अब क़बीले की रिवायत है बिखरने वाली
अब क़बीले की रिवायत है बिखरने वाली
हर नज़र ख़ुद में कोई शहर है भरने वाली
ख़ुश-गुमानी ये हुई सूख गया जब दरिया
रेत से अब मिरी कश्ती है उभरने वाली
ख़ुशबुओं के नए झोंके हैं हर इक धड़कन में
कौन सी रूत है मिरे दिल में ठहरने वाली
कुछ परिंदे हैं मगन मौसमी परवाज़ों में
एक आँधी है पर-ओ-बाल कतरने वाली
हम भी अब सीख गए सब्ज़ पसीने की ज़बाँ
संग-ज़ारों की जबीनें हैं सँवरने वाली
तेज़ धुन पर थे सभी रक़्स में क्यूँ कर सुनते
चंद लम्हों में बलाएँ थीं उतरने वाली
बस उसी वक़्त कई ज्वाला-मुखी फूट पड़े
मोतियों से मिरी हर नाव थी भरने वाली
ढक लिया चाँद के चेहरे को सियह बादल ने
चाँदनी थी मिरे आँगन में उतरने वाली
चेहरों पे ज़र-पोश अंधेरे फैले हैं
चेहरों पे ज़र-पोश अंधेरे फैले हैं
अब जीने के ढंग बड़े ही महँगे हैं
हाथों में सूरज ले कर क्यूँ फिरते हैं
इस बस्ती में अब दीदा-वर कितने हैं
क़द्रों की शब-रेज़ी पर हैरानी क्यूँ
ज़ेहनों में अब काले सूरज पलते हैं
हर भरे जंगल कट कर अब शहर हुए
बंजारे की आँखों में सन्नाटे हैं
फूलों वाले टापू तो ग़र्क़ाब हुए
आग अगले नए जज़ीरे उभरे हैं
उस के बोसीदा-कपड़ों पर मत जाओ
मस्त क़लंदर की झोली में हीरे हैं
ज़िक्र करो हो मुझ से क्या तुग़्यानी का
साहिल पर ही अपने रेन बसेरे हैं
इस वादी का तो दस्तूर निराला है
फूल सरों पर कंकर पत्थर ढोते हैं
‘अम्बर’ लाख सवा पंखी मौसम आएँ
वोलों की ज़द में अनमोल परिंदे हैं
गर्दिश का इक लम्हा यूँ बेबाक हुआ
गर्दिश का इक लम्हा यूँ बेबाक हुआ
सोने चाँदी का हर मंज़र ख़ाक हुआ
नहर किनारे एक समुंदर प्यासा है
ढलते हुए सूरज का सीना चाक हुआ
इक शफ़्फ़ाफ़ तबीअत वाला सहराई
शहर में रह कर किस दर्जा चालाक हुआ
शब उजली दस्तारें क्या सर-गर्म हुईं
भोर समय सारा मंज़र नमनाक हुआ
वो तो उजालों जैसा था उस की ख़ातिर
आने वाला हर लम्हा सफ़्फ़ाक हुआ
ख़ाल-ओ-ख़द मंज़र पैकर और गुल बूटे
ख़ूब हुए मेरे हाथों में चाक हुआ
इक तालाब की लहरों से लड़ते लड़ते
वो भी काले दरिया का पैराक हुआ
मौसम ने करवट ली क्या आँधी आई
अब के तो कोहसार ख़स-ओ-ख़ाशाक हुआ
बातिन की सारी लहरें थीं जोबन पर
उस के आरिज़ का तिल भी बेबाक हुआ
चंद सुहाने मंज़र कुछ कड़वी यादें
आख़िर ‘अम्बर’ का भी क़िस्सा पाक हुआ
जगमगाती रौशनी के पार क्या था देखते
जगमगाती रौशनी के पार क्या था देखते
धूल का तूफ़ाँ अंधेरे बो रहा था देखते
सब्ज़ टहनी पर मगन थी फ़ाख़्ता गाती हुई
एक शकरा पास ही बैठा हुआ था देखते
हम अंधेरे टापुओं में ज़िंदगी करते रहे
चाँदनी के देस में क्या हो रहा था देखते
जान देने का हुनर हर शख़्स को आता नहीं
सोहनी के हाथ में कच्चा घड़ा था देखते
ज़ेहन में बस्ती रही हर बार जूही की कली
बैर के जंगल से हम को क्या मिला था देखते
आम के पेड़ों के सारे फल सुनहरे हो गए
इस बरस भी रास्ता क्यूँ रो रहा था देखते
उस के होंटों के तबस्सुम पे थे सब चौंके हुए
उस की आँखों का समुंदर क्या हुआ था देखते
रात उजले पैरहन वाले थे ख़्वाबों में मगन
दूधिया पूनम को किस न डस लिया था देखते
बीच में धुँदले मनाज़िर थे अगरचे सफ़-ब-सफ़
फिर भी ‘अम्बर’ हाशिया तो हँस रहा था देखते
जलते हुए जंगल से गुज़रना था हमें भी
जलते हुए जंगल से गुज़रना था हमें भी
फिर बर्फ़ के सहरा में ठहरना था हमें भी
मे‘आर-नावाज़ी में कहाँ उस को सुकूँ था
उस शोख़ की नज़रों से उतरना था हमें भी
जाँ बख़्श था पल भर के लिए लम्स किसी का
फिर कर्ब के दरिया में उतरना था हमें भी
यारों की नज़र ही में न थे पँख हमारे
ख़ुद अपनी उड़ानों को कतरना था हमें भी
वो शहद में डूबा हुआ लहजा वो तख़ातुब
इख़्लास के वो रंग कि डरना था हमें भी
याद आए जो क़द्रों के महकते हुए गुलबन
चाँदी के हिसारों से उभरना था हमें भी
सोने के हंडोले में वो ख़ुश-पोश मगन था
मौसम भी सुहाना था सँवरना था हमें भी
हर फूल पे उस शख़्स को पत्थर थे चलाने
अश्कों से हर इक बर्ग को भरना था हमें भी
उस को था बहुत नाज़ ख़द्द-ओ-ख़ाल पे ‘अम्बर’
इक रोज़ तह-ए-ख़ाक बिखरना था हमें भी
क्यूँ न हों शाद कि हम राहगुज़र में हैं अभी
क्यूँ न हों शाद कि हम राहगुज़र में हैं अभी
दश्त-ए-बे-सब्ज़ में और धूप नगर में हैं अभी
सुर्ख़ आज़र ही मिरे ज़ख़्मों पे न हो यूँ मसरूर
कई शहपर मिरे टूटे हुए पर में हैं अभी
इन धुँदलकों की हर इक चाल तो शातिर है मगर
नुक़रई नक़्श मिरे दस्त-ए-हुनर में हैं अभी
उम्र भर मैं तो रहा ख़ाना-बदोशी में इधर
कुछ कबूतर मिरे अस्लाफ़ के घर में हैं अभी
एक मुद्दत से कोई सब्ज़ न उभरा इस में
घोंसले चील के बे-बर्ग शजर में हैं अभी
शहर की धूल फ़ज़ाएँ ही मुक़द्दर में रहीं
आम के बोर मगर मेरी नज़र में हैं अभी
राख के ढेर पे मातम न करो देखो भी
कई शोले किसी बे-जान शरर में हैं अभी
एह साहिर कभी गुज़रा था इधर से ‘अम्बर’
जा-ए-हैरत कि सभी उस के असर में हैं अभी
शब ख़्वाब के ज़जीरों में हँस कर गुज़र गई
शब ख़्वाब के ज़जीरों में हँस कर गुज़र गई
आँखों में वक़्त-ए-सुब्ह मगर धूल भर गई
पिछली रूतों में सारे शजर बारवर तो थे
अब के हर एक शाख़ मगर बे-समर गई
हम भी बढ़े थे वादी-ए-इज़हार में मगर
लहजे के इंतिशार से आवाज़ मर गई
तुझ फूल के हिसार में इक लुत्फ़ है अजब
छू कर जिसे हवा-ए-तरब-ए-मोतबर गई
दिल में अजब सा तीर तराज़ू है इन दिनों
हाँ ऐ निगाह-ए-नाज़ बता तू किधर गई
मक़्सद सला-ए-आम है फिर एहतियात क्यूँ
बे-रंग रौज़नों से जो ख़ुशबू गुज़र गई
उस के दयार में कई महताब भेज कर
वादी-ए-दिल में इक अमावस ठहर गई
अब के क़फ़स से दूर ही मौसमी हवा
आज़ाद ताएरों के परों को कतर गई
आँधी ने सिर्फ़ मुझ को मुसख़्खर नहीं किया
इक दश्त-ए-बे-दिली भी मिरे नाम कर गई
फिर चार-सू कसीफ़ धुएँ फैलने लगे
फिर शहर की निगाह तेरे क़स्र पर गई
अल्फ़ाज़ के तिलिस्म से ‘अम्बर’ को है शग़फ़
उस की हयात कैसे भला बे-बुनर गई
फिर उस घाट से ख़ुश्बू ने बुलावे भेजे
फिर उस घाट से ख़ुश्बू ने बुलावे भेजे
मेरी आँखों ने भी ख़ुशआब नगीने भेजे।
मुद्दतों, उसने कई चाँद उतारे मुझमें
क्या हुआ? उसने जो इक रोज़ धुंधलके भेजे।
मैंने भी उसको कई ज़ख़्म दिए दानिस्ता
फिर तो उसने मेरी हर सांस को गजरे भेजे।
मैं तो उस दश्त को चमकाने गया था, उसने
बेसबब, मेरे तआक़ुब में उजाले भेजे।
चाँद निकलेगा तो उछलेगा समंदर का लहू
धुंध की ओट से उसने भी इशारे भेजे।
मोर ही मोर थे हर शाख पे संदल की मगर
ढूँढ़ने साँप वहाँ, उसने सपेरे भेजे।
मेरी वादी में वहीं सूर्ख़ बगूले हैं अभी
मैंने इस बार भी सावन को क़सीदे भेजे।
दस्तोपा कौनसे ‘अम्बर’ वो मशक़्क़त कैसी
उसकी रहमत, कि मुझे सब्ज़ नवाले भेजे।