गया तो हुस्न न दीवार में न
गया तो हुस्न न दीवार में न दर में था
वो एक शख़्स जो मेहमान मेरे घर में था
नजात धूप से मिलती तो किस तरह मिलती
मेरा सफ़र तो मियाँ दश्त-ए-बे-शजर में था
ग़म-ए-ज़माना की नागन ने डस लिया सब को
वही बचा जो तेरी ज़ुल्फ़ के असर में था
खुली जो आँख तो अफ़्सून-ए-ख़्वाब टूट गया
अभी अभी कोई चेहरा मेरी नज़र में था
न आई घर में कभी इक किरन भी सूरज की
अगरचे मेरा मकाँ वादी-ए-सहर में था
मिला न घर से निकल कर भी चैन ऐ ‘ज़ाहिद’
खुली फ़ज़ा में वही ज़हर था जो घर में था
गिला किस से करें अग़्यार-ए-दिल-आज़ार
गिला किस से करें अग़्यार-ए-दिल-आज़ार कितने हैं
हमें मालूम है अहबाब भी ग़म-ख़्वार कितने हैं
सकत बाक़ी नहीं क़ुम बे-इज़्निल्लाह कहने की
मसीहा भी हमारे दौर के बीमार कितने हैं
ये सोचो कैसी राहों से गुज़र कर मैं यहाँ पहुँचा
ये मत देखो मेरे दामन में उलझे ख़ार कितने हैं
जो सोते हैं नहीं कुछ ज़िक्र उन का वो तो सोते हैं
मगर जो जागते हैं उन में भी बे-दार कितने हैं
बहुत हैं मुद्दई सच की तरफ़-दारी के ऐ ‘ज़ाहिद’
मगर जो झूट से हैं बर-सर-ए-पैकार कितने हैं
हर एहतिमाम है दो दिन की ज़िंदगी
हर एहतिमाम है दो दिन की ज़िंदगी के लिए
सुकून-ए-क़ल्ब नहीं फिर भी आदमी के लिए
तमाम उम्र ख़ुशी की तलाश में गुज़री
तमाम उम्र तरसते रहे ख़ुशी के लिए
न खा फ़रेब वफ़ा का ये बे-वफ़ा दुनिया
कभी किसी के लिए है कभी किसी के लिए
ये दौर-ए-शम्स-ओ-क़मर ये फ़रोग़-ए-इल्म-ओ-हुनर
ज़मीन फिर भी तरसती है रौशनी के लिए
कभी उठे थे जो खुर्शीद-ए-ज़िंदगी बन कर
तरस रहे हैं वो तारों की रौशनी के लिए
सितम-तराज़ी-ए-दौर-ए-ख़िरद ख़ुदा की पनाह
के आदमी ही मुसीबत है आदमी के लिए
रह-ए-हयात की तारीकियों में ऐ ‘ज़ाहिद’
चराग़-ए-दिल है मेरे पास रौशनी के लिए
नई सुब्ह चाहते हैं नई शाम चाहते हैं
नई सुब्ह चाहते हैं नई शाम चाहते हैं
जो ये रोज़ ओ शब बदल दे वो निज़ाम चाहते हैं
वही शाह चाहते हैं जो ग़ुलाम चाहते हैं
कोई चाहता ही कब है जो अवाम चाहते हैं
इसी बात पर हैं बरहम ये सितम-गरान-ए-आलम
के जो छिन गया है हम से वो मुक़ाम चाहते हैं
किसे हर्फ़-ए-हक़ सुनाऊँ के यहाँ तो उस को सुनना
न ख़वास चाहते हैं न अवाम चाहते हैं
ये नहीं के तू ने भेजा ही नहीं पयाम कोई
मगर इक वही न आया जो पयाम चाहते हैं
तेरी राह देखती हैं मेरी तिश्ना-काम आँखें
तेरे जलवे मेरे घर के दर ओ बाम चाहते हैं
वो किताब-ए-ज़िंदगी ही न हुई मुरत्तब अब तक
के हम इंतिसाब जिस का तेरे नाम चाहते हैं
न मुराद होगी पूरी कभी उन शिकारियों की
मुझे देखना जो ‘ज़ाहिद’ तह-ए-दाम चाहते हैं
क़फ़स से छुटने पे शाद थे हम के
क़फ़स से छुटने पे शाद थे हम के लज़्ज़त-ए-ज़िंदगी मिलेगी
ये क्या ख़बर थी बहार-ए-गुलशन लहू में डूबी हुई मिलेगी
जिन अहल-ए-हिम्मत के रास्तों में बिछाए जाते हैं आज काँटे
उन्ही के ख़ून-ए-जिगर से रंगीन चमन की हर इक कली मिलेगी
वो दिन भी थे जब अँधेरी रातों में भी क़दम राह-ए-रास्त पर थे
और आज जब रौशनी मिली है तो ज़ीस्त भटकी हुई मिलेगी
नई सहर के हसीं सूरज तुझे ग़रीबों से वास्ता क्या
जहाँ उजाला है सीम ओ ज़र का वहीं तेरी रौशनी मिलेगी
कभी तो नस्ल-ओ-वतन-परस्ती की तीरगी को शिकस्त होगी
कभी तो शाम-ए-अलम मिटेगी कभी तो सुब्ह-ए-ख़ुशी मिलेगी
वो हम नहीं हैं के सिर्फ़ अपने ही घर में शमएँ जला के बैठें
वहाँ वहाँ रौशनी करेंगे जहाँ जहाँ तीरगी मिलेगी
तलाश-ए-मंज़िल का अज़्म-ए-मोहकम दलील-ए-मंज़िल-रस्सी है ‘ज़ाहिद’
क़दम तो अपने बढ़ाओ आगे खुली हुई राह भी मिलेगी
तज्दीद-ए-रवायात-ए-कोहन करते रहेंगे
तज्दीद-ए-रवायात-ए-कोहन करते रहेंगे
सर मारका-ए-दार-ओ-रसन करते रहेंगे
वो दौर-ए-ख़िज़ाँ हो के बहारों का ज़माना
हम याद तुझे जान-ए-चमन करते रहेंगे
रंगीन तेरे ज़िक्र से हम शेर ओ सुख़न को
ऐ जान-ए-सुख़न मरकज़-ए-फ़न करते रहेंगे
इस आबला-पाई पे भी हम तेरी तलब में
तय जादा-ए-आलाम-ओ-मेहन करते रहेंगे
दुनिया हमें दीवाना समझती है तो समझे
हम आम ग़म-ए-दिल का चलन करते रहेंगे
जलते हैं जिसे सुन के अँधेरे के परस्तार
हम आम वही तर्ज़-ए-सुख़न करते रहेंगे
गुलशन में न हम होंगे तो फिर सोग हमारा
गुल-पैरहन ओ ग़ुंचा-दहन करते रहेंगे
‘ज़ाहिद’ बे-ताक़ाज़ा-ए-वफ़ा तरह-ए-यक़ीं पर
हम कोशिश-ए-तामीर-ए-वतन करते रहेंगे