेजे हैं –सेफ्टीपिन से अपनी जेब पर टांक लो
दुनिया के हर कवि को मैंने ‘शब्द’ पार्सल किये हैं
हर धर्म के पास मैंने इबादत भेजी है
मैंने अपना सारा सामान दुनिया के म्यूज़ियमों को भेजा है
जादू-टोने, मन्त्र और बुद्ध की मूर्तियों की अनगिनत प्रतियाँ दुनिया के महानायकों को भेज चुका हूँ.
यू एन ओ को ‘शांति’ की अपील भेजी है और साथ में अपने पेड़ों, बाग़-बगीचों, नदियों, मैदानों और पक्षियों के डी एन ए सैम्पल भी
मैंने तमाम अस्पतालों से कहा है कि हमारे एकमुश्त अंगों को ले जाओ
हमारी आँखें बहुत दूर तक देखती थीं
हमारे कंठ बहुत मधुर थे और खून बहुत साफ़
हमारे गुर्दे अब भी प्रत्यारोपित किये जा सकते हैं
डेविल्स ऑन द हॉर्स बैक, वे आ रहे हैं ..वे रौंदें
इसके पहले दुनिया के ‘महान जनवाद’
हमारी आत्माओं को किसी सुरक्षित जगह पहुंचा दो.
पहुंचा दो ……
प्यार और दुलार के साथ तुम्हारा डरफर!
गौतम की प्रतीक्षा ?
कुछ तितलियाँ
फूलों की तलहटी में तैरती
कपड़े की गुथी गुड़ियाँ
कपास की धुनी बर्फ़
उड़ते बिनौले
और पीछे भागता बचपन
मिट्टी की सौंध में रमी लाल बीर बहूटियाँ
मेमनों के गले में झूलते हाथ
नदी की छार से बीन-बीन कर गीतों को उछालता सरल नेह
सूखे पत्तों की खड़-खड़ में
अचानक बसंत की लुका-छिपी
और फिर बसंत-सा ही बड़ा हो जाना –
तब दीखना चारों ओर लगी कँटीली बाड़ का
कई अवसादों का निवेश
परित्यक्त देहर पर उलझे बंदनवार
और माँ की देह से चिपकी अहिल्या
पत्थर -सी चमकती आँखों में
एक पथ खोजती
कठफोड़वे की तरह टुकटुक करती
पीड़ा की सुधियों को फोड़ रही है
काष्ठ के कोटर -सी
माँ , राम मिलेगा तो सौंप दूँगी तुझे
बाहर बहुत बर्फ़ है
तुम्हारे देश के उम्र की है
अपने चेहरे की सलवटों को तह कर
इत्मीनान से बैठी है
पश्मीना बालों में उलझी
समय की गर्मी
तभी सूरज गोलियाँ दागता है
और पहाड़ आतंक बन जाते हैं
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है
पर तुम घर में
कितनी मासूमियत से ढूँढ़ रही हो
काँगड़ी और कुछ कोयले जीवन के
तुम्हारी आँखों की सुइयाँ
बुन रही हैं
रेशमी शालू
कसीदे
फुलकारियाँ
दरियाँ
और तुम्हारी रोयें वाली भेड़
अभी-अभी देख आई है
कि चीड़ और देवदार के नीचे
झीलों में ख़ून का गंधक है
और पी आई है वह…
पानी के धोखे में सारी झेलम
अजीब सी बू में
मिमियाती
किसी अंदेशे को सूंघती
कानों में फुसफुसाना चाहती है
पर हलक में पड़े शब्द
चीत्कार में क़ैद
सिर्फ बिफ़रन बन
रिरियाते हैं
तुम हठात
अपनी झुर्रियों में
कस लेती हो उसे
लगता है बाहर बहुत बर्फ़ है !
मीत से
मीत से – कविता कविता नहीं बस अभिव्यक्ति है.. पता नहीं कब ये मिट्टी ढरक जाए.. सच में एक इच्छा कि अंतिम दाह के बाद अस्थियाँ प्रवहित न की जाएँ हमारी.. कहीं बलुआ में डाल दीं जाएँ और हमारा प्रिय वृक्ष नीम वहाँ लगा दिया जाए।
मैं जानती हूँ
कठिन होगा तुम्हारे लिए
पर असाध्य नहीं ।
तुम्हारे भीतर
मैं सिर्फ मिट्टी हूँ
एक सौंधापन लिए
तुम जड़ बनकर
मेरी परतों में
किसी नमी को
सोखते रहे-
हरे हुए
भूरे कठिन टहनियों पर
कितने तूफानों को टेक कर
मुदित हुए थे
सामर्थ्य पर ..
मैंने कुछ और कोंपलें सौंपी
और हहराकर तुम देने योग्य बन सके
मैं दीमक बीनती रही
कहीं संशय की कोई बांबी
कुरेद न दे तुमको
तुम्हारी विजय की शाखाएँ
किस कदर फैलती रहीं
गर्वोन्नत
मैं वहीँ तुम्हारी छाया को संभाले थी
पकड़कर अपनी नमी के भीतर भीतर भीतरतर
अब इस मिट्टी के विसर्जन का वक़्त है
किसी और नमी में बहने का
घुलने का
जमने का
अंतहीन नदी की धारा संग ..
पर मेरे मीत
तुम मत करना विसर्जन
रोक लेना
वहीँ अपनी भीत में
आँगन में
अँगीठी की आँच में
सृजन की माटी को
नश्वर
मैं कहीं दबी रहूँगी
चुप तुम्हारी जड़ों में..