जय हिन्द
पैदा उफ़क़े –हिन्द से हैं सुबह के आसार
है मंज़िले-आखिर में ग़ुलामी की शबे-तार
आमद सहरे-नौ की मुबारक हो वतन को
पामाले – महन को
मश्रिक़ में ज़ियारेज हुआ सुबह का तारा
फ़र्ख़न्दा-ओ-ताबिन्दा-ओ-जांबख़्श-ओ-दिलआरा
रौशन हुए जाते हैं दरो-बाम वतन के
ज़िन्दाने – कुहन के
‘जयहिन्द’ के नारों से फ़ज़ा गूँज रही है
‘जयहिन्द’ की आलम में सदा गूँज रही है
यह वलवला यह जोश यह तूफ़ान मुबारक
हर आन मुबारक
अहले-वतन आपस में उलझने का नहीं वक़्त
ऐसा न हो गफ़्लत में गुज़र जाये कहीं वक़्त
लाज़िम है कि मंज़िल के निशाँ पर हों निगाहें
पुरपेच हैं राहें
वह सामने आज़ादिए-कामिल का निशाँ है
मक़सूद वही है, वही मंज़िल का निशाँ है
दरकार है हिम्मत का सहारा कोई दम और
दो चार क़दम और
पयामे-सुलह
लाई पैग़ाम मौजे-बादे-बहार
कि हुई ख़त्म शोरिशे – कश्मीर
दिल हुए शाद अम्न केशों के
है यह गांधी के ख़्वाब की ताबीर
सुलहजोई में अम्नकोशी में
काश होती न इस क़दर ताख़ीर
ताकि होता न इस इस क़दर नुक़्साँ
और होती न दहर में तश्हीर
बच गये होते नौजवां कितने
जिनको मरवा दिया बसर्फे-कसीर
ज़िक्र क्या उसका, जो हुआ सो हुआ
उन बेचारों की थी यही तक़दीर
काम लें अब ज़रा तहम्मुल से
दोनों मुल्कों के साहबे-तदबीर
दिल से तख़रीब का ख़याल हो दूर
और हो जायें माइले-तामीर
रंग इस में ख़ुलूस का भर दें
खिंच रही है जो अम्न की तस्वीर
अहदो-पैमां हों वक़्फे-इस्तक़लाल
उनकी तकमील में नहीं तक़्सीर
अहले-अख़बार हों वफ़ा आमोज़
क़ातए-दोस्ती न हो तहरीर
आमतुन्नास हों इधर न उधर
किसी उन्वान इश्तिआल पज़ीर
अलमे-आश्ती बलन्द रहे
अन्दरूने-नियाम हो शमशीर
हर दो जानिब की बेटियाँ-बहनें
हैं जो मज़बूरे-क़ैदे-बेज़ंजीर
जिस क़दर जल्द हो रिहा हो जाएँ
उनका क्या जुर्म ? क्यों रहें वह असीर
है तक़ाज़ा यही शराफ़त का
दोनों मुल्क़ों की इसमें हैं तौक़ीर
रहें आबाद हिन्दो-पाकिस्ताँ
तेरी रहमत से अय ख़ुदाए-क़दीर
ग़रज परवाज़ हो चुका महरूम
अब कहें कुछ ‘हफ़ीज़’ और ‘तासीर’
आज़ादी
फ़ज़ा की आबरू है परचमे-गर्दूं वक़ार अपना
कि है इस दौर की आज़ाद क़ौमों में शुमार अपना
ग़ुलामी और नाकामी का दौरे इब्तिला गुज़रा
मुसाइद बख़्त है अब और हामी रोज़गार अपना
छुटे दामन से अपने दाग़ हाए-नंगे-महक़ूमी
वतन अपना है, अपनी सल्तनत है, इक़्तिदार अपना
न गुलचीं ग़ैर है कोई न है सैयाद का खटका
चमन अपना है, अपने बाग़बाँ, लुत्फ़े-बहार अपना
अब अय अहले-वतन! इसको बिगाड़ें या बनायें हम
मुक़द्दर पर है अपने हमको हासिल इख़्तियार अपना
क़हते-बंगाल
दूसरे विश्व युद्ध के मौक़े पर
ग़ुलामी में नहीं है इनमें बचने का कोई चारा
यह लड़ते है जहाँ से और हम पर बोझ है सारा
बजाने के लिए अपनी जहाँगीरी का नक़्क़ारा
हमारी खाल खिंचवाते हैं, देखो तो यह नज़्ज़ारा
बज़ाहिर है करमपर्वर, ब बातिन हैं सितमआरा
यह अपनी ज़ात की ख़ातिर हैं सबकी जान के दुश्मन
हैं ख़ू आगाम हर हैवान के, इंसान के दुश्मन
कभी हैं चीन के दुश्मन, कभी ईरान के दुश्मन
हमारे दोस्त भी कब हैं, जो हैं जापान के दुश्मन
उसे बन्दूक़ से मारा तो हमको भूख से मारा
आज़ाद हिन्द फ़ौज
अय जैसे-सरफ़रोशे-जवानाने-ख़ुशनिहाद
सीने पे तेरे कुंद हुई तेग़े-इश्तिदाद
ग़ुर्बत में तूने दी है शुजाअत की ख़ूब दाद
अक़्वामे-दहर करती है ज़ुरअत पे तेरी साद
तू कामराँ रहे, तिरे दुश्मन हों नामुराद
हिन्दोस्ताँ की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्दाबाद
दरिया-ओ-दश्त-ओ-कोह में तेरा बिगुल बजे
जिसकी सदा से गुम्बदे-गर्दूं भी गूँज उठे
मैदाँ में मौत भी जो मुजस्सम हो सामने
तेरे दिलावरों के न हों पस्त हौसले
हो बल्कि उसका और भी तोशे-अमल ज़ियाद
हिन्दोस्ताँ की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्दाबाद
परदेस में जो खेत रहे हैं जवाँ तिरे
हैं दफ़्न ज़ेरे-ख़ाक ख़ज़ाने वहाँ तिरे
बर्मा के जंगलों में लहू के निशाँ तिरे
नक़्शे-दवाम हैं वह तहे-आस्माँ तिरे
ता रोजे-हश्र अहले-वतन को रहेंगे याद
हिन्दोस्ताँ की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्दाबाद
आज़ादिए-वतन की तमन्नए-दिल नवाज़
ज़िन्दाँ में घुट के रह गई या दिल में मिस्ले-राज़
कहते थे जुर्म जिसको हुकूमत के हीलासाज़
तेरे अमल हो उसको मिली खिलअते-जवाज
अब ‘हक़’ है जिसका नाम रहा ‘ग़दर और फ़साद’
हिन्दोस्ताँ की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्दाबाद
ग़ालिब था बस्किसाहिरे-अफ़रंग का फ़सूँ
दो सौ बरस से था इल्मे-हिन्द सर नगूँ
तूने दयारे-ग़ैर में दिखला दिया कि यूँ
मर्दाने-कार करते हैं बातिल को ग़र्के़-ख़ूँ
बातिल हो ख़्वाह कोहे-गराँ ख़्वाह गर्दबाद
हिन्दोस्ताँ की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्दाबाद
स्वदेशी तहरीक
वतन के दर्दे-निहां की दवा स्वदेशी है
ग़रीब क़ौम की हाजत रवा स्वदेशी है
तमाम दहर[1] की रूहे-रवाँ[2] है यह तहरीक[3]
शरीके हुस्ने-अमल[4] जा ब जा स्वदेशी है
क़रारे-ख़ातिरे-आशुफ़्ता[5] है फ़ज़ा इसकी
निशाने-मंजिले, सिदक़ो-सफ़ा[6] स्वदेशी है
वतन से जिनको महब्बत नहीं वह क्या जानें
कि चीज कौन विदेशी है क्या स्वदेशी है
इसी के साये में पाता है परवरिश इक़बाल
मिसाले-साय:-ए-बाले-हुमा स्वदेशी है
इसी ने ख़ाक को सोना बना दिया अक्सर
जहां में गर है कोई कीमिया स्वदेशी है
फ़ना के हाथ में है जाने-नातवाने-वतन
बक़ा जो चाहो तो राज़े-बक़ा स्वदेशी है
हो अपने मुल्क की चीज़ों से क्यों हमें नफ़रत
हर एक क़ौम का जब मुद्दआ स्वदेशी है
फुटकर शेर
1.
जो तू ग़मख़्वार[1] हो जाये तो ग़म क्या,
ज़माना क्या, ज़माने के सितम क्या ।
2.
ख़लिश[2] ने दिल को मेरे कुछ मज़ा दिया ऐसा,
कि जमा करता हूँ मैं ख़ार[3] आशियाँ के लिए ।
3.
इन बेनियाजियों[4] पै दिल है रहीने-शौक़,[5]
क्या जाने इसको क्या हो जो परवा करे कोई।
4.
दुनिया में न कर किसी से बेइंसाफ़ी,
दुनिया से मगर न रख उम्मीदे-इन्साफ़ ।