नालए-जाने-ख़स्ता जाँ
नालए-जाने-ख़स्ता-जाँ[1], अर्शेबरींपै[2] जाये क्यों?
मेरे लिए ज़मीन पर साहबे-अर्श[3] आये क्यों?
नूरे-ज़मीं-ओ-आसमाँ, दीदये-दिल में आये क्यों?
मेरे सियाह-ख़ाने में कोई दिया जलाये क्यों?
ज़ख़्म को घाव क्यों बनाओ? दर्द को और बढ़ाए क्यों?
निसबतेहू[4] को तोड़ कर कीजिये हाय-हाय क्यों?
बख़्शनेवाला जब मेरा उफ़ूपै[5] है तुला हुआ?
मुझ-सा गुनहगार फिर जुर्म से बाज़ आये क्यों?
‘अमजदे’-ख़स्ताहाल की पूरी हो क्यों कर आरज़ू।
दिल ही नहीं जब उसके पास, मतलबे-दिल बर आये क्यों?
- ऊपर जायें↑ निर्बल शरीरवाले दिल की आहें
- ऊपर जायें↑ ईश्वर के समीप तक
- ऊपर जायें↑ भगवान
- ऊपर जायें↑ ईश्वर-लीनता
- ऊपर जायें↑क्षमाशीलता
हम तो एक बार उसके हो जायें
हम तो एक बार उसके हो जायें।
वो हमारा हुआ, हुआ, न हुआ॥
ढूँढ़ता हूँ मैं हर नफ़स[1] उसको।
एक नफ़स[2] मुझसे जो जुदा न हुआ॥
क्या मिला वहदते-वजूदी से[3]?
बन्दा, बन्दा रहा, खुदा न हुआ॥
बन्दगी में यह किब्रयाई[4] है?
ख़ैर गुज़री कि मैं ख़ुदा न हुआ॥
- ऊपर जायें↑ सांस
- ऊपर जायें↑ लम्हा
- ऊपर जायें↑ एक-ईश्वरवाद से
- ऊपर जायें↑ अभिमान
एक शे’र
किस शान से ‘मैं’ कहता हूँ, अल्लाह रे मैं।
समझा नहीं ‘मैं’ को आज तक वाह रे मैं॥
बरबाद न कर बेकस का चमन…
बरबाद न कर बेकस का चमन, बेदर्द ख़िज़ाँ से कौन कहे।
ताराज़[1] न कर मेरा खिरमन[2], उस बर्के़-तपाँ[3] से कौन कहें॥
मुझ ख़स्ता जिगर की जान न ले, यह कौन अजल को[4] समझाएं।
कुछ देर ठहर जा ऐ दरिया! दरिया-ए-रवाँ से कौन कहें॥
सीने में बहुत ग़म है पिन्हा और दिल में हज़ारों हैं अरमाँ।
इस क़हरे-मुजस्सिम [5] के आगे, हाल अपना ज़बाँ से कौन कहे॥
हरचंद हमारी हालत पर रहम आता है हर इक को लेकिन–
कौन आपको आफ़त में डालें, उस आफ़ते-जाँ से कौन कहे॥
क़ासिद के बयाँ का ऐ ‘अमजद’ क्योंकर हो असर उनके दिल पर
जिस दर्द से तुम ख़ुद कहते हो, उस तर्ज़ेबयाँ से कौन कहे॥
- ऊपर जायें↑ नष्ट
- ऊपर जायें↑ खलिहान
- ऊपर जायें↑ कौंधती हुई बिजली
- ऊपर जायें↑ मृत्यु को
- ऊपर जायें↑ साक्षात मौत
दो शे’र
किस तरह नज़र आये वो परदानशीं ‘अमजद’!
हर परदे के बाद और एक परदा नज़र आता है॥
वो करते हैं सब छुपकर, तदबीर इसे कहते हैं।
हम घर लिए जाते हैं, तक़दीर इसे कहते हैं॥
( हम ख़्वाब में वाँ पहुँचे, तदबीर इसे कहते हैं।
वो नींद से चौंक उट्ठे, तक़दीर इसे कहते हैं॥ )
तू कान का कच्चा है…
तू कान का कच्चा है तो बहरा हो जा,
बदबीं[1] है अगर आँख तो अन्धा हो जा।
गाली-गै़बत[2] दरोग़गोई[3] कब तक?
‘अमजद’ क्यों बोलता है, गूँगा हो जा॥
मत सुन परदेकी बात बहरा हो जा,
मत कह इसरोरे-ग़नी[4] गूँगा हो जा।
वो रूए लतीफ़[5] और यह नापाक नज़र,
‘अमजद’ क्यों देखता है अन्धा हो जा॥
- ऊपर जायें↑ कुदृष्टि
- ऊपर जायें↑ पीठ पीछे बुराई करने की आदत
- ऊपर जायें↑ असत्य सम्भाषण
- ऊपर जायें↑ शत्रु का भेद
- ऊपर जायें↑ सुशील पवित्र नारी का कोमल देह